कार्ल मार्क्स जर्मन थे. 19वीं सदी में लिखी अपनी पुस्तक ‘दास कपिटाल’ (पूंजी) से वे सारी दुनिया में चर्चा का विषय बन गए. जो लोग ईश्वर व धर्म को नकारते और अपने आप को कम्युनिस्ट पुकारते हैं, उनके लिए वही धर्मपुस्तक बन गयी. यूरोप के जिन देशों में कम्युनिस्टों का कभी शासन था, वहां की सरकारों के हाथ-पैर उस हर चीज़ का नाम सुनते ही फूलने लगते थे, जिससे उन्हें किसी धर्म की गंध महसूस होती थी. 1990 में विभाजित जर्मनी के एकीकरण से पहले के पूर्वी जर्मनी की सरकारों का भी यही हाल था.

पूर्वी जर्मनी द्वितीय विश्वयुद्ध में पराजित अखंड जर्मनी के उस हिस्से पर सात अक्टूबर 1949 को बना था, जिस पर 1945 से सोवियत संघ (आज के रूस) का क़ब्ज़ा था. वहां के नेता उसे बड़े गर्व से ‘जर्मन भूमि पर पहला मज़दूर-किसान राज्य’ कहा करते थे. लगभग चार ही महीने पहले, 23 मई 1949 को अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के क़ब्ज़े वाले जर्मनी के पश्चिमी भाग में एक नया लोकतांत्रिक संविधान लागू हुआ था. उसे इस आशा से संविधान के बदले बुनियादी क़ानून नाम दिया गया था कि जब कभी देश से सारी विदेशी सेनाएं चली जायेंगी और देश का एकीकरण हो जायेगा, तब पूरे जर्मनी में सब के लिए एक ही संविधान होगा.

40 वर्ष बाद नवंबर 1989 में विभाजन की प्रतीक बर्लिन दीवार के गिरने के 11 महीनों के भीतर ही तीन अक्टूबर 1990 को जर्मनी का औपचारिक एकीकरण हो गया. इसके साथ ही कम्युनिस्ट पूर्वी जर्मनी का अस्तित्व मिट गया. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी संघात्मक लोकतांत्रिक गणराज्य वाले एक ही संविधान की छत्रछाया में आ गये. इसके साथ ही पूर्वी जर्मनी के निवासियों के लिए वे दरवाज़े भी खुल गये, जो तब तक बंद थे. योग-ध्यान भी एक ऐसा ही दरवाज़ा था जो पूर्वी जर्मनों के लिए दशकों से न केवल बंद था, उसके आस-पास फटकने का मतलब अपने लिये नाहक किसी बला को न्यौता देने के समान था.

ज्ञान नहीं, अभिमान

मार्क्स और लेनिन के भक्त पूर्वी जर्मन शासकों को योग और ध्यान का रत्ती-भर भी ज्ञान नहीं था. वे उन्हें धार्मिक पोंगापंथ और तंत्र-मंत्र जैसा ही कोई ढकोसला समझते थे, न कि तन और मन को साधने की कोई अनुभवसिद्ध विद्या. वे चाहते थे कि पूर्वी जर्मनी के लोग खेलकूद में विश्वविजयी खिलाड़ी बनें. ओलंपिक या विश्वकप जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में ढेर सारे पदक बटोर कर कम्युनिस्ट पार्टी और देश का नाम ऊंचा करें. इससे जो प्रसिद्धि मिलेगी, वह पश्चिम जर्मनी सहित सभी पूंजीवादी देशों को नीचा दिखाते हुए पूर्वी जर्मन समाजवाद की श्रेष्ठता का सिक्का जमाने के काम आएगी. पूंजीवादी व्यवस्था वाले विश्व के औद्योगिक देशों की बराबरी उनके वश की बात तो थी नहीं, इसलिए खेल के मैदान पर उन्हें नीचा दिखाना ही पूर्वी जर्मन शासकों को सबसे कारगर उपाय लगता था. इसमें वे काफ़ी सफल भी रहे.

