दिन 18 मई. साल 1974. समय सुबह 8.05. जगह, पोखरण, जैसलमेर, राजस्थान. 107 मीटर नीचे ज़मीन में गड़ी 1400 किलो वजनी और 1.25 मीटर चौड़ी एक चीज़ तेज़ धमाके के साथ फटी और आस-पास की धरती को हिला गई!
अमेरिका और बाकी मुल्कों ने कहा भारत ने परमाणु विस्फ़ोट कर दिया है. भारत ने कहा कि बुद्ध मुस्कुरा रहे हैं. दुनिया ने पूछा, कैसे? जवाब मिला कि यह शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए किया गया प्रयोग है और शांति और बुद्ध एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, इसलिए. दुनिया ने मानने से इनकार कर दिया.

फिर करीब 23 साल बाद अक्टूबर, 10, 1997 को भारत के परमाणु कार्यक्रम के भूतपूर्व निदेशक राजा रमन्ना, जिन्होंने इस विस्फ़ोट में अहम भूमिका निभाई थी, ने एक कार्यक्रम में कहा, ‘अब मैं आपको बता सकता हूं कि पोखरण विस्फ़ोट एक बम था. धमाका धमाका होता है, बंदूक बंदूक होती है. किसी तरफ तानकर मारो या ज़मीन में दाग़ दो. मैं ये बात साफ़ कर दूं कि वह शांति कार्यों के लिए नहीं किया गया था.’
आज इसी पर बात करते हैं और समझते हैं कि किन हालात में भारत ने यह विस्फोट किया, कौन-कौन इसमें शामिल था और इसके क्या परिणाम हुए?
शुरुआत
भारत में परमाणु अनुसंधान की शुरुआत के जनक डॉ होमी जहांगीर भाभा थे. उन्हें जवाहरलाल नेहरू का वरदहस्त था. हालांकि, भारत उस वक़्त परमाणु अप्रसार संधि का पक्षधर था. इस संधि के तहत कुल पांच मुल्कों को परमाणु तकनीक विकसित करने की छूट थी. ये थे अमेरिका, सोवियत रूस, चीन, इंग्लैंड और फ्रांस. नेहरू को यह बात गवारा नहीं हुई. उनका मानना था कि भारत को शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु शक्ति विकसित करनी चाहिए. उनका यह भी मानना था कि एक राष्ट्र होने के नाते भारत इसको अन्य कार्यों में इस्तेमाल कर सकता है और इसके लिए उसे किसी मुल्क की सहृदयता की ज़रूरत नहीं है.
बात साफ़ थी. भाभा और अन्य वैज्ञानिक जुट गए. ट्रॉम्बे आणविक उर्जा संस्थान और डिपार्टमेंट ऑफ़ एटॉमिक एनर्जी की स्थापना हो गयी. सहायता करने को आये दो मुल्क - कनाडा और अमेरिका. अमेरिका ने भारत को परमाणु क्षमताओं का अन्य इस्तेमाल न करने की शर्त पर सहयोग दिया था. कनाडा ने सायरस नाम का परमाणु रिएक्टर भारत को दिया जिसके लिए भारी जल (ड्यूटोरियम ऑक्साइड) अमेरिका से प्राप्त हुआ.
1967 के बाद परमाणु बम बनाने की दिशा में काम तेज़ होने लगा. मशहूर पत्रकार राज चेंगप्पा अपनी किताब ‘वेपन्स ऑफ़ पीस’ में लिखते हैं कि इंदिरा गांधी ने अपने प्रधान सचिव प्रेम नारायण हक्सर की सलाह के बाद इस पर काम शुरू करने की अनुमति दी. कुछ वैज्ञानिकों को सोवियत रूस भेजा गया जहां उन्होंने रूसी परमाणु क्षमताओं और रिएक्टरों को समझा. वहां से प्रेरित होकर भारतीय वैज्ञानिकों ने पूर्णिमा नाम से रिएक्टर विकसित किया जो प्लूटोनियम (परमाणु बम बनाने में काम आने वाला रेडियोधर्मी पदार्थ) का इस्तेमाल करता. 18 मई, 1972, यानी परमाणु परीक्षण से तकरीबन दो साल पहले यह रिएक्टर क्रिटिकल हो गया. आम भाषा में इसका मतलब होता है कि उसमें ऊर्जा उत्पादन के लिए परमाणु के विखंडन की प्रक्रिया शुरू हो गई.
