बीते हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15वें वित्त आयोग के टर्म ऑफ रिफरेंस (टीओआर) पर जारी विवाद को लेकर स्थिति साफ करने की कोशिश की. उन्होंने इस आरोप को बेबुनियाद बताया कि केंद्र द्वारा राजस्व के बंटवारे की नई व्यवस्था में दक्षिण की तुलना में उत्तर भारत के राज्यों को अधिक अहमियत दी गई है. साथ ही, प्रधानमंत्री ने इस पर जोर दिया कि इस वित्त आयोग के जरिए जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में काम करने वाले राज्यों को प्रोत्साहन देने की बात भी कही गई है. उनका कहना था कि इससे दक्षिण के राज्यों को फायदा होगा. इससे पहले केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी टीओआर पर जारी विवाद को गैर-जरूरी बताया था. साथ ही, उन्होंने इस बात से भी इनकार किया था कि केंद्र सरकार किसी पूर्वग्रह के आधार पर काम कर रही है.
हालांकि दक्षिण भारत के राज्य ऐसा नहीं मानते. केरल के वित्त मंत्री थॉमस इसाक का आरोप है कि केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी के लिए आधार वर्ष 1971 की जगह 2011 करने से जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए काम करने वाले प्रगतिशील राज्यों को नुकसान उठाना होगा. उनके मुताबिक इसकी भरपाई प्रोत्साहन के जरिए नहीं की जा सकती.
थॉमस इसाक वित्त आयोग के टीओआर से नाराज दक्षिण के राज्यों का नेतृत्व कर रहे हैं. बीते हफ्ते उन्होंने इस संबंध में तिरुवनंतपुरम में एक बैठक भी बुलाई थी. इसमें आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केंद्रशासित पुडुचेरी के प्रतिनिधि शामिल हुए थे. इस बारे में इन राज्यों की अगली बैठक अप्रैल के आखिर या मई के पहले हफ्ते में आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में प्रस्तावित है. इस बात की संभावना जताई जा रही है कि पिछले बैठक में गैर-मौजूद तमिलनाडु और तेलंगाना के साथ कई गैर-भाजपाशासित राज्य भी इसमें शामिल हो सकते हैं.

संविधान के अनुच्छेद-280 के तहत पूर्व राजस्व सचिव और राज्य सभा सांसद एनके सिंह की अध्यक्षता वाले 15वें वित्त आयोग का गठन बीते नवंबर में किया गया था. इसे अक्टूबर, 2019 तक अपनी रिपोर्ट सौंपनी है. इसकी रिपोर्ट के आधार पर ही साल 2020 से 2025 तक केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी तय की जाएगी. इससे ही यह भी तय होगा कि संचित निधि (सरकार को प्राप्त सभी राजस्व, बाजार से लिए गए ऋण और स्वीकृत ऋणों पर प्राप्त ब्याज से मिलकर बनने वाली कुल रकम) से राज्यों को कितनी रकम मिलेगी.
15वें वित्त आयोग के गठन को लेकर जारी अधिसूचना में विशेष तौर पर इसका जिक्र किया गया है कि यह अपनी सिफारिश करते वक्त 2011 के जनसंख्या आंकड़ों का इस्तेमाल करेगा. दक्षिण के राज्यों को खासकर इस टीओआर पर ही आपत्ति है. उनका कहना है कि इससे 1971 के बाद उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण के मोर्चे पर जो अच्छा काम किया है उसके चलते उन्हें फायदे की जगह नुकसान उठाना होगा.
इससे पहले 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को 1971 और 2011 की जनगणना के आधार पर ही तैयार किया गया था. आयोग ने करों की हिस्सेदारी में 1971 के लिए 17.5 फीसदी और 2011 के लिए 10 फीसदी वेटेज दिया था. यानी आबादी पर कुल 27.5 फीसदी वेटेज दिया गया. इससे पहले 12वें और 13वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में यह आंकड़ा 25 फीसदी और 11वें केवल 10 फीसदी था.

इसे सरल भाषा में इस तरह समझा जा सकता है कि 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के आधार पर आंध्र प्रदेश को 1971 की जनगणना के आधार पर तय 1000 रुपये के राजस्व में से 51 रुपये हासिल हुए. लेकिन, जब 2011 की जनसंख्या के आधार पर राजस्व तय किया गया तो सूबे के लिए यह रकम घटकर 41 रुपये रह गई. यानी कि हर 1000 रुपये के राजस्व पर राज्य को 10 रुपये का नुकसान उठाना पड़ा है. दूसरी ओर, इस आधार पर उत्तर प्रदेश को हर 1000 रुपये के राजस्व पर 14 रुपये का फायदा हुआ है. आबादी के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के लिए यह रकम 154 (1971) से बढ़ाकर 168 रुपये (2011) तय की गई है. इससे साफ होता है कि यदि 15वें वित्त आयोग द्वारा 2011 की जनगणना के आधार पर सिफारिश की जाती है तो इससे उत्तर प्रदेश जैसे अधिक आबादी वाले राज्यों को फायदा होगा. वहीं, आंध्र प्रदेश सहित अन्य राज्यों को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है.

