1967 में राम मनोहर लोहिया ने इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ करार दिया था. 1974 में आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष डीके बरुआ ने कहा कि ‘इंदिरा इज इंडिया’. बरुआ का बयान बताता है कि उस दौर की राजनीति पर इंदिरा गांधी की किस कदर पकड़ थी. देखा जाए तो इंदिरा काल 1969 से शुरू होता है जब उन्होंने कांग्रेस को अंदर से तोड़कर कांग्रेस (आर) की स्थापना की और प्रधानमंत्री बन बैठीं.

आज हम ज़िक्र कर रहे हैं साल 1970 का. वह साल जब पहली बार आज़ाद हिंदुस्तान में पूर्व राजा-महाराजाओं को मिलने वाले वित्तीय लाभ, जिन्हें अंग्रेजी में ‘प्रिवी पर्सेस’ कहते हैं, पर संसद में बहस हुई थी और अंततः 1971 में संविधान में संशोधन करके इसे बंद करवा दिया गया था.
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद समीकरण बदल गए थे
मोरारजी देसाई के कांग्रेस से जाने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने इंदिरा को ‘गरीबों की हितैषी वाली छवि दे दी थी.’ और फिर कांग्रेस का विभाजन भी उनके काम आया था. नयनतारा सहगल अपनी किताब ‘इंदिरा गांधी- हर रोड टू पॉवर’ में लिखती हैं कि पार्टी को दोफाड़ करने में इंदिरा ने जिस तरह की आक्रामकता दिखाई वह कांग्रेस के लिए नयी बात थी. उनका नाटकीय, चतुर और निर्दयी अंदाज़, और इन सबसे ऊपर, 84 साल की पार्टी को इस तरह से तोड़ देना लोगों को हैरत में डाल गया.
बेख़ौफ़ इंदिरा, अब पूरी तरह से बेलौस हो गयी थीं और समाजवाद की धुरी पर घूम रही थीं. बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद अगला नंबर प्रिवी पर्स का था.
क्या था प्रिवी पर्स?
आजादी के पहले हिंदुस्तान में लगभग 500 से ऊपर छोटी बड़ी रियासतें थीं. ये सभी संधि द्वारा ब्रिटिश हिंदुस्तान की सरकार के अधीन थीं. इन रियासतों के रक्षा और विदेश मामले ब्रिटिश सरकार देखती थी. इन रियासतों में पड़ने वाला कुल इलाका भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्रफ़ल का तिहाई था. देश की 28 फीसदी आबादी इनमें रहती थी. इनके शासकों को क्षेत्रीय-स्वायत्तता प्राप्त थी. जिसकी जितनी हैसियत, उसको उतना भत्ता ब्रिटिश सरकार देती थी. यानी, ये नाममात्र के राजा थे, इनके राज्यों की सत्ता अंग्रेज सरकार के अाधीन थी, इनको बस बंधी-बंधाई रकम मिल जाती थी.
आगे, इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट, 1935 के तहत जब देश आज़ाद हुआ तो लार्ड माउंटबेटन ने इन रियासतों का हिंदुस्तान या पाकिस्तान में विलय करने का सुझाव दिया, जिसे अधिकतर राजाओं ने कुछ शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया. बाद में सरकार ने उन तमाम शर्तों को ख़ारिज कर दिया, बस ‘प्रिवी पर्स’ को जारी रखा. इसके तहत उनका ख़ज़ाना, महल और किले उनके ही अधिकार में रह गए थे. यही नहीं, उन्हें केंद्रीय कर और आयात शुल्क भी नहीं देना पड़ता था. यानी, अब ये कर (टैक्स) ले तो नहीं पाते थे पर न देने की छूट भी मिली हुई थी. कुल मिलाकर, इनकी शान-ओ-शौक़त बरकरार थी.
प्रिवी पर्स बंद करने की दलील
इंदिरा गांधी समाजवाद की तरफ़ झुक गई थीं. इसमें कुछ तो उनके सलाहकारों की भूमिका थी और कुछ उनकी अपनी सोच की. इंदिरा के सलाहकार पीएन हक्सर का मानना था कि जिस देश में इतनी ग़रीबी हो वहां राजाओं को मिलने वाली ये सुविधाएं तर्कसंगत नहीं लगतीं. लोगों को उनके विचार सही लगे. लगने भी थे क्योंकि जनता को कभी राजशाही मंजूर नहीं थी.
सरकार बनाम महाराजों की जमात
रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर में गांधी’ में लिखते हैं कि ‘प्रिवी पर्स’ को बंद करने की शुरुआत 1967 में हो गयी थी. तब गृह मंत्री वाईबी चव्हाण को पूर्व राजाओं से इस विषय में बातचीत कर आम राय बनाने का ज़िम्मा दिया गया था. ध्रांगधरा के पूर्व महाराजा सर मयूरध्वजसिंह जी मेघराज जी (तीसरे) बाकी राजाओं की तरफ से बातचीत कर रहे थे.
दोनों के बीच कई बैठकें हुईं पर कोई नतीजा नहीं निकला. आख़िर इतनी आसानी मानने वाला था? रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि तब इंदिरा गांधी पार्टी के भीतर अपने वर्चस्व की लडाई लड़ रही थीं, इसलिए उन्होंने इस मुद्दे पर कोई तुरंत कार्रवाई नहीं की. ज़ाहिर है एक साथ सारे मोर्चों पर लड़ना समझदारी नहीं होती.