अंतरराष्ट्रीय हालात
हालात ठीक नहीं थे. देश चीन से युद्ध में हार चुका था. अक्टूबर 1964 में डॉ भाभा ने आल इंडिया रेडियो पर परमाणु निरस्त्रीकरण पर बोलते हुए कहा था जब तक विश्वभर में इस पर कोई निश्चित काम नहीं होता, भारत को अपनी परमाणु क्षमताओं का विकास करना होगा और किसी संभावित परमाणु हमले से बचने का सिर्फ एक ही उपाय है कि देश के पास भी यह क्षमता हो. जावेद अख्तर की पंक्तियां याद आती हैं ‘वो सांप छोड़ दे डसना ये मैं भी कहता हूं, पर न छोड़ेंगे उसे लोग ग़र न फुंकारा’.
रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि इस बात से जनसंघ के कुछ नेताओं में उबाल आ गया. देवास (मध्य प्रदेश) के सांसद हुकुम चंद्र ने इस बाबत लोकसभा में एक प्रस्ताव करते हुए कहा कि ‘जो हथियार दुश्मन के पास हैं, हमारे पास भी होने चाहिए.’ उनका इशारा चीन की तरफ था. लाल बहादुर शास्त्री ने अपने जवाब में कहा कि ऐसा होने पर देश गांधी की विचारधारा से भटक जाएगा. कांग्रेस के ज़्यादातर सदस्य उनके साथ खड़े हो गए. प्रस्ताव गिर गया.
फिर इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं. 1971 की जंग हुई और भारत से हारे पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए. देश में माहौल बदल चुका था. वैज्ञानिक इंदिरा गांधी पर परमाणु परीक्षण करने के लिए ज़ोर डालने लगे थे. मशहूर कानूनविद नानी पालकीवाला ने अपनी किताब ‘वी द नेशन’ में लिखा है कि साल 1974 में विभिन्न देशों ने 37 परमाणु विस्फ़ोट किए थे. इनमें से 19 सोवियत रूस ने किए थे और नौ अमेरिका ने. फ्रांस, चीन और इंग्लैंड भी इस सूची में शामिल थे.
टीम में कौन-कौन थे?
पोखरण पर काम शुरू हुआ. राजा रमन्ना जिनका ज़िक्र ऊपर आया है, वे इस प्रोजेक्ट के सर्वे सर्वा थे. उनके अलावा होमी सेठना, पीके अयंगर, राजगोपाल चिदंबरम सहित लगभग 75 वैज्ञानिक इसमें शामिल थे. यह कार्यक्रम इतना गुप्त रखा गया था कि सेनाध्यक्ष गोपाल गुरुनाथ बेवूर और पश्चिम कमांड के लेफ्टिनेंट जनरल के अलावा किसी को इसकी ख़बर नहीं थी. उधर, सरकार में पीएन हक्सर और इंदिरा गांधी के एक और विश्वस्त सलाहकार दुर्गा धर के अलावा किसी और को इस योजना के बारे में मालूम नहीं था. रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम और तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह की हालत तो आज के वित्त मंत्री अरुण जेटली के जैसी थी. उन्हें विस्फ़ोट के बाद बयान जारी करने के लिए कहा गया और इन्हें नोटबंदी के बाद वक्तव्य जारी करने को कहा गया था!
उधर, आसमान में उड़ते हुए अमेरिकी सेटेलाइटों की नज़र से बचना भी ज़रूरी था. सेना की यूनिटें इस काम के लिए ज़िम्मेदार थीं. परीक्षण स्थल पर रात-दिन सैनिक खेलते, या युद्ध अभ्यास करते और इसकी आड़ में जगह को परीक्षण के लिए तैयार किया जाता.
