हिंदी फिल्म गीतों के इतिहास और वर्तमान में कई गीतकार हुए जिन्होंने अपने गीतों में अन्याय के खिलाफ मशाल जलाए रखी. शैलेंद्र, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी, मखदूम से लेकर गुलजार, स्वानंद किरकिरे और इरशाद कामिल तक ने जब-तब समाज, सरकार और घाघ ताकतों को अपने गीतों के माध्यम से कटघरे में रखा. रूमानी लफ्जों की मांग करने वाले गीतों तक में मजलूमों के हक की बात करने की जगह निकाली और समाज में व्याप्त असमानता पर जमकर कुठाराघात किया. लेकिन कितने गीतकार हुए, जिन्होंने मशहूर होने के बाद अपने गीतों से परे हटकर बदलाव लाने की कोशिश में जमीनी स्तर पर काम किया?


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आज के वक्त में ऐसा सिर्फ जावेद अख्तर कर रहे हैं. फिल्मी गीतों की बात आने पर कई लोग जिन्हें गुलजार के समीप के तख्त पर बैठाते हैं और सलीम खान के साथ पटकथा लेखन के दौर की जिनकी दास्तानें आज भी फिल्म इंडस्ट्री के गलियारों में किंवदंतियों की तरह गूंजती हैं - मालूम है तुम्हें? सलीम-जावेद को ये तक पता होता था कि उनकी फिल्म देखते वक्त दर्शक किस दृश्य पर देर तक तालियां और सीटियां बजाएगा. इसलिए वे आगे के कुछ दृश्यों में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं दिखाते थे!’

समकालीन गीतकारों के समक्ष ‘वेटरन’ और ‘सीनियर’ हो चुके जावेद अख्तर अब भले ही कम गीत लिखने लगे हों – इसकी भी एक वजह उनका एक्टिविज्म है – लेकिन गीतकार सदैव से जिस आइडियलिज्म की बातें अपने गीतों में करते रहे हैं, उसे कई बरस से जावेद अख्तर ने प्रतीकात्मक लड़ाइयों से आगे ले जाकर जमीन पर लड़ना शुरू कर दिया है. यह कहना दुरुस्त होगा कि इतिहास अगर महान गीतकारों को उनके गीतों के लिए याद रखेगा, तो वो जावेद अख्तर को उनके सामाजिक सरोकारों के लिए भी याद करेगा.

बात ट्विटर से शुरू करते हैं. वैसे तो इस जगह पर सामाजिक सरोकार की बातें करना आसान है, मशहूर होने पर और भी आसान, लेकिन जावेद अख्तर जिस समझ के साथ कट्टरपंथियों और इतिहास से छेड़छाड़ करने वालों को जवाब देते हैं वो इस आभासी मंच पर कभी-कभार ही नजर आती है. कुछ वक्त पहले अमीर खुसरो के गीत को गाने की वजह से कठमुल्लाओं के निशाने पर आईं सोना महापात्रा के बचाव में उतरते हुए उन्होंने कड़क अंदाज में खुसरो को हर हिंदुस्तानी का बताया तो कठुआ और उन्नाव बलात्कार मामलों पर सरकार और आरोपितों की खिंचाई करने के अलावा कश्मीर मसले पर शाहिद अफरीदी साहब को भी पहले अपने घर का कचरा साफ करने की हिदायत दी.

जावेद साहब की ट्विटर टाइमलाइन पर ट्वीट दर ट्वीट नीचे उतरते हुए आप ज्यादातर ज्वलंत मुद्दों पर उनकी बेबाक लेकिन समझदार टिप्पणियों से समझ सकते हैं कि वे किसी तीक्ष्ण नजर वाले सोशल-पॉलिटिकल कमेंटेटर (शायद रामचंद्र गुहा) की तरह अपना पक्ष रखते हैं, न कि अपनी प्रसिद्धि पर इतराए फिरने वाले आत्मकेंद्रित नए-पुराने सितारों की तरह जिनकी लिखी बातों में ‘जो कह दिया सो कह दिया’ वाली अकड़ नजर आती है. और जो अपनी कही हर बात के साथ खुद की एक सुंदर तस्वीर ट्विटर पर लगाना नहीं भूलते. जावेद अख्तर की आलोचनाओं के घेरे में हर धर्म का पाखंड आता है और धार्मिक उन्माद की अति वाले इस दौर में भी चवालीस लाख फॉलोअर वाला यह ‘सेलिब्रिटी’ खुद के ‘नास्तिक’ होने की घोषणा सगर्व अपने ट्विटर परिचय में करने की हिम्मत रखता है.