पूर्वी जर्मनी के सरकार नियंत्रित ‘जर्मन जिम्नैस्टिक्स और खेल संघ’ (डीटीएसबी) ने 1950 वाले दशक में ही योग को एक ‘हानिकारक रहस्यवाद’ घोषित कर उससे जुड़े सभी आयोजनों को प्रतिबंधित कर दिया था. 1979 में इसकी फिर पुष्टि करते हुए कहा गया कि योग तंत्र-मंत्र जैसा रहस्यवादी और अवैज्ञानिक है, मज़दूर वर्ग की विचारधारा से इसका कोई मेल नहीं बैठता इसलिए पूर्वी जर्मनी के समाजवाद में इसका कोई स्थान नहीं हो सकता. योग को ठुकराने का इस बार एक और प्रमुख कारण यह बताया गया कि योगाभ्यास कोई ऐसा खेल या व्यायाम नहीं है कि उससे देश को कोई प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिल सके. कहने की आवश्यकता नहीं कि पूर्वी जर्मन शासकों को दुनिया में अपनी श्रेष्ठता का ढिंढोरा पीटने की सनक थी, न कि व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास या मानसिक सुख-शांति के लिए कुछ करने की कोई ललक थी.

चोरी-छिपे योगाभ्यास

बहुत कम ही सही, लेकिन लोग तब भी अपने घरों में या जहां भी एकांत मिले, चोरी-छिपे योगासन करते थे. पश्चिम जर्मन टेलीविज़न देख कर या वहां उपलब्ध पुस्तकें अपने सगे-संबंधियों से मंगवा कर वे योग करना सीखते थे. उनका खुद पश्चिम जर्मनी जा सकना या वहां से पुस्तकें आदि मंगवा सकना क़ानून क्योंकि संभव नहीं था इसलिए उनकी तस्करी होती थी. पूर्वी जर्मनी में लाइपज़िग शहर की इंगे लेमान कहती हैं, ‘योगासनों से कोई पदक नहीं मिल सकना ही मेरे लिए बिल्कुल ठीक था. मैं केवल अपने लिए ऐसा कुछ करना चाहती थी, जिसका किसी प्रतिस्पर्धा या हार-जीत से कोई संबंध न हो.’ उन्होंने 1970 वाले दशक में योगासन सीखना शुरू किया.

कुछ परिचितों की मदद से इंद्रा देवी (एक रूसी महिला जिन्होंने अमेरिका को पहली बार भारतीय योग सिखाया) की लिखी पुस्तक ‘योग के माध्यम से एक नया जीवन’ इंगे लेमान के हाथ लगी. उन्होंने उसे आदि से अंत तक कई बार पढ़ा, कई बातें लिख कर नोट कर लीं और उसी से सारे आसन इत्यादि सीखे. इंगे लेमान ऐसे सभी लोगों को योग करने की सलाह देने लगीं, जो पीठ दर्द, कमर दर्द या इसी प्रकार की दूसरी परेशानियां लेकर उनके पास आते थे. यहां तक कि वे ‘डीटीएसबी’ के ही एक जिम्नैस्टिक हाल में “तनाव-मुक्ति व्यायाम” के छद्म नाम से योगासन सिखाने भी लगीं.

सारी डाक सेंसर होती थी

पूर्वी जर्मनी में ही कोटबुस के गेर्ड शाइटहाउएर ने 1970 वाले दशक के आरंभ में बीटल्स और पंडित रविशंकर का संगीत सुना था. कुछ दोस्तों से योग व बौद्ध धर्म के बारे में भी सुन रखा था. वे योग के बारे में किसी पुस्तक की तलाश में थे. वे बताते हैं, ‘पश्चिम बर्लिन और हैम्बर्ग में मेरे कुछ दोस्त थे. उनसे कहा कि मैं योग के बारे में ऐसी कोई किताब चाहता हूं, जिसमें योग के आसनों और हठयोग का वर्णन हो. किताब मुझे भेजी तो गई, पर कभी मिली नहीं!’

