1973 का साल भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है. उस साल 24 अप्रैल सुप्रीम कोर्ट ने ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ मामले में फैसला सुनाया था. 45 साल पहले आए इस फैसले से भारतीय संविधान की संसद पर जीत हुई थी. वह फैसला आज भी भारतीय न्यायपालिका को राह दिखाने का काम कर रहा है. यह निर्विवादित रूप से उस साल की सबसे बड़ी घटना थी जिसके बारे में विस्तार से आप सत्याग्रह के इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं.

यहां हम उस साल की दूसरी बड़ी घटना की बात करेंगे. इसका संबंध हिंदी सिनेमा से है. 1973 में ‘ज़ंजीर’ फ़िल्म रिलीज़ हुई थी. इस फिल्म ने हिंदुस्तान, ख़ासकर जहां हिंदी बोली जाती है, को झकझोर कर रख दिया था. हीरो के बजाए एंटी हीरो लोगों को पसंद आने लगा था. ‘ब्लैक एंड वाइट’ किरदारों की बजाय लोगों को धूसर चरित्र अच्छा लगने लग गया था. लगातार फ्लॉप फ़िल्में देते हुए अमिताभ बच्चन ने पहले सुपर-स्टार राजेश खन्ना के स्टारडम को नेपथ्य में धकेल दिया था. और वह भी इस कदर कि राजेश खन्ना को इस बात का यकीन ही नहीं हुआ था. कहते हैं कि अवसाद और शराबनोशी में घिरकर वे अक्सर कहा करते थे कि ‘ऐसे अटन-बटन कितने ही आये और चले गए’.
पर अमिताभ जाने के लिए नहीं आये थे.
जंजीर का शुरुआती सीन है. डरा-सहमा सा विजय फिर ख्व़ाब में घोड़े पर बैठे नकाबपोश को देखकर हड़बड़ाकर उठता है. यह ख्व़ाब उसे बचपन से डरा रहा है. बड़ी ही साधारण सी एंट्री होती ही है अमिताभ की इस फिल्म में. बगल में बैठे अपने दोस्त से किसी दर्शक ने सिनेमा हॉल में ज़रूर पूछा होगे, ‘ये कौन है भाई? अमिताभ बच्चन इस फ़िल्म में ‘इंस्पेक्टर विजय’ के किरदार में हद तक डूबे नज़र आते हैं. हां, ‘ज़ंजीर’ के बाद उनका हर किरदार अमिताभ बनता हुआ नज़र आता है.
वहीं, प्राण बने ‘शेर खान’ की धमाकेदार एंट्री है. बैकग्राउंड में म्यूजिक बजता है और उन्हें बेहद रोबदार तरीक़े पेश से किया गया है. शर्तिया, उस वक़्त प्राण अमिताभ से ज़्यादा कद्दावर थे. प्राण की विलेन वाली लोकप्रियता का आलम इस बात से समझ सकते हैं कि एक फिल्म में वे शम्मी कपूर के साथ फाइट सीन की शूटिंग कर रहे थे. शूटिंग पर जब वे शम्मी कपूर को मारते थे तो देखने वाले सीटियां और तालियां बजाया करते.
खैर, ज़ंजीर पर लौटते हैं. दर्शकों को प्राण के आने के बाद कुछ राहत मिली होगी. फिर जब थाने में शेर खान और विजय का एकसाथ पहला सीन खुलता है और उसके बैठने के लिए खींची गयी कुर्सी को जब विजय लात मारकर गिराते हुए शेरखान से कहता है ‘जब तक कहा न जाए शराफ़त से खड़े रहो. ये पुलिस स्टेशन है तुम्हारे बाप का घर नहीं’, दर्शक सन्न रह गया होगा और अचकचाकर सीट के दोनों हत्थों को पकड़कर सीधा बैठ गया होगा. आख़िर पहली बार किसी ने प्राण के किरदार को इतने मज़बूत और मुकम्मल तरीक़े से किसी फिल्म में ललकारा था. फिर अगले ही सीन में जब विजय को उसके अफसर डांटते हुए कहते हैं कि कानून तोड़ने वालों के लिए उसे कानून को हाथ में लेने की ज़रूरत नहीं है, तो लोगों को समझ आता है कि यह माजरा क्या है.

