10 दिन से ज्यादा समय गुज़र चुका है, लेकिन राजस्थान अध्यक्ष के चयन को लेकर भारतीय जनता पार्टी में चल रही अंदरूनी घमासान थमने का नाम नहीं ले रही. पूर्व भाजपा प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी ने 16 अप्रैल को पद से इस्तीफा दे दिया था. बताया जा रहा है कि इसके बाद से ही हाईकमान और प्रदेश मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बीच गहमागहमी ज़ारी है. परनामी के पद छोड़ने के बाद खबर उड़ी थी कि पार्टी हाईकमान ने जोधपुर से सांसद और केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को चुन लिया है. लेकिन यह अटकल ही रह गई. माना जा रहा है कि इसकी वजह मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ही हैं. बताया जाता है कि शेखावत संगठन के शीर्ष नेतृत्व को तो पसंद हैं पर राजे को वे कुछ खास नहीं सुहाते.

वसुंधरा राजे का राजनैतिक इतिहास इस बात का गवाह है कि इस तरह के लगभग सभी महत्वपूर्ण निर्णयों में उन्होंने अभी तक अपनी ही चलाई है और संगठन को हर बार उनके आगे घुटने टेकने पड़े हैं. लेकिन इस बार उनके सामने भाजपा के चाणक्य अमित शाह हैं जो एक अलग तरह की राजनीति करने के साथ हर हाल में अपनी बात मनवाने के लिए जाने जाते हैं. जानकारों के मुताबिक इसलिए यह मामला फंस गया. बताया जा रहा है कि अब शेखावत को लेकर न तो अमित शाह पीछे हटने को तैयार हैं और न ही वसुंधरा राजे.

राजस्थान में इसी साल अजमेर और अलवर की दो महत्वपूर्ण लोकसभा सीटों और मांडलगढ़ की एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा को करारी हार मिली थी. इसके बाद यह तय माना जा रहा था कि इस हार का ठीकरा अशोक परनामी के ही माथे फोड़ा जाएगा. लेकिन वसुंधरा राजे का करीबी होने की वजह से उन्हें इन चुनावों के करीब ढाई महीने बाद भी पद से नहीं हटाया जा सका. भाजपा से जुड़े एक विश्वसनीय सूत्र की मानें तो प्रदेश संगठन के मुखिया के तौर पर राजे के किसी अन्य भरोसेमंद को चुने जाने का यकीन दिलाए जाने के बाद ही परनामी से इस्तीफा लिया जा सका. लेकिन बाद में ऐसा नहीं हुआ.

स्वाभाविक ही है कि वसुंधरा राजे इस पूरे मामले में चुप रहने वाली नहीं थीं. जानकार बताते हैं कि उनके इशारे पर प्रदेश संगठन से जुड़े करीब दो दर्जन कद्दावर मंत्रियों और नेताओं ने अपना डेरा दिल्ली में डाल दिया. इन सभी ने दलील दी कि राजस्थान के राजनैतिक और जातिगत समीकरणों को देखते हुए पार्टी प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए शेखावत का चयन ठीक नहीं है. बीकानेर से ताल्लुक रखने वाले भाजपा के दिग्गज नेता देवी सिंह भाटी ने तो गजेंद्र सिंह शेखावत के खिलाफ खुलकर मोर्च खोल दिया. भाटी का कहना था, ‘शेखावत की छवि जाट विरोधी रही है. ऐसे में उन्हें पार्टी प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने से प्रभावशाली जाट समुदाय नाराज होकर कांग्रेस की तरफ चला जाएगा.’