किताब इसलिए नहीं मिली कि ‘मज़दूरों और किसानों के राज’ वाले पूर्वी जर्मनी में सारी डाक सेंसर होती थी. पुस्तकें और अन्य प्रकाशन ही नहीं, चिट्ठियां भी प्रायः ज़ब्त हो जाती थीं. गुप्तचर विभाग उन लोगों को तंग करने लगता था जिनके नाम-पते पर उन्हें भेजा गया था. उस ज़माने में कंप्यूटर, इंटरनेट या ईमेल जैसी चीज़ें नहीं थीं.

इसलिए गेर्ड शाइटहाउएर के मित्रों ने अगली बार क़िताब के क़रीब 600 पृष्ठों की फ़ोटोकॉपी बनाई और 10 से 20 पन्नों वाले अलग-अलग लिफाफों में उन्हें रख कर अलग-अलग दिन डाक से भेजे. इस तरह सभी तो नहीं, तब भी अधिकतर पन्ने गेर्ड शाइटहाउएर तक पहुंचे. उनकी सहायता से उन्होंने स्वयं ही योगासन सीखे. पूर्वी जर्मनी में उस समय की अनिवार्य सैनिक सेवा में भर्ती होने से 1981 में उन्होने मना कर दिया और सरकार से भारत जाने के लिए पासपोर्ट देने की मांग की, जो उन्हें कभी नहीं मिला.

पूर्वी जर्मनी के साधारण नागरिकों को ऐसे देशों की यात्रा करने की अनुमति नहीं थी, जो सोवियत संघ के नेतृत्व वाले गुट के ‘समाजवादी बंधु-देश’ नहीं कहलाते थे. साधारण लोगों को ग़ैर-कम्युनिस्ट देशों की यात्रा के लिए पासपोर्ट और उसमें लगने वाला वीज़ा मिलता ही नहीं था. यहां तक कि इन दोनों के आवेदन के लिए न तो कोई फ़ॉर्म होता था और न ही कोई ऐसा अधिसूचित कार्यालय, जहां जाकर आवेदन किया जा सके. भारत कोई ‘समाजवादी बंधु-देश’ नहीं था. इस कारण ‘स्टाज़ी’ कहलाने वाला पूर्वी जर्मन गुप्तचर मंत्रालय, जिसकी सहमति के बिना विदेश जाना संभव ही नहीं था, गेर्ड शाइटहाउएर की मांग से और भी बौखला गया.

चाहा भारत जाना, पहुंच गये जेल

गेर्ड शाइटहाउएर का कहना है, ‘1983 में एक दिन जब मैं पूर्वी बर्लिन में भारतीय दूतावास से कोटबुस में अपने घर लौटा तो किसी ने मुझ से कहा कि श्रीमान शाइटहाउएर, ज़रा हमारे साथ चलिये...’ उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और साढ़े तीन साल जेल की सज़ा सुना दी गयी. भारतीय दूतावास में जाने के कारण उन पर आरोप यह लगाया गया कि वे देश के बारे में गोपनीय जानकारियां दूसरों को दे कर देशद्रोही कार्य कर रहे थे. गेर्ड शाइटहाउएर को साढ़े तीन तो नहीं, पर दो साल से कुछ अधिक समय जेल में काटना पड़ा. तीन साल इसलिए नहीं, क्योंकि पश्चिम जर्मन सरकार ने पैसा देकर 1985 में उन्हें छुड़ा लिया.

सज़ा मिलने के समय गेर्ड शाइटहाउएर की आयु 35 साल थी. उस समय तक पूर्वी जर्मन सरकार योगाभ्यास को बलपूर्वक दबाने के बदले उसे अनदेखा करने की नीति अपनाने लगी थी. तब भी गेर्ड शाइटहाउएर को साढ़े तीन साल की सज़ा सुनाई गई, तो शायद एक दूसरे ही कारण से.

जेल से रिहाई के लिए फिरौती!

