हमारे पिताजी का प्रिय जुमला था, ‘चलो, जरा इस स्साले की लू उतारते हैं…’ कोई ज्यादा अकड़ दिखाये, बदमाशी करे, आंय-बांय बोले तो वे मानते थे कि इसके दिमाग में गर्मी चढ़ गई है जिसे समय रहते ठंडा करने की आवश्यकता है वर्ना इसका दिमाग स्थाई तौर पर खराब हो सकता है.

‘किसी की लू उतारना’ यह कहावत एक हद तक मेडिकली भी सही तथ्यों पर आधारित है. लू (हीट स्ट्रोक) की गर्मी भी सीधे दिमाग पर चढ़कर बोलती है. लू या हीट स्ट्रोक का मतलब भी यही है कि शरीर में गर्मी (तापमान) इस कदर बढ़ जाए कि आदमी के मस्तिष्क में मौजूद तापमान नियंत्रण का केंद्र (हाइपोथैलेमस) शरीर के तापमान पर अपना नियंत्रण खो बैठे.

तगड़ी लगी लू की स्थिति में यदि बढ़े हुए शारीरिक तापमान को समय रहते समुचित इलाज द्वारा कम न किया जाए तो आदमी मर भी सकता है. ज्यादा बढ़े तापमान (जिसे तकनीकी भाषा में हाईपर पायरेक्सिया कहा जाता है) के दुष्प्रभाव से शरीर में सब जगह प्रोटीन जम जाता है, खून यहां-वहां रुक सकता है और आदमी के तमाम अंग काम करना बंद कर सकते हैं (इस स्थिति को मल्टी ऑर्गन फेल्योर कहते हैं). तो लू लगने को कभी सामान्य बुखार नहीं मानना चाहिए. इसकी एकदम शुरुआत में ही पहचान होना अति आवश्यक है और तुरंत ही युद्धस्तर पर इसका पूरा इलाज भी उतना ही आवश्यक है. पर इसमें भी कई झोल हैं.

झोल ये हैं :

(1) आजकल वायरल, डेंगू आदि बुखारों का कुछ ऐसा जलवा मीडिया ने बनाया है कि डाक्टरों तक से लू लगने की सरल-सी डायग्नोसिस में गलती हो जाती है. जांचों की घटाटोप में फंसी मेडिकल प्रैक्टिस में इसकी आशंका आजकल बहुत बढ़ गई है कि डॉक्टर इस बीमारी को शुरू में या हल्की लू की स्टेज में न पकड़ पाएं.

(2) लू से चढ़ने वाले बुखार में बुखार उतारने वाली दवाओं (पैरासिटामॉल आदि) का कोई असर नहीं होता क्योंकि ये दवाएं दिमाग में हाइपोथैलेमस पर काम करके ही बुखार उतारती हैं. हीट स्ट्रोक में यही हाइपोथैलेमस की ताप नियंत्रण व्यवस्था अपना काम करना बंद कर देती है. तब? फिर इस बात को जानना बेहद जरूरी है कि किसी ऐसी या वैसी दवा से नहीं बल्कि बुखार तगड़ी कोल्ड स्पॉन्जिंग से ही उतरेगा. हम आगे विस्तार से आपको कोल्ड स्पॉन्जिंग वगैरह के विषय में बतायेंगे.

(3) लू सीधे हीट स्ट्रोक ही नहीं होती. दरअसल हीट स्ट्रोक लू की अंतिम खतरनाक स्टेज पर जाकर होता है. उससे पहले लू लगने के कई हल्के शेड्स भी होते हैं. इनको पहचाना जाना बेहद जरूरी है. मैं इनके बारे में भी कुछ महत्वपूर्ण बातें आगे आपको बताऊंगा.

हम इस हल्की लू (हीट एग्जॉशन) से लेकर गंभीर लू (हीट स्ट्रोक) तक सबकी बात यहां करने वाले हैं. लेकिन इन बातों को पूरी तरह से समझने के लिये हमें सबसे पहले शरीर के उस मैकेनिज्म और तिलिस्म को समझना होगा जो हमारे शरीर के तापमान को एक निश्चित सीमा में रखता है, जिसे हम अपना सामान्य (नॉर्मल ) तापमान (टेंपरेचर) मानते हैं.

शरीर का सामान्य तापमान होता क्या है?

शरीर का तापमान हम थर्मामीटर से नापते हैं. डॉक्टर आमतौर पर थर्मामीटर को बगल (कांख) में या मुंह में जीभ के नीचे धर के तापमान लेते हैं. मुंह का तापमान बगल की तुलना में लगभग 0.4 डिग्री सेल्सियस (0.7 फैरिनहाइट) ज्यादा होता है.

गंभीर मरीजों का कई बार रेक्टल थर्मामीटर नामक विशेष थर्मामीटर द्वारा गुदा के अंदर का तापमान लिया जाता है जिसे कोर टेम्परेचर कहते हैं. यही हमारे शरीर का सबसे सटीक तापमान होता है. हीट स्ट्रोक या हाईपरपायरेक्सिया की स्थितियों में यही तापमान नापने की आवश्यकता होती है. सामान्य तौर पर रेक्टल तापमान मुंह के तापमान से आधा से एक फैरिनहाइट या 0.3 से 0.6 डिग्री सेल्सियस ज्यादा होता है.