इसके बाद ज़ंजीर फ्रेम दर फ्रेम खुलती जाती है और सीन दर सीन दर्शक के ज़हन पर काबिज़ होती जाती है. एक नया सिनेमा गढ़ जाता है. लम्बी-लम्बी टांगों वाला, बिलकुल साधारण सा चेहरा लिए एक ऊंचे कद का किरदार दुनिया के सामने सबको चुनौती देता हुआ, सब ज़ंजीरें तोड़ता हुआ आगे बढ़ जाता है. बॉलीवुड हमेशा के लिए बदल जाता है. ‘ज़ंजीर’ के बाद ही लोगों ने यह सवाल किया होगा कि अमिताभ का कद कितना है? कहां से पढ़ाई की है? क्या यह रोबदार आवाज़ उसे विरसे में मिली है?
जंजीर सलीम-जावेद की जोड़ी ने लिखी थी. नसरीन मुन्नी कबीर से बातचीत के दौरान इस फ़िल्म को याद करते हुए जावेद अख्तर बताते हैं कि बड़ा अजीबोगरीब रिएक्शन था दर्शकों का. लोगों ने हाल में न तो तालियां बजायीं, न सीटियां. वे बिलकुल ख़ामोशी से, हक्के-बक्के फ़िल्म देखते रहे.
ज़ंजीर लोगों के लिए बिलकुल नया तजुर्बा थी. अमिताभ का किरदार बिलकुल अलहदा क़िस्म का था. अब ये सब जानते हैं कि इस किरदार को को लेकर फिल्म के निर्माता निर्देशक प्रकाश मेहरा, ने सबसे पहले धर्मेंद्र को साइन किया था. उन्हें और मुमताज़ को लेकर इस फ़िल्म की घोषणा भी की गयी थी. धर्मंद्र तब अन्य फिल्मों में व्यस्त थे और शूटिंग के लिए समय नहीं निकाल पा रहे थे. हारकर, प्रकाश मेहरा ने उनसे फ़िल्म छोड़ने का निवेदन किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया. धर्मेंद्र हमेशा से ही सहृदय व्यक्ति रहे हैं. उन्होंने अपने लिए जब पहली बार मुंबई में घर ख़रीदा था तो राजकपूर ने उनसे घर का साइज़ पूछा. धर्मेद्र ने बड़ी मासूमियत से कहा कि ये लगा लीजिए कि चालीस पचास मंजियां (चारपाई) आ जाएंगी.
खैर, बात ज़ंजीर की हो रही थी. धर्मेंद्र के बाद मुमताज़ भी शादी करके इस फ़िल्म से हट गयीं. प्रकाश मेहरा फिर देवानंद के पास गए. वे उनकी फिल्म ‘कालापानी’ से काफी प्रभावित थे. देवानंद ने यह कहकर मना दिया कि हीरो हमेशा ही गुस्से में भरा रहेगा, गाना भी नहीं गायेगा, यह उनकी इमेज के माफ़िक नहीं है. सलीम-जावेद को भी देवानंद इस रोल के लिए फिट नहीं लगे. राजकुमार ने प्रकाश मेहरा को इस फिल्म का सेट मद्रास (चेन्नई) में लगाने के लिए कहा ज्सिके लिए व राज़ी नहीं हुए क्यूंकि फिल्म मुंबई पर आधारित थी. अमिताभ प्रकाश मेहरा की आख़िरी पसंद थे पर सलीम-जावेद को वे भाए और इस तरह व इस फ़िल्म के नायक बने.
जावेद अख्तर के मुताबिक दरअसल बाकियों को यह समझ नहीं आया कि विजय का किरदार किस किस्म का है. अव्वल तो वह हीरो है भी या नहीं? इस किरदार को गढ़ने में काफ़ी मेहनत की गई होगी. शायद यह जावेद और सलीम की ज़िन्दगी से काफी मिलता-जुलता किरदार नज़र आता है. मसलन एक सीन था. बच्चे विजय के सामने उसके बाप और मां दोनों की लाश पड़ी हुई है, विजय ‘मां’ चीखता हुआ लाश से लिपटकर रो उठता है. सीन सही है क्यूंकि बच्चा मां से ज़्यादा लगाव रखता है. एक बात जो यकीन से तो नहीं, पर कुछ विश्वास से कही जा सकती है कि यह सीन जावेद अख्तर ने लिखा होगा. जावेद ने भी अपनी मां को बचपन में ही खो दिया था. उनकी फिल्मों में ही नहीं, उनकी किताब ‘तरकश’ में ये दर्द कुछ इस तरह से एक शेर के रूप में निकलकर आता है, ‘अपनी महबूबा में अपनी मां देखें, बिन मां के लड़कों की फ़ितरत होती है.’