14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट पर आधारित इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली की रिपोर्ट के मुताबिक 2011 की जनगणना का इस्तेमाल करने की वजह से साल 2015-20 के दौरान आंध्र प्रदेश को 24,340 करोड़ रु, तमिलनाडु को 22,497 करोड़ रु, केरल को 20,285 करोड़ रु और कर्नाटक को 8373 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा है. दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश को 35 हजार करोड़ रु, बिहार को 32 हजार करोड़ रु, राजस्थान को 25 हजार करोड़ रु और मध्य प्रदेश को 15 हजार करोड़ रुपये का फायदा है.

आबादी में कम बढ़ोतरी की वजह से केंद्रीय करों में हिस्सेदारी कम होने के साथ-साथ दक्षिण के राज्यों को आने वाले वक्त में अपनी राजनीतिक ताकत घटने की भी आंशका है. संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक बीते करीब चार दशकों से लोक सभा में सीटों का आवंटन 1971 की जनगणना के आधार पर किया जाता रहा है. फिलहाल लोक सभा में निर्वाचित सीटों की संख्या 543 है. इसे अधिकतम 550 तक किया जा सकता है. इसके अलावा एंग्लो-इंडियन समुदाय का पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने की स्थिति में राष्ट्रपति द्वारा दो सदस्यों को मनोनीत भी किए जाने का प्रावधान है. इस तरह लोक सभा में सीटों की अधिकतम संख्या 552 तक हो सकती है.
संविधान के अनुच्छेद 55(3) के मुताबिक लोक सभा में 543 सीटों का निर्धारण साल 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया है. इसके बाद 2001 की जनगणना के आधार पर इसे निर्धारित किया जाना था. लेकिन, जनसंख्या स्थिरीकरण के अभियान को इसकी वजह से धक्का न पहुंचे, इसे देखते हुए केंद्र सरकार ने 84वें संविधान संशोधन (2001) के जरिए इसकी समयसीमा आगे बढ़ा दी. इस संशोधन के मुताबिक अब साल 2026 के बाद 2031 में होने वाली जनगणना के आधार पर राज्यवार सीटों की संख्या में बदलाव होना है. इससे पहले 1971 में जब सीटों का निर्धारण किया गया था तो उस वक्त 10 लाख की आबादी पर एक क्षेत्र आवंटित किया गया था. लेकिन, साल 2031 में एक बार फिर सीटों की संख्या में बदलाव होने पर यह आंकड़ा बढ़कर औसतन करीब 26 लाख हो जाएगा.
इस बारे में एक रिपोर्ट की मानें तो इससे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की लोक सभा सीटों की संख्या 42 से घटकर 36, कर्नाटक में 28 से 26, केरल में 20 से घटकर 14 और तमिलनाडु की 39 से घटकर 28 रह जाएगी. इस तरह दक्षिण के इन पांच बड़े राज्यों को कुल 25 सीटों का नुकसान उठाना पड़ सकता है.

इसके उलट अधिक जनसंख्या वृद्धि और आबादी वाले राज्यों की आवाज संसद में अधिक उठने की भी संभावना है. आबादी की लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की लोक सभा सीटों की संख्या 80 से 96 हो जाएगी. इसके अलावा बिहार 40 की जगह 44, राजस्थान में 25 की जगह 32 और मध्य प्रदेश में 25 की जगह 29 सांसदों को लोक सभा में भेज पाएगा. इन बड़े राज्यों के साथ हरियाणा के सांसदों की संख्या 10 से बढ़कर 12 और दिल्ली की सात से 11 हो जाएगी. इस तरह देखा जाए तो इन राज्यों को 37 नए संसदीय क्षेत्रों का फायदा होगा.
15वें वित्त आयोग के टीओआर और साल 2031 के बाद संसद में दक्षिण के राज्यों के संख्याबल को लेकर कहा जा सकता है कि आबादी स्थिरीकरण की वजह से इन राज्यों को नुकसान होना तय दिखता है. साथ ही, अन्य राज्य भी जनसंख्या को काबू में करने को लेकर हतोत्साहित हो सकते हैं. इसके अलावा, मोदी सरकार जिस सहयोगवादी संघवाद की बात करती है, उसे भी इन राज्यों के असंतोष की वजह से नुकसान पहुंच सकता है.
सो यह देखना दिलचस्प होगा कि दक्षिण के मुकाबले उत्तर भारत खासकर हिंदी पट्टी में मजबूत भाजपा इस विवाद को किस तरह से सुलझाती है. जानकारों की मानें तो अगर वक्त रहते असंतुष्ट राज्यों की नाराजगी को दूर नहीं किया गया तो मोदी सरकार के साथ-साथ आने वाली सरकारों को ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ के नारे को जमीन पर उतारने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
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