पूर्वी जर्मनी के पास तत्कालीन पश्चिम जर्मन मार्क, अमेरिकी डॉलर या ब्रिटिश पाउंड जैसी विदेशी मुद्राओं की भारी कमी थी, जबकि विदेशी मुद्रा की उसकी भूख सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही थी. दूसरी ओर, पश्चिम जर्मन सरकार यह दिखाने के लिए कि जर्मनी का विभाजन एक अन्याय है, सभी जर्मन उसके अपने नागरिक हैं, वह पूर्वी जर्मन जेलों में बंद ऐसे लोगों को पैसा देकर छुड़वा लेती और उन्हें अपने यहां लाती-बसाती थी, जो उसके विचार से किसी राजनैतिक कारण से, न कि किसी बड़े अपराध के कारण वहां जेल में बंद थे. पश्चिम जर्मनी की यह नीति पूर्वी जर्मनी के लिए पैसा ऐंठने की ऐसी दुधारु गाय बन गयी थी, जिसके लिए उसे किसी को बस किसी भी बहाने से कहीं भी पकड़ कर जेल में बंद कर देना काफ़ी था. कहा जाता है कि पूर्वी जर्मनी हर रिहाई के लिए कम से कम एक लाख मार्क लेता था.

गेर्ड शाइटहाउएर नहीं जानते कि पश्चिम जर्मनी ने कितना पैसा देकर उन्हें छुड़ाया था. 1985 में जब उन्हें छुड़ाया गया था, उस समय एक लाख जर्मन मार्क क़रीब नौ लाख 10 हज़ार भारतीय रुपये के बराबर हुआ करते थे. जेल से छूटने के दो साल बाद शाइटहाउएर अपना सपना साकार करने गोवा पहुंच गये. सोच रहे थे कि वहां भारत की भूमि पर भारत का सच्चा योग सीखेंगे. पर, वहां का दृश्य तो कुछ और ही था! उनका कहना है, ‘वहां तो गुरू-चेले चिलम-चरस पीकर धुत रहा करते थे. योगगुरू स्वर्णकेशी सुंदरियों के कुछ ज़्यादा ही माहिर लगते थे. उन के साथ वे ध्यानयोग के धुंए का क़श खींचने में व्यस्त रहते थे. बस, यही थी योगसाधना की पढ़ाई!’

पीछे 18 जासूस

1990 में पूर्वी जर्मनी का अस्तित्व मिट जाने के बाद से ‘स्टाज़ी’ (राज्य-सुरक्षा मंत्रालय) कहलाने वाले उसके गुप्तचर मंत्रालय की सारी फ़ाइलें एक विशेष अभिलेखागार में रखी गयी हैं. उन सब लोगों के लिए वे उपलब्ध हैं, जो यह जानना चाहते हैं कि उनके बारे में क्या जानकारियां जमा की गयी थीं या किसने क्या चुगलखोरी की थी. गेर्ड शाइटहाउएर को अपने बारे में जो फाइलें मिली हैं, उनसे उन्हें पता चला कि उनकी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए ‘स्टाज़ी’ ने 18 जासूस लगा रखे थे!

केवल एक करोड़ 80 लाख जनसंख्या वाले पूर्वी जर्मनी के गुप्तचर मंत्रालय के पास पूर्णकालिक वेतनभोगी स्टाफ़ के रूप में 91 हज़ार नियमित जासूस और अन्य कर्मी थे. उन के अलावा छद्म नामों वाले कुछेक लाख ऐसे अनियमित भेदिये या चुगलखोर भी थे, जो कुछ पैसे, कोई सुविधा या किसी और लालच के वश ‘स्टाज़ी’ के लिए काम करते थे.