कुछ वक्त पहले की बात है, जब हिंदी फिल्म संगीत के क्षेत्र में सबसे ज्यादा दबदबा रखने वाली म्यूजिक कंपनी टी-सीरीज ने जावेद अख्तर के लिखे पुराने व सुंदर गीत ‘घर से निकलते ही’ को रीमिक्स किया. लेकिन बेचा उसे रीप्राइज्ड वर्जन कहकर, अर्थात दोबारा तैयार की हुई कोई रचना. रचना में कुछ नया नहीं रचा बल्कि नयापन जबरदस्ती ठूंसने के लिए जितना कुछ भी किया उसने मौलिक रचना को बेइज्जत किया, ठेस पहुंचाई.

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टी-सीरीज के दबदबे के आगे वैसे भी फिल्म इंडस्ट्री में कोई म्यूजिशियन ज्यादा कुछ बोलता नहीं, उसपर इस तरह की सफलता के बाद मौलिक गीत से जुड़े लोगों का भी सख्त लहजे में कुछ कह पाना लगभग असंभव हो गया. इंडस्ट्री का इतिहास भी इसकी ताकीद करता ही है कि जो बोलता है वो खोता है.

लेकिन जावेद अख्तर बोले और बाकियों की तरह ‘पुराने गानों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए’ जैसा कुछ कहकर सिर्फ प्रतीकात्मक विरोध नहीं किया. सख्त कदम उठाया और सीधे टी-सीरीज व मलिक बंधुओं को कानूनी नोटिस भेजा. उनका, यह गीत बनाने वाले संगीतकार राजेश रोशन का और गायक उदित नारायण तक का जिक्र पहले नए गीत के यूट्यूब विवरण में नहीं था, लेकिन कानूनी नोटिस ने शुरुआती बदलाव ये किया कि टी-सीरीज ने चुपचाप सबके नाम शामिल किए, और बेहद नई उम्र के लड़के-लड़कियों को कम से कम यह पता चल सका कि इस नए वाहियात गीत की गंगोत्री कितनी स्वच्छ थी.

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जावेद अख्तर के विरोध का मकसद सिर्फ अपना क्रेडिट यूट्यूब विवरण में शामिल करवाना नहीं है. उनका कद ऐसी छोटी-मोटी शिकायतें करने वाला है भी नहीं. वे म्यूजिक इंडस्ट्री की उस पुरानी मानसिकता की जड़ पर वार करना चाहते हैं जिससे लड़ाई लड़-लड़कर कई म्यूजिशियन हार चुके हैं. राजेश रोशन संग टी-सीरीज को कानूनी नोटिस भेजने के बाद उन्होंने इसे गुंडागर्दी बताते हुए गुस्से में कहा, ‘आज मेरे चिर-परिचित गीत के लिरिक्स बदले हैं, क्या पता कल वे फैसला ले लें कि कवि प्रदीप के ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ के लिरिक्स बदलने चाहिए और जिस देशभक्ति के गीत को सुनकर देशवासी रो पड़ते हैं वो गीत फिर नए लिरिक्स के साथ हमें दूसरी तरह से रुलाए!’ जावेद अख्तर का यह ह्यूमराना अंदाज (!) उस म्यूजिक इंडस्ट्री पर तीखा तंज है जिसकी पूंजीवादी कार्य प्रणाली कई कलाकारों को उनके हक से महरूम रखे हुए है.

बहुत तेजी से रिवाइंड करते हुए मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर तक पहुंचते हैं. हम सभी को याद है कि आज से बहुत पहले 60 के दशक में लता मंगेशकर चाहती थीं कि गायकों को उनके गाए गानों पर वो रॉयल्टी मिले जो कि सीधे म्यूजिक कंपनियों और निर्माताओं के खाते में चली जाती है. वो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की पहली म्यूजिशयन भी थीं जिन्होंने रॉयल्टी के मुद्दे को उठाया था. लेकिन रफी साहब फक्कड़ मिजाज शख्स थे इसलिए उन्होंने इस नए विचार को सिरे से नकार दिया था और कहते हैं कि इस वजह से दोनों के बीच लंबे अरसे तक खटास रही.

तब से लेकर अब तक, बीच-बीच में कई स्थापित गायक-गीतकार इस स्थापित प्रथा का विरोध करते रहे हैं और कुछ अरसे पहले सोनू निगम द्वारा अलग-अलग मौकों पर विरोध करने पर पहले उन्हें टी-सीरीज ने बैन किया था और बाद में जी म्यूजिक ने. सोनू निगम को ही थक-हारकर उनके अनुसार चलना पड़ा और जावेद अख्तर ने जब इस लड़ाई को ‘हैड-ऑन’ लड़ना शुरू किया, तब भी बहुत कम म्यूजिशियन उनके साथ खुलकर खड़े हुए थे.