कांग्रेस के दो-फाड़ के बाद इंदिरा सर्वेसर्वा हो गयीं. उनके पास पार्टी का आंख मूंद समर्थन था. वीवी गिरी उनकी कृपा से राष्ट्रपति बन चुके थे. उन्होंने इस लड़ाई का मोर्चा खोल दिया. सरकार और राजाओं के बीच भयंकर तनातनी हो गयी. कोई नतीजा निकलता न देख, जामनगर (गुजरात) के राजा ने एक नया प्रस्ताव दे दिया.
क्या था जामसाहेब का प्रस्ताव
जामनगर के राजा को जनता आज भी ‘जामसाहेब’ कहकर बुलाती है. उन्होंने, दिल्ली सरकार को पत्र लिखकर दोनों पक्षों की जिद पर अड़े रहने की आलोचना की और लिखा कि सरकार अगर ‘प्रिवी पर्स’ बंद करना चाहती है, तो बेशक करे. इसके बदले सभी राजाओं को एकमुश्त 25 साल के ‘प्रिवी पर्स’ बराबर तय राशि दे दी जाए. इसमें 25 फीसदी अभी नकद मिले और 25 फीसदी सरकारी प्रतिभूतियों (बांड्स) की शक्ल में जिन्हें 25 साल बाद नकद में बदला जा सके, और बचा 50 फीसदी पैसा तो उसे राजाओं द्वारा संचालित पब्लिक चैरिटी ट्रस्टों में दे दिया जाए. शर्त यह रहे कि वे सभी ट्रस्ट, इस राशि का इस्तेमाल राज्यों में खेल, पिछड़ी जातियों में शिक्षा के प्रसार और ख़त्म होते वन्य जीवन के संरक्षण में करें. कॉरपोरेट जगत में इसे ‘गोल्डन शेकहैंड’ कहते हैं.
जब यह चिट्ठी इंदिरा गांधी को मिली, तो उन्होंने वाईबी चव्हाण को इस पर ‘रचनात्मक कार्यों में छिपी असली मंशा’ नोट लिखकर भेज दिया. लिहाज़ा, चव्हाण ने कोई कदम नहीं उठाया. बात जस की तस रही और उन्होंने संसद में ‘प्रिवी पर्स’ ख़त्म करने के बाबत संवैधानिक संशोधन करने के लिए बिल पेश कर दिया. लोक सभा में तो इसे बहुमत से पारित कर दिया गया पर राज्यसभा में यह बिल एक वोट से गिर गया. इसके बाद राष्ट्रपति वीवी गिरी सरकार की सहायता को आगे आये और उनके आदेशानुसार सभी राजाओं और महाराजों की मान्यता रद्द कर दी गयी. राजा और प्रजा का अंतर कम हो गया.
राजाओं की फ़ौज सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गई
सब के सब कोर्ट पहुंच गए. सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के आदेश पर रोक लगा दी. यह इंदिरा गांधी की सत्ता को दूसरी चुनौती थी. इसके पहले बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर भी कोर्ट और सरकार आमने-सामने हो गए थे.
जनता की भावना इस मुद्दे पर कांग्रेस के साथ थी. हवा इंदिरा गांधी के अनुकूल थी. उन्होंने सरकार भंग करके चुनावों की घोषणा कर दी. इंदिरा भारी बहुमत से चुनाव जीतकर सत्ता में लौटीं और फिर संविधान में 26 वां संशोधन करके ‘प्रिवी पर्स’ को हमेशा के लिए बंद कर दिया.
चलते-चलते दो क़िस्से
यह किस्सा प्रिवी पर्स जैसा ही है. लार्ड माउंटबेटन जब वायसराय की गद्दी से उतरे तो उन्होंने वायसराय भवन खाली करने की इच्छा जाहिर की. उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से कहा कि उन्हें अब तत्कालीन सेना अध्यक्ष द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तीन मूर्ति भवन में चले जाना चाहिए.
नेहरू ने उनकी राय नहीं मानी और कहा कि चूंकि वे (माउंटबेटन) अब कम समय के लिए भारत में रहेंगे, इसलिए उन्हें अपना स्थान नहीं बदलना चाहिए. इस किस्से का ज़िक्र करते हुए जेबी कृपलानी अपने लेख ‘जेनेसिस ऑफ़ पार्टीशन’ में लिखते हैं, ‘नेहरू यह नहीं देख पा रहे थे कि माउंटबेटन ऐसा इसलिए कर रहे हैं कि आज़ाद भारत के होने वाले राष्ट्रपति इस बात से सीख लेकर वाइसराय भवन में नहीं रहेंगे.’ यह भवन अब राष्ट्रपति निवास कहा जाता है.
दूसरा किस्सा जयपुर का है. जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई थी तो सरकारी आदेश पर सेना के लश्कर ने शहर के जयगढ़ किले में गड़े हुए खज़ाने की खोज के लिए किले पर चढ़ाई कर दी थी. किले के दरवाज़े खड़े संतरी ने सेना के अफसर की जीप और ट्रकों को रोक दिया. जब अफ़सर ने उसे राज्यादेश सुनाये तो उसने कहा, ‘म्हारा हुकम म्हने आदेस दई तो में पीछे हट जावां, नहीं थे म्हारे ऊपर भले गोली मार देओ, मैं एक पग कोनी डिगां.’
अब फौज तो अक्सर अपनों पर गोली नहीं मारती. सरकार ने राजा को फ़ोन करके उस संतरी को हट जाने को कहा. कहते हैं कि किले में कोई ख़ज़ाना नहीं मिला था.
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