हाल ही में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि पति द्वारा अपनी पत्नी के रंग को लेकर तंज कसना भी तलाक का एक आधार हो सकता है. कुछ समय पहले महेंद्रगढ़ जिले की एक महिला ने अपने पति के इस तरह के तानों को आधार बनाकर तलाक की अर्जी दी थी जिसे फैमिली कोर्ट ने खारिज कर दिया था. लेकिन हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के उस फैसले को पलटते हुए कहा कि पति द्वारा महिला के रंग पर टिप्पणी करना न सिर्फ दुर्व्यवहार है, बल्कि एक किस्म की मानसिक क्रूरता भी है.
आज भी भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में लड़कियों को न सिर्फ ससुराल में बल्कि अपने मायके में भी रंगभेद का शिकार होना पड़ता है. अक्सर ही सांवले रंग वाली लड़कियों को ज्यादा लाड़-प्यार और सम्मान नहीं दिया जाता. ‘इससे कौन शादी करेगा’ जैसे ताने उन्हें सुनने को मिलते रहते हैं. सांवले रंग के कारण खास तौर से लड़कियों को मिलने वाले ताने और उपेक्षा हमारे समाज की बुनियादी सोच का हिस्सा है.
इन्हीं सब कारणों से सांवले रंग की लड़कियों को ताने देना हमारे समाज का बेहद सहज व्यवहार बन गया है. यह इतना ज्यादा सहज है कि इसे कभी मानसिक हिंसा माना ही नहीं गया. हाई कोर्ट के इस फैसले ने असल में इस दिशा में सोचने की एक नई ठोस पहल की है कि बेहद सहज और सामान्य सी लगने वाली ये बातें असल में लड़कियों/महिलाओं के साथ हो रही एक किस्म की मानसिक हिंसा हैं. यह हिंसा न सिर्फ ससुराल वालों बल्कि मायके के लोगों को भी दोषी ठहराती है क्योंकि सांवले रंग से जुड़े ताने तो लड़की सबसे पहले अपने घर में परिवार और रिश्तेदारों से ही सुनती है और वह भी बहुत लंबे समय तक.
ऐसे में एक सवाल यह भी उठता है कि यदि रंग को लेकर टिप्पणी तलाक के लिए मजबूत आधार बन सकती है तो क्या लड़की के मायके वाले भी इस अपराध की सजा के भागीदार नहीं होने चाहिए. असल में गौर से देखें तो लड़की के साथ मानसिक हिंसा करने में ससुराल के साथ मायके के लोग भी पीछे नहीं हैं. ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो अस्वाभाविक रूप से लड़की पर थोपी जाती हैं या उससे छीनी जाती हैं या फिर जिनमें जानबूझकर लापरवाही बरती जाती है. जबरदस्ती लड़की के ऊपर कुछ थोपना, उपेक्षा या लापरवाही करना ये सभी चीजें मानसिक और भावनात्मक हिंसा का अहम हिस्सा हैं. क्योंकि ये सभी बातें लड़कियों को कदम-कदम पर यह महसूस करवाती हैं कि व हीन, उपेक्षित, गैरजरूरी या फिर दोयम दर्जे की इंसान हैं.
हम यहां मायके और ससुराल में होनी वाली ऐसी ही कुछ और बातों को जानने की कोशिश कर रहे हैं जो रंग के लिए प्रताड़ित करने जैसी ही मानसिक हिंसाएं हैं. ये सभी बातें बहुत व्यापक स्तर पर और बेहद सहज तरीके से लड़कियों/महिलाओं की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं.
मायके में होने वाले बेहद सामान्य लिंगभेदी दुर्व्यवहार
1. मायके में ज्यादातर लड़कियों को बचपन से ही बहुत सारी चीजों पर मां-बाप या भाइयों की पहरेदारी का सामना करना पड़ता है. उनके बोलने से लेकर खाने और चलने के तरीके तक हर चीज पर नजर रखी जाती है. अक्सर ही टोकाटाकी करते हुए उन्हें कहा जाता है कि लड़कियों को ऐसे नहीं करना चाहिए या वैसे करना चाहिए. मसलन ऊंची आवाज में बात करने या हंसने पर उन्हें टोका जाता है. इस तरह की बातें कदम-कदम पर उनका आत्मविश्वास कम करती हैं.
