निर्मल वर्मा को उनकी रचनाओं के माध्यम से देखने वाले उन्हें आत्मनिष्ठ, संशयों से घिरे, दुख से लिपटे रहने और उनका उत्सव मनाने वाले लेखक की तरह जानते और पहचानते हैं. हालांकि यह धारणा कहीं से भी सही नहीं है. निर्मल वर्मा का सोचने का तरीका भले ही परंपरागत साहित्यकारों से जुदा हो लेकिन बतौर लेखक वे सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों पर एक सजग रचनाकार और विचारक थे. स्वतंत्र पत्रकार और लेखिका कविता से दो दशक साल पहले हुई उनकी बातचीत पढ़कर यह बात आसानी से समझी जा सकती है :
आज के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर आपकी क्या राय है?
आज सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में पतन और राजनीति में अवसरवादिता ने अपना स्थान बना लिया है. पहले भ्रष्टाचार को एक असाधारण दोष माना जाता था. बाद में माना जाने लगा कि लोकतंत्र में भ्रष्टाचार तो होता ही है. यदि हम लोकतंत्र कि मर्यादाएं भंग करने वाली चीजों को लोकतंत्र का अंश मानने लगें तो यह हमारे समाज और व्यक्तित्व में आए पतन को ही दर्शानेवाली बात होगी.
मैं मानता हूं कि इस जड़ स्थिति से हमें मध्यवर्ग ही उबार सकता है. स्वतंत्र भारत में यदि हम किसी वर्ग के प्रति आस्था रखते हैं तो वह मध्यवर्ग ही है. यदि यह वर्ग साहस करके सच को सच कह सके तो हमारे सार्वजनिक जीवन के पतन और राजनीतिक जीवन में आई अवसरवादिता से हमें छुटकारा मिल सकता है.
ऐसा क्यों है कि यह समाज बदहाल स्थिति में जी रहा है? कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती जैसे कि लोग चुक गए हों?
इसका एक बहुत बड़ा कारण है हमारे भीतर यथास्थिति को स्वीकार करने कि प्रवृति का आना. यह परिवर्तन बहुत मायने रखता है. इसी कारण विरोध या संघर्ष आज चेतना के स्तर पर न होकर पावर के स्तर पर होने लगा है. परिवर्तन की आकांक्षा अगर ‘सत्ता’ के लिए हो, ‘पावर’ के लिए हो तो जिस तरह का नैतिक आंदोलन जयप्रकाश जी या गांधी जी ने किया था, नामुमकिन हो जाता है. यहां तो स्थिति आज यह है कि जिस चीज या कि मुद्दे को उठाओ उसे अपने सत्ता में आने कि प्रक्रिया को तेज करने का साधन भर समझ लो. जनता के हित की बात यहां नहीं होती. हर कमी, हर न्यूनता को यहां वैयक्तिक और निजी स्वार्थ के हित में कैश करवाया जाता है.
हम-आप सभी जब निज पर केन्द्रित हो चलेंगे तो कहां की और कैसी सुगबुगाहट? ऐसे समय में साहित्य से कोई आशा? क्या यह सामूहिक लक्ष्यों के प्रति हमारी चेतना को संगठित कर सकता है?
साहित्य चेतना को संगठित नहीं करता. साहित्य केवल उन मूल्यों के प्रति सचेत करता है, जिन मूल्यों ने साहित्य और सत्ता के ढांचे के बीच में एक संतुलन बनाए रक्खा है. उदहारण के तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एक मूल्य है. हमारे संविधान में इसे स्वीकार किया गया है. साहित्य में इसकी स्वतंत्रता को महत्व दिया गया है; किन्तु कौन-सा शब्द हमारे जीवन कि सच्चाई को प्रतिध्वनित करता है या उसका प्रतिनिधित्व करता है, उस शब्द को बोलने का विवेक अगर न हो तो यह स्वतन्त्रता भी कोई मायने नहीं रखती... इस दृष्टि से देखें तो एक साहित्यकार उस अन्तराल या स्पेस की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है जो मौखिक और औपचारिक रूप से उपलब्ध है, लेकिन जो हमारे जीवन में, यथार्थ में कार्यान्वित नहीं होता. मेरे खयाल में एक लेखक का कर्तव्य यह होता है कि वह लोगों को बराबर उस खाई के प्रति सचेत करे जो उसकी चेतना में खुदती जाती है; बड़ी होती चलती है.