योग के बदले ‘योगानास्टिक’

योगाभ्यास की चोरी-छिपे बढ़ती हुई लोकप्रियता के विकल्प के तौर पर 1978 में पूर्वी जर्मनी में 80 अलग-अलग व्यायामों वाला एक नया नाम गढ़ा गया ‘योगानास्टिक’ (योग+जिम्नास्टिक), जो मिल-मिलाकर जिम्नास्टिक ही था. मीडिया में उसका खूब ढोल पीटा गया. इसका एक अवांछित प्रभाव लेकिन यह होने लगा कि ‘योग’ शब्द और अधिक कानों तक पहुंचा. लोगों में यह जिज्ञासा और भी बढ़ने लगी कि बिना जिम्नेस्टिक वाला ‘योग’ भला क्या चीज़ है? उसके बारे में जानकारी कहां और कैसे मिल सकती है?

कानाफूसी होने लगी कि ‘समाजवादी बंधु देश’ बुल्गारिया में तो 1960 वाले दशक के शुरू से ही योग के बारे में जानकारी पाना संभव है. समाजवादी देश हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में एक ऐसी दूुकान है जहां पश्चिम जर्मनी से आयी जर्मन भाषा की योग संबंधी पुस्तकें भी मिलती हैं. यही नहीं, पूर्वी जर्मनी के अपने ही लाइपज़िग शहर में ‘जर्मन पुस्तक व्यापार संघ’ का 1916 में स्थापित एक ऐसा पुस्तकालय है, जो जर्मन भाषा में दुनिया भर में प्रकाशित सभी पुस्तकें जमा करता है. पुस्तकें घर तो नहीं ले जायी जा सकतीं, पर वहीं बैठ कर पढ़ी और काम की बातें नोट तो की ही जा सकती हैं. इस पुस्तकालय में जर्मन भाषा में छपी योग संबंधी पुस्तकें भी उपलब्ध थीं, हालांकि इसे शायद ही कोई जानता था.

योगाभ्यास का गुप्त अड्डा

कह सकते हैं कि लाइपज़िग शहर ही एक ऐसे समय में पूर्वी जर्मनी में योगाभ्यास सीखने-सिखाने का गुप्त अड्डा बन गया था, जब योगाभ्यास अवांछित था और उससे लोगों का ध्यान हटाने के लिए ‘योगानास्टिक’ का प्रचार किया जा रहा था. यह विरोधाभास इसलिए संभव हो पाया कि वहां हाइंत्स कुख़ार्स्की नाम का एक बहुत सम्मानित व्यक्ति रहता था. कुख़ार्स्की भारतविद, नृवंशशास्त्री (एथनोलॉजिस्ट) और योग-प्रेमी भी थे. इससे भी बड़ी बात यह थी कि कुख़ार्स्की को पूर्वी जर्मन सरकार की ओर से सम्मान मिला हुआ था कि हिटलर के समय वे नाज़ी अत्याचार-पीड़ित रह चुके हैं. पूर्वी जर्मनी में नाज़ी अत्याचार-पीड़ितों का दर्जा भारत के श्रद्धेय स्वतंत्रता संग्रामियों जैसा था.

कुख़ार्स्की, साथ ही लाइपज़िग में पूर्वी जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी ‘एसईडी’ की स्थानीय शाखा का पार्टी-सचिव होने के नाते, एक दबदबेदार कॉमरेड भी थे. देश या पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा पर उंगली उठाना आसान नहीं था. वे देश भर में घूमते और भारतीय योगविद्या पर, न कि योगानास्टिक जैसे किसी बहकावे पर, व्याख्यान आदि भी देते थे. भारतविद ही नहीं, अनेक मेडिकल डॉक्टर, वैज्ञानिक, खिलाड़ी और साधारण लोग भी उनके व्याख्यानों से प्रभावित होने लगे थे. 1979 में ऐसे लोगों की संख्या इतनी बड़ी हो गयी थी कि लाइपज़िग में ही योग और प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति की कार्यमंडली नाम से एक संगठन की नींव डाली गई. बाद में उसका नाम बदल कर योग और पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धति की वैज्ञानिक संस्था – योग दर्शन कर दिया गया.