अपने बयान में भाटी ने यह तक कहा कि सांसद बनने से पहले शेखावत की जमीन पर कोई पहचान नहीं थी, इसलिए यदि किसी राजपूत को ही प्रदेशाध्यक्ष बनाना है तो पार्टी के पास कई बेहतर विकल्प मौजूद हैं. राजनीतिकारों के मुताबिक उनका इशारा खुद की तरफ था. लगे हाथों भाटी ने प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए आलाकमान की दूसरी पसंद अर्जुनराम मेघवाल पर भी जमकर निशाना साधा. उन्होंने कहा कि जरूरत पड़ने पर मेघवाल पार्टी को सौ से ज्यादा दलित वोट भी नहीं दिला सकते.

इस पूरे मसले को सुलझाने के लिए अमित शाह ने वसुंधरा राजे को बीते गुरुवार दिल्ली बुलवाया था. जानकारों के मुताबिक दो घंटे तक चली इस बैठक में अमित शाह के साथ संगठन महामंत्री रामलाल और सह-संगठन महामंत्री वी सतीश ने राजे को मनाने की लाख कोशिश की, लेकिन उनकी यह कवायद बेनतीजा रही. बताया जा रहा है कि इस बैठक में राजे ने भी अपनी तरफ से कुछ नाम आगे बढ़ाए, लेकिन उन पर भी कोई सहमति नहीं बन पाई. विशेषज्ञों की मानें तो इस विवाद से निपटने के लिए पार्टी अब कुछ नए नामों पर शुरुआत से चर्चा कर सकती है. इनमें चितौड़गढ़ सांसद सीपी जोशी और कोटा सांसद ओम बिड़ला दो प्रमुख नाम हैं. कुछ राजनीतिकारों का कहना है कि इस दिशा में अब कोई भी फैसला कर्नाटक विधानसभा चुनावों के बाद ही लिया जाएगा.

लिहाज़ा यह तो अब वक़्त बताएगा कि राजस्थान में भाजपा प्रदेशाध्यक्ष के चयन को लेकर दोनों पक्षों के बीच आपसी सहमति बन पाएगी या फिर किसी एक को झुकना पड़ेगा. लेकिन फिलहाल इस पूरे वाकये से यह समझा जा सकता है कि अमित शाह की पहली पसंद होने के बावजूद राजस्थान में गजेंद्र सिंह शेखावत के प्रदेशाध्यक्ष बनने में तमाम अड़चनें आना दिखाता है कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों लेकिन भाजपा में वसुंधरा की स्थिति अभी उतनी कमजोर नहीं हुई है.

हालांकि कुछ जानकार इससे उलट राय रखते हैं. उनके मुताबिक सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि राजस्थान में भाजपा का पर्याय बन चुकीं वसुंधरा राजे भी प्रदेश संगठन के सबसे महत्वपूर्ण पद पर अपनी पसंद का चेहरा बैठाने में इतने दिन बाद भी नाकाम रही हैं. उनके मुताबिक यह संगठन में उनका कद घटने के कयासों को हवा देता है.

वैसे यह पहला मौका नहीं है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के साथ वसुंधरा राजे की खटपट सामने आई है. इसके लिए राजनैतिक विश्लेषक दोनों पक्षों की महत्वाकांक्षाओं के साथ-साथ उनके अहम को भी जिम्मेदार ठहराते हैं. उनका यह भी मानना है कि इसी साल होने वाले राजस्थान विधानसभा चुनावों तक इस तरह के और भी कई विवाद देखने को मिल सकते हैं.

तमाम अटकलों के बावजूद वसुंधरा राजे अपना यह कार्यकाल लगभग पूरा करने में सफल रही हैं. लेकिन भाजपा शीर्ष नेतृत्व के साथ आए दिन उनके बनते-बिगड़ते समीकरणों को देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि राजस्थान का अगला विधानसभा चुनाव दो बार वहां की मुख्यमंत्री रह चुकी इस कद्दावर नेत्री की सरपरस्ती में लड़ा जाएगा या नहीं. बशीर बद्र का शेर भी है, ‘इस तरह साथ निभाना है दुश्वार सा, मैं भी तलवार सा तू भी तलवार सा’