आप कहते हैं कि इन समस्याओं का समाधान हमारे मध्यवर्ग के पास है, लेकिन यह कैसे संभव हो सकता है क्योंकि यह वर्ग तो अपने ‘सर्वाइवल’ के लिए दिन–रात लगा रहता है. ऐसे में वह इन समस्याओं का समाधान कैसे बन सकता है?
मध्यवर्ग कि उत्पत्ति ‘मध्य’ शब्द से हुई है. वह वर्ग जो दोनों ‘एक्सट्रीम’ के बीच का वर्ग है. मोटे तौर पर यह हमारे देश का वह हिस्सा है, जो पढ़ा-लिखा है, प्रोफेशनल वर्ग से है. हमारे देश में मध्यवर्ग की भूमिका एक सजग और जागरूक वर्ग की रही है. राष्ट्रीय आन्दोलन के समय इस वर्ग के माध्यम से ही चेतना का प्रसार हुआ. अगर हम आज की राजनीतिक पार्टियों को देखें तो सक्रिय रूप से काम करनेवाले राजनीतिकों में अधिकतर लोग मध्यवर्ग से रहे हैं. हमारे बुद्धिजीवी - जैसे डॉक्टर, पत्रकार, लेखक, शिक्षक, इंजीनियर जैसे सारे लोग जिन्हें हम ‘इन्टेलेजेंसिया’ कहते हैं, इसी वर्ग से उभरे हैं.
इसी वर्ग के माध्यम से बहुत हद तक हमारी जनता अपनी जरूरतों, पीड़ाओं और सीमाओं को अभिव्यक्त करती है. पत्रकार और मीडिया के लोग आम लोगों की जुबान का काम करते हैं. अभिव्यक्त करने की क्षमता एक बहुत बड़ी क्षमता है.
जब तक हम अपनी बात किसी तक पहुचाएंगे नहीं, कोई हमारी तकलीफ कैसे जान सकेगा? और ये लोग ही हमें इस तरह कि समस्याओं से प्रत्यक्ष कराते हैं. आमतौर पर सेठ, राजनीतिक और उद्योगपति इन्हें अपनी सुविधाओं को सुरक्षित करने के लिए खरीदना चाहते हैं. इस लिहाज से आज मध्यवर्ग के सामने बहुत बड़ी चुनौती है? हां मध्यमवर्ग के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है अपने नैतिक दायित्व को समझने की, प्रलोभनों में नहीं आने की. अपनी स्थिति के कारण यह वर्ग ऐसा कर सकता है. यदि वह इस मोह से खुद को उबार लेगा तो निश्चित ही वह इस डूबते हुए समाज को बचा लेनेवाला ‘तिनका’ साबित होगा.
लेकिन क्या इस चुनौती के बीच मध्यवर्ग पारंपरिक बुनावट उच्च-मध्यवर्ग से प्रभावित हो रही है?
भारत में हाल के वर्षों में एक वर्ग तेजी से फैला है, वो है ‘उच्च मध्यवर्ग.’ इसकी जड़ें हालांकि मध्यवर्ग से ही निकली हैं पर इसकी आगामी टहनियां उच्च या अभिजात्य वर्ग के संस्कारों को ही अपना रही हैं, पोषित कर रही हैं. यहां वो सारे सुख, वो सारी सुविधाएं सुलभ हैं जो उच्च-वर्ग या पश्चिमी - मध्यवर्ग कि मूलभूत आवश्यकताएं हैं, पर यह वर्ग जितनी तेजी से उनकी सुविधाओं को आत्मसात कर रहा है, उससे भी ज्यादा तेजी से उनके दुर्गुणों जैसे व्यक्तिनिष्ठ होना, अवसरवादी होना, लाभार्थ समझौते करना, को अपना रहा है.
उच्च-मध्यवर्ग के यही गुण, यही तेवर आज संक्रामक रूप से मध्यवर्गीय समाज में भी आ रहे हैं. इस कारण वह उच्च-मध्यवर्ग में शामिल होने की होड़ में समझौते करता है, प्रलोभनों में बंधकर आम मनुष्यों से अपने को काट रहा है जो कि उचित नहीं है. हमारे यहां सामूहिकता को प्रश्रय दिया जाता है, कुटुम्ब और परिवार में रहने की परंपरा है, हम लोग व्यक्तिवादी नहीं हैं, परन्तु उच्च मध्यमवर्ग के प्रभाव में हमारे ये संस्कार धूमिल हो रहे हैं.
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