संग्रहालय में योग-मंडली की बैठकें

लाइपज़िग के नृवंशविज्ञान (एथनोलॉजी) संग्रहालय के कमरों में इस संस्था की बैठकें आदि होती थीं, जिनमें सोवियत संघ, हंगरी, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया तक के योगविद भाग लिया करते थे. हाइंत्स कुख़ार्स्की को इतनी सारी छूट मिलने के पीछे एक बड़ा रहस्य छिपा था. पूर्वी जर्मनी का अस्तित्व मिट जाने के बाद ‘स्टाज़ी’ कहलाने वाले उसके गुप्तचर मंत्रालय की फ़ाइलों से पता चला कि कुख़ार्स्की ‘स्टाज़ी’ के लिए भी काम करते थे! वे उन लोगों के बारे में जानकारी पाने का अच्छा स्रोत थे जो योग-प्रेमी या प्रचारक थे. 81 वर्ष की अवस्था में अक्टूबर 2000 में उनकी मृत्यु हो गयी.

उनके बारे में ‘स्टाज़ी’ की 800 पृष्ठों वाली फ़ाइल में पाया गया कि वे 1967 से लेकर नवंबर 1989 में बर्लिन दीवार के गिरने तक लाइपज़िग में ‘स्टाज़ी’ के अनौपचारिक भेदिये रहे हैं. उनका छद्म नाम ‘लेक्टोर’ था. योग-मंडलियों की समय-समय पर होने वाली बैठकों और योग-सम्मेलनों के संदर्भ में उनके तीन मुख्य काम थेः 1- नाम, पते, तारीखें मालूम करना. 2- संबद्ध ग्रुप के राजनैतिक-विचारधारात्मक लक्ष्य जानना. 3- संभावनाओं का अाकलन करना कि संबद्ध ग्रुप को प्रभावित कर सकने के निजी अवसर कहां दिखते हैं.

प्रथम राष्ट्रीय योग-सम्मेलन

अपनी इन्हीं ज्ञात-अज्ञात विशेषताओं के बल पर 1979 में, कुख़ार्स्की ने लाइपज़िग में पूर्वी जर्मनी के प्रथम राष्ट्रीय योग-सम्मेलन का आयोजन किया. उनके निमंत्रण पर पूरे देश से क़रीब 500 योग-प्रेमी, फ़िजियोथेरेपिस्ट, डॉक्टर और वैज्ञानिक जमा हुए. उस सम्मेलन की सफलता से प्रेरित हो कर हाइंत्स कुख़ार्स्की ने बाद के वर्षों में लाइपज़िग में हर वर्ष ऐसे लोगों और विद्वानों का जमघट लगाया जो योग सीखने-सिखाने में लगे थे या उसमें दिलचस्पी रखते थे.

उन्हीं के प्रयासों से 1980 वाले दशक की शुरुआत से सरकारी स्वामित्व वाले उद्योगों के कर्मियों के लिए आपका स्वास्थ्य नाम की एक प्रत्रिका भी प्रकाशित होने लगी, जिसमें चुने हुए योगासान बताए जाते थे. पूर्वी जर्मनी की उस समय की एक लाइफ़-स्टाइल पत्रिका जैसे कुछ दूसरे प्रकाशन भी तुम्हारा स्वास्थ्य के योगासनों को अपने पृष्ठों पर स्थान देने लगे. महिलाओं के लिए ‘सिबिले’ नाम की पूर्वी जर्मनी की सबसे नामी पत्रिका ने पूरे दो पृष्ठों पर सूर्य-नमस्कार का पहली बार सचित्र वर्णन करने का साहस दिखाया. यह सब इस बात का साफ़ लक्षण था कि योगाभ्यास के प्रति पूर्वी जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी का मार्क्सवादी अड़ियलपन धीरे-धीरे यथार्थवादी होने लगा था. इस के पीछे संभवतः एक बहुत ही अनपेक्षित अंतरराष्ट्रीय कारण भी था.