शरीर का सामान्य तापमान 36.5 से 37.5 डिग्री सेल्सियस (97.7 से 99.5 डिग्री फैरिनहाइट) की संकीर्ण सीमा में रखने का एक जटिल तापमान नियंत्रण सिस्टम शरीर में चौबीस घंटे काम करता रहता है.

एक और बात.

हमारा तापमान सुबह अलग होता है और शाम को अलग.

हमारे मुंह का अधिकतम नॉर्मल तापमान जिसे सामान्य माना जाता है वो है :

* सुबह छह बजे - 37.2 डिग्री सेल्सियस (98.9 डिग्री फैरिनहाइट)

* शाम को चार से छह के बीच - 37.7 डिग्री सेल्सियस (99.9 डिग्री फैरिनहाइट)

अगर इससे ज्यादा तापमान हो तो वह बुखार की श्रेणी में आता है.

हाइपोथैलेमस का थरमोस्टेट :

अब उस जटिल तंत्र को समझते हैं जो हमारे शरीर के तापमान को इस नॉर्मल तापमान की संकरी सी सीमा में नियंत्रित रखता है. सामान्य परिस्थितियों में यह सिस्टम हमारे तापमान को न तो इस सीमा से आगे बढ़ने देता है और न ही इससे नीचे जाकर शरीर को ठंडा होने देता है.

मानव शरीर में निरंतर गर्मी (ऊष्मा) पैदा होती रहती है. हमारे शरीर की हर कोशिका में लगातार मेटाबॉलिज्म की प्रक्रिया चलती है - किसी अंग में ज्यादा , किसी में कम. हम एकदम चुपचाप भी बैठे रहें, बिना कुछ भी किए या हिले-डुले भी बैठे रहें तब भी यह चलती रहती है. मसलन दिल लगातार चल रहा है, सासें चलती ही रहती हैं, दिमाग सोते समय भी काम करता रहता है, लीवर में पचासों कार्य हर पल चालू रहते हैं, चलने-फिरने पर मांसपेशियों में ऊर्जा का इस्तेमाल होने से ताप पैदा होता रहता है... मतलब?... मतलब यह कि हमारा शरीर लगातार गर्म हो रहा है. हर पल गर्मी पैदा हो रही है. निरंतर. अहर्निश .

अगर यह गर्मी नियंत्रित न की जाए तो शरीर खतरनाक ढंग से गर्म हो सकता है और आदमी इससे मर भी सकता है. अतिरिक्त गर्मी को पैदा होने के साथ-साथ शरीर से बाहर भी निकलते रहना चाहिए. सामान्य तौर पर ऐसा होता भी है. यह गर्मी हमारी त्वचा से बहते पसीने द्वारा और हर सांस की वापस लौटने वाली हवा को और गर्म करके निकलती रहती है. इसके अलावा शरीर रक्त नलिकाओं के सिकुड़ने या फैलने के नियंत्रण द्वारा उनमें बहती गर्मी को त्वचा के जरिए वातावरण की हवा में विसर्जित करता है. इस तरह शरीर एक सीमा के भीतर, नॉर्मल से ज्यादा गर्म होने से बच जाता है.

यह सारा काम एक ताप नियंत्रक (थर्मोस्टेट) करता है जो हमारे मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस में स्थित है. इसी थर्मोस्टेट में तापमान रेंज की एक सेटिंग तय रहती है. यह सेटिंग वही है जिसे हम नॉर्मल तापमान कहते हैं.

कभी किसी कारण से यह तापमान इस रेंज से और कम होने लगे तो हाइपोथैलेमस शरीर में कंपकंपी के जरिए मांसपेशियों में गर्मी पैदा करता है. इसके उलट, अगर किसी कारण से शरीर में तापमान बढ़े तो पसीने इत्यादि द्वारा उसे वापस ठीक करने की कोशिश भी यही हाइपोथैलेमस करता है.

फिर संक्रमण होने पर बुखार कैसे आता है?

ऐसे संक्रमण में यही हाइपोथैलेमस ऊंचे तापमान पर सेट हो जाता है.

कैसे सेट हो जाता है?

टायफॉयड, निमोनिया, आदि संक्रमणों में बैक्टीरिया के टॉक्सिक कणों (इंडोटॉक्सिन, पायरोजन्स, सायटोकॉइन्स आदि) के दुष्प्रभाव में हाइपोथैलेमस का थर्मोस्टेट 102-103 डिग्री फैरिनहाइट या अधिक पर सेट हो जाता है. तब हमें उतना तेज बुखार आता है जितने पर हाइपोथैलेमस सेट हो गया है.

बुखार उतारने वाली दवायें इसी हाइपोथैलेमस के थर्मोस्टेट पर काम करती हैं. वे इस ऊंची सेटिंग को वापस नीचे लाकर बुखार कम करती हैं.

ये तो हुये सामान्य बुखार. पर एक तरह के और भी वे बुखार हैं जो किसी संक्रमण के कारण नहीं बल्कि हाइपोथैलेमस का थर्मोस्टेट फेल हो जाने के कारण पैदा होते हैं. इस तरह के बुखार पर शरीर के थर्मोस्टेट मैकेनिज्म (यानि हाइपोथैलेमस) का कोई नियंत्रण नहीं रह जाता. ऐसे में शरीर का तापमान अनियंत्रित होकर बुखार जानलेवा हद तक बढ़ सकता है. हीट स्ट्रोक भी इसी श्रेणी का जानलेवा बुखार है. उसकी चर्चा हम आगे की किस्त में करेंगे.