पश्चिम बंगाल में हो रहे पंचायत चुनाव में वोट तो 14 मई को पड़ेंगे, लेकिन उससे पहले ही करीब 20 हजार सीटों पर जीत का फैसला हो चुका है. राज्य में ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद की कुल 58,692 सीटों में से करीब 20 हजार सीटों पर सिर्फ एक ही उम्मीदवार पर्चा भर सका. निर्विरोध चुने गए ये सभी उम्मीदवार सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के हैं.
इस तथ्य ने शुरुआत से ही विवादों में रहे इस चुनाव को और भी तीखी बहस का विषय बना दिया है. विपक्षी भाजपा, सीपीएम और कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के आतंक के चलते उनके उम्मीदवार पर्चा नहीं भर सके. ये पार्टियां इस मुद्दे को लेकर अदालत की शरण भी ले चुकी हैं.
इसी सिलसिले में कांग्रेस की एक याचिका पर कलकत्ता हाई कोर्ट ने शुक्रवार को राज्य निर्वाचन आयोग को फटकार लगाई है. अदालत ने आयोग से पूछा कि पहले तीन चरणों में मतदान करवाया जाना था लेकिन, अब इसे एक चरण में क्यों कर दिया गया है. कांग्रेस ने अपनी याचिका में एक चरण में मतदान कराने संबंधी अधिसूचना को रद्द करने की अपील की थी. इससे पहले 20 अप्रैल को अदालत ने आयोग से राज्य सरकार और सभी पक्षों से बात करके चुनावों की तारीखें तय करने के लिए कहा था.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी केंद्र की मोदी सरकार पर लगातार लोकतंत्र को कमजोर करने और तानाशाही का आरोप लगाती रही हैं. बीते महीने ही कर्नाटक चुनाव की तारीखें लीक होने संबंधी विवाद पर उन्होंने केंद्र सरकार पर चुनाव आयोग सहित अन्य संस्थाओं के इस्तेमाल और दुरुपयोग का आरोप लगाया था. हालांकि, इस पंचायत चुनाव को लेकर अब वे खुद इस तरह के आरोपों से घिरती हुई दिख रही हैं.
ये आरोप निराधार भी नहीं दिखते. बताया जाता है कि 1978 में पश्चिम बंगाल में पंचायती चुनाव शुरू होने के बाद सत्ताधारी दलों के उम्मीदवारों के निर्विरोध चुने जाने का यह आंकड़ा सबसे अधिक है. 1978 में तो यह एक फीसदी से भी कम था. इससे पहले पहले 2013 के चुनाव में भी 10 फीसदी और 2003 के चुनाव में 11 फीसदी उम्मीदवार बिना चुनाव लड़े विजयी घोषित किए गए थे. 2013 में सूबे पर तृणमूल कांग्रेस और 2003 में वाम दलों की सत्ता थी.
पंचायत चुनाव में वोट डाले जाने से पहले ही एक-तिहाई उम्मीदवारों के निर्विरोध चुने जाने पर सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने इसे लोकतंत्र की हत्या करार दिया है. दूसरी ओर, कांग्रेस ने भी राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति को देखते हुए वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की है. उधर, एक समाचार वेबसाइट से बातचीत में भाजपा के राष्ट्रीय सचिव राहुल सिन्हा कहते हैं, ‘बंगाल में सीपीएम ने बिना चुनाव लड़े जीतने की परंपरा शुरू की थी. अबकी ममता ने इसका रिकॉर्ड बनाया है.’ भाजपा ने 14 मई को होने वाले मतदान के लिए केंद्रीय सुरक्षा बलों को तैनात किए जाने की भी मांग की है. दूसरी तरफ, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विपक्ष द्वारा लगाए जा रहे आरोपों को एक-सिरे से खारिज किया है.
पंचायत चुनाव राष्ट्रीय मुद्दा बन गया
बीते महीने की शुरुआत में पंचायत चुनावों की तारीखों के ऐलान के साथ ही सूबे में राजनीतिक पार्टियों के बीच हिंसक टकराव में बढ़ोतरी होती चली गई. विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि उनके उम्मीदवारों को तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों द्वारा पर्चा दाखिल करने से रोका जा रहा है. भाजपा तो इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई. हालांकि, शीर्ष अदालत ने इसमें दखल देने से इनकार कर दिया और नामांकन की तारीख जो नौ अप्रैल को खत्म हो रही थी, उसे बढ़वाने के लिए पार्टी को राज्य निर्वाचन आयोग के पास जाने को कहा. इसके बाद आयोग ने नौ अप्रैल की रात को नामांकन की समय सीमा एक दिन बढ़ाने का ऐलान तो किया लेकिन, कुछ घंटे बाद ही इसे वापस ले लिया. हालांकि, फिर कलकत्ता हाई कोर्ट के आदेश के बाद उसने इसके लिए एक दिन (30 अप्रैल) तय किया.