भारतीय अंतरिक्ष यात्री ने पूर्वाग्रहों की चूलें हिलायीं

2अप्रैल 1984 को जब रूसी अंतरिक्षयान ‘सोयूज़ टी-11’ रूसी अंतरिक्ष स्टेशन ‘सल्यूत-7’ की दिशा में चला तो उसमें एक भारतीय अंतरिक्ष यात्री भी सवार था. नाम था राकेश शर्मा. राकेश शर्मा भारत के अब तक के एकमात्र अंतरिक्ष यात्री हैं. अंतरिक्ष स्टेशन ‘सल्यूत-7’ पर उन्होंने क़रीब आठ दिन बिताए थे. इस दौरान उन्होंने वहां योगासन और योग संबंधी कुछ प्रयोग आादि भी किये थे. इसे तत्कालीन सोवियत संघ सहित पूर्वी यूरोप के सभी कम्युनिस्ट देशों के लोगों ने या तो अपने टेलीविज़न समाचारों में देखा या अख़बारों में पढ़ा. इससे लोगों में योग के प्रति एक ऐसी अपूर्व जिज्ञासा जागी जिसने योगाभ्यास के प्रति सरकारी दुराग्रहों- पूर्वाग्रहों की चूलें हिला दीं. पूर्वी यूरोप की कम्युनिस्ट सरकारों के लिए योग की उपयोगिता को झुठलाना या उसे तंत्र-मंत्र बता कर हाथ झाड़ लेना आसान नहीं रह गया.

पूर्वी जर्मनी भी हवा के इस रुख से अछूता नहीं रह सका.1985 से पूर्वी जर्मन रेडियो और टेलीविज़न में भी योग के इतिहास और उसके आसनों की नपी-तुली सावधानीपूर्ण चर्चा होने लगी. कहा जाने लगा कि योग पांच हज़ार साल पुरानी एक भारतीय विद्या है. हाइंत्स कुख़ार्स्की को ऐसे कार्यक्रमों में अक्सर बुलाया जाता था. उस समय योग के बारे में उनसे बढ़-चढ़ कर जानकार और सरकार का विश्वासपात्र कोई दूसरा बड़ा नाम था भी नहीं. 1986 में योग-आसन करने के चित्रों और निर्देशों वाली पहली पुस्तिका छपी. नाम था ‘योग.’ ढाई लाख प्रतियों वाला उसका प्रथम संस्करण देखते ही देखते बिक गया. पूर्वी जर्मन गुप्तचर मंत्रालय के साथ हाइंत्स कुख़ार्स्की के सहयोग को यदि एक तरफ कर दें, तो यह मानना पड़ेगा कि वहां योगाभ्यास के लिए बंद दरवाज़ों को खुलवाने में कुख़ार्स्की के अनोखे योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता.

गुप्तचर विभाग सर्वशक्तिमान

पूर्वी जर्मनी में ही नहीं, 1990 से पहले वाले पूर्वी यूरोप के सभी कम्युनिस्ट देशों में मज़दूरवर्ग का शासन रहा हो या न रहा हो, गुप्तचर विभाग का शासन तो था ही और वही सर्वशक्तिमान था. खुद बड़े-बड़े नेता भी पानी में रह कर मगर से बैर नहीं करते की नीति पर ही चलते थे. जिसे भी जीवन में आगे बढ़ना होता था उसे देश के गुप्तचर विभाग से हाथ मिलाना ही पड़ता था.

हाइंत्स कुख़ार्स्की की आवाज़ अंतिम बार 12 सितंबर 1989 को, यानी पूर्वी जर्मनी के अस्तित्व का सूर्यास्त होने से केवल सात सप्ताह पहले सुनाई पड़ी थी. उस दिन पूर्वी जर्मन रेडियो ‘स्टिमे देयर डेडेएर’ (जीडीआर की आवाज़) के सुबह नौ बजकर पांच मिनट पर शुरू हुए एक कार्यक्रम में एक महिला के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा, ‘यदि आप हर दिन योगाभ्यास करना चाहती हैं, तो मेरा सुझाव है कि आप कमरे में हमेशा किसी एक ही जगह को इसके लिए चुनें. तब आप हमेशा अपने सुपरिचित परिवेश में ही होंगी.... खिड़की खोलें, गलीचे पर लेट जाएं, और अब हल-आसन का अभ्यास करें....’