विजय मां-बाप के मरने के बाद खामोश बच्चा बन जाता है. क्लास में, स्कूल में सबसे कटा-कटा सा रहता है, ख़ामोशी ओढ़े चलता है. अपनी वालिदा की मौत के बाद जावेद भी अपने वालिद के ख़िलाफ़ इक अजीब किस्म के गुस्से से भर गए थे. उनकी यह बग़ावत जवानी तक बरक़रार रही. ‘तरकश’ में ख़ुद जावेद ने क़ुबूल किया है कि वालिद के इंतकाल के बाद ही वो उनसे जुड़ पाए. विजय का बगावती इंस्पेक्टर कोई इत्तेफ़ाक नहीं था. सलीम के वालिद भोपाल में पुलिस इंस्पेक्टर थे. सलीम ने पुलिसिया माहौल काफी नज़दीक से देखा होगा और इसीलिए विजय का किरदार इतनी मजबूती से खड़ा रह पाता है.
जब ज़ंजीर रिलीज़ हुई तो अमिताभ बीमार थे. बॉक्स ऑफिस पर इसकी धीमी चाल ने उनकी बैचनी और बढ़ा दी थी. आख़िर वे लगातार फ्लॉप हुए जा रहे थे. जब बॉक्स ऑफिस पर सिक्के खनकने लगे तो उन्हें एकबारगी यकीन नहीं हुआ और उनका बुख़ार बढ़ गया. बाकी फिर इतिहास है.
कहते हैं कि सफलता के कई बाप होते हैं, कई कारण होते हैं. ज़ंजीर की सामाजिक और राजनैतिक व्याख्या भी बढ़-चढ़कर की गयी है. इसके हिट होने के कई कारण गिनाये जाते हैं. बकौल जावेद ‘जब 1973 में ज़ंजीर रिलीज़ हुई थी तो उस वक़्त समाज में अविश्वास का एक ज़ज्बा था. आप उस वक़्त मुल्क के सियासी मूड के बारे में सोचें तो आपको बहुत कुंठा मिलेगी. समाजी विद्रोह शुरू हो गए थे. ये वो वक़्त था जब जयप्रकाश नारायण का सोशलिस्ट मूवमेंट शुरू हो चुका था.’ वे आगे कहते हैं, ‘कानून व्यवस्था ख़त्म होती जा रही थी. चुनांचे आम-आदमी उथल-पुथल का अनुभव कर रहा था. उस वक़्त नैतिकता का तकाज़ा ये था कि अगर आपको इंसाफ़ चाहिए तो ख़ुद लड़ना होगा.’ कुछ ऐसी ही व्याख्या समाज शास्त्रियों और फिल्म के जानकारों ने की हैं.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी जेपी आंदोलन को इसके पीछे एक बड़ा कारण मानते हैं. समाजशास्त्रीय व्याख्या अगर मान भी ली जाए पर राजनैतिक व्याख्या समझ नहीं आती. उस साल सलीम-जावेद की ‘यादों की बारात’ भी रिलीज़ हुई थी. उसमें भी धर्मेंद्र एक तरह से एंटी-हीरो का किरदार निभाते हैं. अगर जेपी मूवमेंट का असर ज़ंजीर पर है, तो उस पर क्यों नहीं? कई अन्य फ़िल्में हैं जिन पर उस वक़्त के राजनैतिक या सामाजिक आंदोलन का प्रभाव साफ़ और सीधे तौर पर नज़र आता है. ज़ंजीर पर किसी भी आंदोलन का प्रभाव नहीं है. हां, सामाजिक परिदृश्य इसे जरूर प्रभावित करता दिखता है और यही बात है जिसने इस फिल्म को कल्ट या क्लासिक का दर्ज़ा दिया है. जब तक यह दौर नहीं बदलेगा तब तक यह फ़िल्म प्रासंगिक बनी रहेगी.
ज़ंजीर विशुद्ध रूप से एक मसाला फ़िल्म थी जिसने एक नए किस्म के सिनेमा को जन्म दिया था. मशहूर लेखक जॉर्ज गीसिंग ने एक बार कहा था कि ऐसी कोई बात जो लोगों को उनका यथार्थ दिखाती है, उन्हें पसंद नहीं आती. उन्होंने आगे लिखा था कि ब्रिटेन के लोगों को पसंद आता है तो वह है ‘स्वांग’ और ‘नाटकीयता’. क्या यह बात हम पर भी सही बैठती है? विजय का किरदार कानून के दायरे से बाहर जाकर कानून तोड़ने वालों को सज़ा देता है और यह लोगों को पसंद आया. आख़िर हमारे पड़ोस का थानेदार तो ऐसा नहीं करता. इसलिए ज़ंजीर सामाजिक परिदृश्य और फंतासी का मिला-जुला मिश्रण थी. पर जो भी है, बात तो यह है कि इसने हमें नया सिनेमा और अमिताभ बच्चन दिया.
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