इस प्रथा के अनुसार जो गीत पूर्णत: गीतकार-संगीतकार-गायक रचते हैं, उसके द्वारा भविष्य में धन कमाने पर वो रकम सीधे म्यूजिक कंपनियों के पास जाती है. म्यूजिशियनों को एकमुश्त रकम गाना बनाने के दौरान दी जाती है – जो ढेर सारी सिर्फ स्थापित नामों को दी जाती है - और उसके बाद अपने हिट हुए गानों पर ये म्यूजिशियन सिर्फ स्टेज शोज करके पैसा कमा पाते हैं. इसलिए आपने देखा होगा कि ‘आउट ऑफ वर्क’ म्यूजिशियन जहां-तहां भी प्राइवेट शोज करने पहुंच जाते हैं. उसमें भी इन्हें कुछ रॉयल्टी ताकतवर म्यूजिक कंपनियों को देनी पड़ती है, वहीं रेडियो चैनलों से लेकर हर टीवी चैनल और फिल्मों में इन म्यूजिशियन के बनाए गाने बजाने पर म्यूजिक कंपनी को सारी रॉयल्टी मिलती है.

स्टूडियो सिस्टम के ऐसे ही तंग नियम-कायदे फिल्मों के निर्माण पर भी लागू किए जाते हैं. प्रोडक्शन हाउस या स्टूडियो बनाई गई फिल्मों के संपूर्ण अधिकार अपने पास रखते हैं. भले ही लेखक, निर्देशक और तकनीशियनों ने अपने जीवन के दो साल देकर फिल्म बनाई हो, और उस फिल्म ने बॉक्स-ऑफिस पर तहलका मचा दिया हो, लेकिन आखिर में उन्हें सिर्फ पहले से तय एकमुश्त फीस ही मिलती है (कुछ बड़ी हैसियत वाले निर्देशक रिलीज के बाद वाली प्रॉफिट-शेयरिंग भी करते हैं). उदाहरण के तौर पर अगर यशराज फिल्म्स की किसी सलमान खान कृत फिल्म को कोई नया या कम प्रसिद्ध डायरेक्टर निर्देशित करेगा तो जितना भी फिल्म कमाएगी उसका चुटकीभर ही निर्देशक के खाते में जाएगा. इसी वजह से आपने देखा होगा कि आजकल स्थापित होते ही निर्देशक सबसे पहले अपने प्रोडक्शन हाउस खोलते हैं –चाहे वो कबीर खान हो या राजकुमार हिरानी – और फिर बड़े स्टूडियोज का सहयोग लेकर फिल्में बनाते हैं.

फिल्मों के निर्माण के मामले में यही एक रास्ता है जो क्रिएटिव लोग अख्तियार कर सकते हैं और अपने हक का पैसा हासिल कर सकते हैं. लेकिन गीत बनाने वाले क्रिएटिव लोग इसी परिपाटी पर चलकर खुद की म्यूजिक कंपनी तो नहीं खोल सकते न!

इसीलिए, म्यूजिशियनों को उनके द्वारा रचित गीतों पर हक दिलाने की लड़ाई जावेद अख्तर कई सालों से लड़ रहे हैं. कई और भी लोग उनके साथ जुड़े हैं लेकिन इस आंदोलन का चेहरा वही हैं और म्यूजिक इंडस्ट्री की ताकतवर कंपनियों व निर्माताओं की नाराजगी भी वही सबसे ज्यादा मोल ले रहे हैं. 2010 के बाद से ही वे यदा-कदा या तो कमल हासन (विश्वरुपम, 2013) और आशुतोष गोवारिकर (मोहेंजो दारो, 2016) जैसे मित्रों की फिल्मों के लिए गीत लिख पा रहे हैं या फिर अपने बेटे फरहान अख्तर के बैनर एक्सेल एंटरटेनमेंट की फिल्मों (तलाश, दिल धड़कने दो, रॉक ऑन 2, रईस) के लिए.

2010 के आसपास ही म्यूजिशियनों को अधिकार दिलाने के लिए कॉपीराइट एक्ट, 1957 में संशोधन की मांग जावेद अख्तर और साथियों ने बुलंद की थी और आखिरकार 2012 में राज्य सभा व लोक सभा में कॉपीराइट अमेंडमेंट बिल पारित होकर पास हुआ था. तब बतौर राज्य सभा सांसद जावेद अख्तर ने इस सदन में क्रांतिकारी भाषण दिया था और उसी दिन के बाद से लेखकों, गीतकारों को अपने शब्दों पर वाजिब हक मिलना शुरू हुआ. संगीतकारों के अलावा बैकग्राउंड स्कोर देने वालों और शास्त्रीय व लोक संगीत रचने वालों को भी रॉयल्टी का 12 प्रतिशत मिलने का कानून पास हुआ.