एकीकृत जर्मनी में 50 लाख योगाभ्यासी

एकीकृत जर्मनी में आज लोग किसी फ़िटनेस स्टूडियो या किसी छोटे-मोटे हॉल में चल रहे निजी स्कूल में ही नहीं, जन-महाविद्यालय (फ़ोल्क्सहोख़शूले) कहलाने वाले सांध्यशिक्षा के सरकारी प्रौढ़शिक्षा केंद्रों, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ईसाई संप्रदायों के शिक्षा संस्थानों, योगशिविरों या फिर विश्वविद्यालयों तथा रेडक्रॉस जैसी संस्थाओं द्वारा संचालित कोर्सों में भी योगासन करना और ध्यान लगाना सीख-सिखा सकते हैं. यहां तक कि बड़ी-बड़ी कंपनियों, संस्थाओं और कारखानों ने भी अपने कर्मचारियों के लिए योगशिक्षकों की सेवाएं लेना शुरू कर दिया है.

आंकड़े बताते हैं कि सवा आठ करोड़ की जनसंख्या वाले जर्मनी में 50 लाख लोग योगाभ्यास करते हैं. योगाभ्यास सिखाने के पंच हज़ार से अधिक स्टूडियो, स्कूलों, केंद्रों व आश्रमों में एक लाख से अधिक योगशिक्षक काम कर रहे हैं. हर दूसरी महिला योगाभ्यास आजमा चुकी है. हर चौथा पुरुष जानता है कि ‘सूर्य-नमस्कार’ क्या है. कोई नहीं डरता कि ‘सूर्य-नमस्कार’ या ‘ओम’ के उच्चार से उसका धर्म भ्रष्ट हो सकता है या उस पर ‘हिंदुत्व’ का रंग चढ़ सकता है.

भारत में भी योग पर अभियोग

इसमें कोई शक नहीं कि पूर्वी जर्मनी जैसे कम्युनिस्ट देश जब तक थे, तब तक वहां राजनैतिक-विचारधारातमक संकीर्णता के चलते योगाभ्यास का लंबे समय तक दमन हुआ, जो निंदनीय है. पर, भारत में यही संकीर्णतापूर्ण दमन क्या आज भी तब नहीं होता, जब स्कूली बच्चों को सूर्य-नमस्कार सिखाये जाने पर धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार और प्रगतिशीलता के अलंबरदार आसमान सिर पर उठा लेते हैं?

आज के परिप्रेक्ष्य में प्रश्न यह है कि संकीर्णता-पीड़ित कौन है. वे भारतीय, जो आज भी अतीत के अपने ही अनुभवसिद्ध और इस बीच पूरी तरह विज्ञान-सम्मत स्वदेशी ज्ञान को धर्म का चश्मा चढ़ा कर अज्ञान मानते या ठुकराते हैं? या वे जर्मन व अन्य विदेशी, जो अतीत के अपने ही दुराग्रहों– पूर्वाग्रहों का चश्मा उतार कर हमारे अनुभवसिद्ध प्राचीन ज्ञान को दिल खोल कर अपना रहे है? सच तो यह है कि यूरोप-अमेरिका में योगाभ्यास के साथ-साथ अब मंत्रोच्चार और भजन-कीर्तन वाला भक्तियोग भी तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है. लोग इसे विशुद्ध आध्यात्मिकता, न कि किसी धार्मिकता के अर्थ में लेते हैं. उनके शिक्षक भी भारतीय नहीं, अपने ही देशों के स्वदेशी गुरू होते हैं. मंत्रों और भजनों की भाषा भले ही टूटी-फूटी संस्कृत या हिंदी होती है, पर लोगों का भक्तिभाव निश्छल-निर्मल, अडिग और अटूट दिखता है.