देश के हालात
1974 वह साल भी था जहां से भारतीय राजनीति एक अलग मोड़ लेने को थी. यह साल दंगों और छात्र शक्ति के प्रदर्शनों का था. हैरतंगेज़ राजनैतिक उथल-पुथल का था, जेपी आंदोलन के उभार का था. इंदिरा सरकार के मंत्रियों पर कमीशनखोरी और कालाबाज़ारी के इल्ज़ाम लग रहे थे. इंदिरा संविधान के साथ छेड़छाड़ करने को लेकर भी बदनाम हो चुकी थीं.
जेपी ने 1973 में पटना के गांधी मैदान में एक रैली की थी जिसमें उन्होंने पहली बार ‘परिवर्तन’ की बात उठाई. कुलदीप नैयर ‘बियॉन्ड द लाइन्स’ में लिखते हैं कि इस रैली में जेपी ने उन्हें भी बुलाया था. उन्हें तब इस बात का इल्म नहीं था कि वे उस रैली का हिस्सा बनने जा रहे हैं जो इंदिरा की सत्ता को उखाड़ फेंकेगी. गुजरात में कांग्रेस की चिमनभाई पटेल की सरकार को जेपी ने घेर लिया. उनपर भ्रष्टाचार का इल्ज़ाम था. चिमनभाई ‘चिमन चोर’ कहलाए जाने लगे. ज़बरदस्त दबाव में उनकी सरकार बर्खास्त हो गई और राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया. इससे उत्साहित होकर जेपी ने बिहार की सरकार के ख़िलाफ़ भी मोर्चा खोल दिया.
उधर, इन्हीं दिनों जॉर्ज फ़र्नांडिस की अगुवाई में रेल कर्मचारियों ने रेलवे के इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल को अंजाम दे दिया था. रेल का भी चक्का जाम हो गया. आर्थिक मोर्चे पर देश कोई ख़ास तरक्की नहीं कर रहा था. कुल मिलाकर, ज़बरदस्त उठापटक हो रही थी. इंदिरा गांधी सब तरफ से घिर चुकी थीं.
आख़िरी रास्ता
अब एक ही रास्ता बचा था. वह यह कि ऐसी कोई घटना हो जाए जो लोगों का ध्यान भटका दे. तभी इंदिरा गांधी को वे वैज्ञानिक याद आये जो परमाणु परीक्षण को लेकर बेताब थे. बस बात बन गयी और 18 मई 1974 को भारत ने पहला परमाणु विस्फ़ोट कर डाला.
बाद में क्या हुआ?
पोखरण में हुए परीक्षण से भारत अब गैरआधिकारिक रूप से उस समूह में शामिल हो गया था जहां अब तक सिर्फ पांच देशों का राज था. ज़ाहिर है, उन्हें दिक्कत तो होनी ही थी. दुनिया भर में इस पर चर्चा होने लगी. परमाणु परीक्षण की निंदा हुई. अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए. कनाडा और अमेरिका ने परमाणु रिएक्टरों को दिए जाने वाले रेडियोएक्टिव ईंधन और भारी जल की सप्लाई रोक दी. नानी पालकीवाला और अन्य विद्वानों ने तब अमेरिकी शहरों में जाकर भारत के पक्ष में हवा बांधने की कोशिश की. उधर, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो पोखरण विस्फोट से इतने भयभीत हो गए कि आनन-फ़ानन में उन्होंने बयान दे डाला कि उनका मुल्क भारत के परमाणु ब्लैकमेल के आगे नहीं झुकेगा.
इधर, देश में परमाणु धमाकों का शोर इतना तेज़ हुआ कि सब आवाज़ें दब गयीं. सब तरफ़ अति उत्साह का माहौल पैदा हो गया. सांसदों ने संसद के केंद्रीय भवन में इकट्ठा होकर सरकार को बधाई दी. एक झटके में रेल हड़ताल, छात्र आंदोलन और जेपी कुछ देर के लिए नेपथ्य में चले गए. यह बात अलग है कि जेपी कच्ची मिट्टी के नहीं बने थे. वे अपनी जंग को अंजाम तक ले गए और उन्होंने ‘परिवर्तन’ करके ही दम लिया.
फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर हमसे जुड़ें | सत्याग्रह एप डाउनलोड करें
Respond to this article with a post
Share your perspective on this article with a post on ScrollStack, and send it to your followers.