पश्चिम बंगाल का पार्टी आधारित पंचायत चुनाव अगले साल होने वाले आम चुनाव के लिहाज से काफी अहम माना जा रहा है. अब तक का रिकॉर्ड रहा है कि राज्य में इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने वाली पार्टी लोक सभा और विधानसभा चुनावों में भी अन्य पार्टियों पर भारी साबित होती है. इसे देखते हुए ही सूबे की बड़ी पार्टियों के लिए यह नाक का सवाल बनता हुआ दिखता है. हालांकि, जानकारों का मानना है कि इस चुनाव को लेकर अब तक जितने विवाद सामने आए हैं, उनसे यह चुनाव ही बेमतलब सा दिखने लगा है. उनके मुताबिक इन विवादों ने चुनाव की सार्थकता पर ही सवालिया निशान लगा दिया है.
कठघरे में ममता बनर्जी सरकार
विपक्ष ने पंचायत चुनाव प्रक्रिया के दौरान सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस सरकार पर अपने समर्थकों को विपक्षी दलों के खिलाफ खुली छूट देने और कानून-व्यवस्था को लेकर ढिलाई बरतने का आरोप लगाया है. उसने पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठाया है. नामांकन दाखिल करने को लेकर तृणमूल कांग्रेस के दबदबे को इस बात से समझा जा सकता है कि उसके गढ़ माने जाने वाले बीरभूम जिले की 42 जिला परिषद की सीटों में से सत्ताधारी पार्टी के 41 उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए. इसके अलावा 24 परगना सहित सत्ताधारी पार्टी के प्रभाव वाले अन्य क्षेत्रों में भी करीब-करीब यही स्थिति है.
Dekhiye iss #TMC samarthak rather gundey ko, yeh seena thok kar dhamki de raha hai ki nomination file karne nahi dega, gundagardi karega. Yeh hai Paschim Bengal ki sarkar ka asli chehra. #bengalpanchayatpolls pic.twitter.com/gcL4N5Xs3Y
— Babul Supriyo (@SuPriyoBabul) April 23, 2018
दूसरी ओर, कलकत्ता हाई कोर्ट के आदेश के बाद मतदान की नई तारीख का ऐलान भी ममता सरकार पर सवाल उठाता दिखता है. बीते महीने राज्य चुनाव आयोग ने तीन चरणों में मतदान करवाने का ऐलान किया था. हालांकि, अब केवल एक चरण यानी 14 मई को सभी सीटों पर मतदान की बात कही गई है. मतगणना की तारीख 17 मई तय की गई है. माना जा रहा है कि इसके पीछे की वजह 16 मई से रमजान का महीना शुरू होना है. इससे पहले ममता बनर्जी ने रमजान में मतदान से साफ इनकार किया था.
उधर, भाजपा का कहना है कि साल 2013 के पंचायत चुनाव रमजान के महीने में पांच चरणों में पूरा किया गया था. इसके साथ ही मतदान के दौरान कानून-व्यवस्था को लेकर सवाल उठाती रही पार्टी ने अब एक चरण में चुनाव करवाए जाने को लेकर आक्रामक रुख अपना लिया है. पार्टी का कहना है कि जब तीन चरणों के लिए ही पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी तो अब केवल एक चरण में शांतिपूर्ण मतदान कैसे करवाया जा सकता है. भाजपा पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक टकराव के बीच पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठा चुकी है. यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि राज्य निवार्चन अधिकारी की नियुक्ति चुनाव आयोग राज्य सरकार की सहमति से करता है.
वैसे सुरक्षा व्यवस्था को लेकर भाजपा की आशंका को पुलिस की क्षमता को देखते हुए भी बल मिलता दिखता है. राज्य में पंचायत चुनाव के दौरान 58,476 बूथों पर शांतिपूर्ण मतदान हो, इसे सुनिश्चित करने के लिए केवल 81,000 पुलिस बल हैं. यानी प्रत्येक बूथ पर औसतन केवल एक से दो जवानों के भरोसे शांतिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करने की कोशिश जाएगी. कई जानकार मानते हैं कि इसे देखते हुए राज्य सरकार को केंद्रीय सुरक्षा बलों से मदद लेनी चाहिए. हालांकि भाजपा की ऐसी मांग को ममता बनर्जी पहले ही खारिज कर चुकी हैं.
बीते साल नई दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान ममता बनर्जी ने महात्मा गांधी को याद करते हुए कहा था कि एक नेता को सभी लोगों को साथ लेकर चलना चाहिए. लेकिन पंचायत चुनाव के दौरान तृणमूल कांग्रेस और उनकी सरकार का रुख इसके उलट जाता दिखता है. इसके अलावा उनके शासन में पंचायती राज्य के जरिए लोकतंत्र की जगह राजनीतिक हिंसा का विकेंद्रीकरण होता अधिक दिख रहा है. यह आखिरकार देश के बुनियादी लोकतांत्रिक ढांचे को ही कमजोर करता हुआ दिखता है.
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