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कहानी लेकिन यहीं सुखांत को नहीं प्राप्त हुई! बिल पास होने के बावजूद म्यूजिक कंपनियों और निर्माताओं द्वारा रॉयल्टी देने में टालमटोल जारी रही. कॉपीराइट संशोधन बिल के बाद कॉपीराइट मामले देखने वाली 50 साल पुरानी इंडियन परफॉर्मिंग राइट्स सोसाइटी (आईपीआरएस) को ताकतवर फिल्म और संगीत निर्माण वाली संस्थानों के चंगुल से छुड़ाने में लंबा वक्त लगा और 2017 के अंतिम महीने में जावेद अख्तर के चेयरमैन नियुक्त होने के बाद ही इसने वह काम सुचारू रुप से करना शुरू किया जिसके लिए इसकी स्थापना 1969 में की गई थी. इससे पहले इस पर गबन के आरोप भी कई बार लगे और 2017 के शुरुआती महीने में लता मंगेशकर तक ने कहा कि नया संशोधन लागू होने के बावजूद उन्हें कोई रॉयल्टी अब तक नहीं मिली है.

लेकिन जावेद अख्तर की अध्यक्षता में अब यह संस्था म्यूजिक कंपनियों के अलावा निर्माताओं और रिंगटोन बेचने वाली मोबाइल कंपनियों तक से रॉयल्टी निकलवा रही है. कुछ समय पहले अमेजन इंडिया ने भी अपनी नयी सर्विस अमेजन प्राइम म्यूजिक के लिए आईपीआरएस से हाथ मिलाया है और जितने भी गाने श्रोता उसके मंच से सुनेंगे, उसकी रॉयल्टी वो इस संस्था को देगी. संस्था इसके बाद इन्हें म्यूजिशियनों में बांटेगी जैसे कि हाल ही में उसने 13 करोड़ रुपए की एकत्र की गई रॉयल्टी 2800 संगीतकारों और गीतकारों को बांटी.

सारेगामा, सोनी म्यूजिक, टिप्स,यूनिवर्सल, वीनस और आदित्य म्यूजिक जैसी संगीत कंपनियों ने इन म्यूजिशियनों के गानों का विज्ञापनों, वीडियोज और फिल्मों में पुन: उपयोग होने पर मिली रॉयल्टी का एक हिस्सा नए बने कानून अनुसार इस संस्था से बांटा है, लेकिन यशराज फिल्म्स व टी-सीरीज जैसी बड़ी संगीत कंपनियां अभी भी ऐसा नहीं कर रही हैं. उनको साथ लाने के लिए जावेद अख्तर लगातार उनसे बातचीत (नीचे ट्वीट) कर रहे हैं और जो काम नए बिल के आ जाने के बाद कानूनन इन बड़ी कंपनियों को करना ही था, उसको शांतिपूर्ण तरीके से अंजाम तक पहुंचाने के लिए एक मजबूत पुल बने हुए हैं.

यही होता है कवि का गुस्सा. जो अगर सही रास्ते पकड़ ले तो जमीनी स्तर पर चीजों को बदल सकता है. क्रांतिकारी शायर कैफी आजमी के दामाद, प्रगतिशील लेखक आंदोलन के लोकप्रिय चेहरे मजाज के भांजे और गीतों के लिए रॉयल्टी पाने वाले पहले गीतकार साहिर लुधियानवी से याराना रखने वाले जावेद अख्तर सिर्फ नाजुक नज्में और रूमानी शेर लिखने तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने कर दिखाया है कि कवि का गुस्सा चीजें बदल भी सकता है. उम्मीद है, उन्हें टीवी व सार्वजनिक मंचों पर गुस्सैल चेहरे के साथ अपनी बात रखते हुए देखने वाले अब पूछना बंद कर देंगे - जावेद अख्तर को आखिर इतना गुस्सा क्यों आता है!

चलते-चलते, रेख्ता के एक मुशायरे में जावेद अख्तर द्वारा पढ़ी उनकी नज्म ‘नया हुक्मनामा’ सुनिए. सीधे 4.15 मिनट पर जाकर. उनके लिखे से फिर जावेदां मोहब्बत हो जाएगी. जावेद अख्तर के नाम के अर्थ की तरह, कभी न खत्म होने वाली ‘शाश्वत’ मोहब्बत.

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