2. लड़कियों को पराए घर जाना है तो सारे काम आने चाहिए, यह कहकर हर समय उनके ऊपर घरेलू कामों को सीखने का दबाव बनाया जाता है. ‘पढ़-लिखकर भी रोटियां ही थापनी हैं’ यह बात आगे बढ़ने का उनका मनोबल तोड़ती है. अक्सर ही उनकी शादी में होने वाले खर्च की चिंता भी जताई जाती रहती है. ये बातें लड़कियों में एक किस्म की हीन भावना पैदा करती हैं. उन्हें लगता है कि लड़की के रूप में पैदा होके उन्होंने बड़ी गलती कर दी है.
3. अक्सर ही लड़कियों को सस्ते या सरकारी स्कूल में पढ़ाया जाता है और लड़कों को महंगे और अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में. यह बात आजीवन लड़कियों के मन में टीस और भावनात्मक टूटन पैदा करती है.
4. लड़कियों की बीमारियों पर अक्सर ही कोई ध्यान नहीं दिया जाता और घरेलू उपचार से ही उनके ठीक करने के तरीके ढूंढे जाते हैं. जबकि उनके भाइयों की छोटी-मोटी बीमारियों के लिए तुरंत डॉक्टर के पास भागा-दौड़ी की जाती है. परिवार वालों के इस व्यवहार से वे भरे-पूरे घर में भी अकेलापन महसूस करती हैं और कई बार दब्बू बनती जाती हैं.
ससुराल में सामान्यतः होने वाले लैंगिक दुर्व्यवहार
1. ससुराल में घर के काम और बच्चों को सिर्फ पत्नी की ही जिम्मेदारी समझा जाता है. और जब-तब उन्हें यह जताया जाता है कि उनका जन्म सिर्फ रसोई में काम करने, साथ में सोने और बच्चे पालने के लिए ही हुआ है.
2. स्वादिष्ट खाना न बनाने या खाने में किसी भी किस्म की कमी होने पर पत्नी को बुरी तरह लताड़ना ज्यादातर पतियों को अपना हक लगता है.
3. दोस्तों, रिश्तेदारों या परिवार वालों के सामने अक्सर ही पत्नी को ‘बेवकूफ हो तुम’, ‘ज्यादा दिमाग मत लगाया करो’, ‘तुम्हें पता क्या है’ जैसी बेहद अपमानजनक बातें बोला जाना बेहद आम है. ऐसी तमाम बातें महिलाओं को गहरी भावनात्मक ठेस पहुंचाती हैं. अक्सर ही पति इस सबको प्यार में बोली गई मामूली सी बात समझते हैं जबकि वे स्वयं पत्नी के मुंह से किसी दूसरे के सामने ऐसी किसी भी बात को सुनने की कल्पना भी नहीं कर सकते! पत्नी के मुंह से अपने लिए ऐसा कुछ भी सुन के पति बौखला जाएंगे. फिर भी पत्नी को लगातार ऐसी चुभने वाली बातें बोलने से वे बाज नहीं आते.
4. ऑफिस न जाने वाली महिलाओं को अक्सर ही बातों-बातों में यह जताया जाता है कि वे घर पर रहकर कुछ नहीं करतीं और बस मुफ्त की रोटियां तोड़ रही हैं. उनके घर-परिवार और बच्चों के अंतहीन कामों के लिए उनके प्रति धन्यवाद महसूस करना तो दूर, उलटे उन्हें ‘कुछ नहीं करती’ का अहसास दिलाया जाता है. उन्हें अक्सर ही यह भी महसूस कराया जाता है कि वे किसी लायक नहीं और उनमें कोई हुनर नहीं, इस कारण वे घर पर बैठी हैं. पत्नियों की छोटी-छोटी लापरवाहियों या गलतियों पर उनके साथ ऊंची आवाज में बात करना या फिर हाथापाई को भी अक्सर ही पति जायज मानते हैं. इसमें उन्हें कुछ भी गलत या अपराध करने जैसा महसूस तक नहीं होता.
जानकारों का कहना है कि हमारा समाज अभी तक तो लड़कियों/महिलाओं के प्रति हो रही शारीरिक हिंसा को ही ठीक से नहीं समझ पाया है और न ही उनका कोई स्थाई हल ही निकाला गया है. फिर ऐसे में महिलाओं के प्रति हो रही मानसिक और भवनात्मक हिंसा की तो कोई गिनती ही नहीं. उनका मानना है कि लड़कियों/महिलाओं के साथ सार्वजनिक जगहों से ज्यादा भावनात्मक हिंसा परिवार और रिश्तेदारों द्वारा होती है, फिर चाहे वह मायका पक्ष के लोग हों या फिर ससुराल पक्ष के.
उम्मीद की जा सकती है कि हाई कोर्ट के इस निर्णय के बाद, घरों के भीतर होने वाली इस जैसी अन्य बातों को एक किस्म की मानसिक हिंसा मानने की शुरुआत होगी.
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