निर्देशक : अनुराग कश्यप, ज़ोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी, करण जौहर
कलाकार : राधिका आप्टे, विकी कौशल, भूमि पेडनेकर, मनीषा कोईराला, संजय कपूर, किआरा आडवाणी
रेटिंग : 3.5/5
एक वक्त था जब फिल्मों में स्त्री-पुरुष संबंधों के नाम पर केवल प्रेम संबंध दिखाए जाते थे और इस प्रेम की परिणति शादी होती थी. इससे कुछ हटकर दिखाने के लिए फिल्मकार कभी-कभी किरदारों को उनके प्रेम का बलिदान करते भी दिखा देते थे. बलिदानी प्रेम बहुत उच्च कोटि का माना जाता था. इसके उलट वे प्रेमी जो (खासकर) तन, मन और धन लुटाकर प्रेम करते थे, पापी समझे जाते थे.
सिनेमाई प्रेम में त्याग को सर्वश्रेष्ठ बताकर जनता को खूब बहलाया गया है. इसके असर के चलते बहुत से ‘कायर’ प्रेमियों को बलिदानी और शारीरिक प्रेम चाहने वालों को ‘हवस का पुजारी’ का तमगा भी मिला है. वैसे तो ये बातें अलग-अलग लग सकती हैं, लेकिन इनकी वजह सिनेमाई प्रेम में शरीर, सीधे कहें तो सेक्स की अनुपस्थिति ही है. और यह भी तब है जब हम सिर्फ पुरुषों की बात कर रहे हैं, महिलाओं के मामले में तो सेक्शुएलिटी हमेशा अनसुनी-अनकही चीज ही रही है. इसीलिए लस्ट स्टोरीज जैसी फिल्में, कथित नैतिकता को ध्वस्त करने वाली होकर भी जरूरी हो जाती हैं.
लस्ट स्टोरीज़ चार जाने-माने निर्देशकों - अनुराग कश्यप, जोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी और करण जौहर की लघुफिल्मों का संकलन है. इन छोटी-छोटी कहानियों को बड़ी सूक्ष्मता से देखने की दरकार है. हाल-फिलहाल महिलाओं की सेक्शुएलिटी पर बात करने वाली कुछ और फिल्में भी आई हैं, जैसे - पार्च्ड, लिपस्टिक अंडर माय बुरका और वीरे दी वेडिंग. इनमें पार्च्ड तो खूब सराही गई, वहीं बाकी दो फिल्मों को लेकर लोगों की राय कुछ बंटी रही. लस्ट स्टोरीज इसी विषय पर बना सिनेमा होने के बावजूद इस मायने में अलग है कि यह बिना किसी का पक्ष लिए अपनी बात कहना चाहती है. इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि बेहद थोड़े से वक्त में ये किरदार एक सार्थक और जरूरी बात आपके सामने रख देते हैं. ऐसा करते हुए ये प्रेम का नहीं बल्कि शरीर का सहारा लेते हैं. ये शरीर महिलाओं के हैं और इनमें दिमाग भी हैं!
शादी से पहले अफेयर, शादी, शादी के बाद अफेयर से लेकर लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप और लिव-इन रिलेशनशिप, यानी कि फिल्म कई तरह से मर्द और औरत के रिश्ते में से औरतों के पक्ष को एक्सप्लोर करती है. पहले चैप्टर में अनुराग कश्यप एक शादीशुदा प्रोफेसर और स्टूडेंट का प्रेम दिखाते हैं. सीधे-सीधे कहें तो ठरक से उपजे एक रिश्ते में किस तरह के डर, चिंताएं और बंधन मौजूद होते हैं, ये हिस्सा दिखाता है. पति, प्रेमी और बाकी के कई लव इंटरेस्ट के बारे में नायिका राधिका आप्टे के मोनोलॉग भी बेहद दिलचस्प हैं. इनमें क्या है, ये बताने के बजाय हम यहां राधिका आप्टे के अभिनय की तारीफ में कई लंबे-चौड़े पुल बांधना चाहते हैं ताकि आप उनसे गुजरकर जाएं और उनका काम जरूर देखें.
दूसरा चैप्टर जोया अख्तर निर्देशित है और एक काम वाली बाई का किस्सा दिखाता है. इस पूरे हिस्से की खासियत यह है कि यहां पर सीधे-सीधे कहे गए संवाद गिनती के हैं. कहानी का एक छोटा हिस्सा बैकग्राउंड में चलने वाली बातचीत से आपको समझ आता है और बाकी का भूमि पेडनेकर के चेहरे से. भूमि के मेकअप-विहीन चेहरे पर आप कई तरह के एक्सप्रेशन्स देखना चाहते हैं, वे आते भी हैं, लेकिन वह नहीं जिसकी उम्मीद आपको होती है. ये समाज में क्लास डिफरेंस दिखाने वाली इस कहानी और उनके अभिनय दोनों की खासियत है और यही खासियत इसे सीरीज की सबसे बेहतर फिल्म भी बनाती है. और हां, विद्या बालन और आलिया भट्ट के बाद अगर कोई अभिनेत्री है जो किसी भी रूप में आपके सामने आने की हिम्मत रखती है, तो वो केवल और केवल भूमि पेडनेकर हैं.
तीसरे चैप्टर में दिबाकर बनर्जी एक अधेड़ उम्र की बैंकर को स्विमसूट में दिखाते हैं जो अपने परिवार से बचकर अपने हिस्से का वक्त गुजारने आई है. मनीषा कोईराला द्वारा निभाए इस किरदार की खासियत उसे यह पता होना है कि पति और प्रेमी दोनों से उसे कब, क्या और कैसे चाहिए. प्रेमत्रिकोणनुमा इस कहानी में सेक्शुएलिटी अपने सबसे ज्यादा स्वीकृत रुप-रंग में आती है. बेहद समझ के साथ लिखी गई इस कहानी को मनीषा कोईराला के बढ़िया अभिनय का साथ मिलता है. लेकिन महज आधे घंटे की इस छोटी सी फिल्म में एडिटिंग की गड़बड़ियां थोड़ा मजा खराब कर देती हैं.
बाकी तीन चैप्टर्स से अलग, चौथा चैप्टर इस गंभीर विषय को उसकी पूरी गंभीरता के साथ मगर बेहद चुटीले तरीके से आपके सामने रखता है. करण जौहर इसके लिए रंग और रोशनी से भरा वही तरीका अपनाते हैं जिसके लिए वे जाने जाते हैं. यहां दूसरे-तीसरे दृश्य में शादी देखकर आपको जरा खुन्नस सी होती है कि यहां भी शादी ठूंस दी! लेकिन अगला मिनट गुजरते-गुजरते आप बाकी तीन कहानियां भूलकर इसका मजा लेते हैं. खुद पर हंसने की कला जानने वाले करण जौहर अपनी ही फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ के क्लाइमैक्स सीन का यहां इतना मजेदार इस्तेमाल करते हैं कि आप ठहाके लगाने को मजबूर हो जाते हैं. यह चैप्टर अपने नए-नवेले पति से असंतुष्ट एक बीवी की तलाश दिखाता है और इस तलाश के खत्म होने पर उसके भीतर आया गजब का आत्मविश्वास भी पूरे वज़न के साथ दिखाता है.
लस्ट स्टोरीज औरत के भीतर का औरतपन दिखाती है. यह औरतपन, मर्दानगी के प्रचलित अर्थों का समानार्थी तो है, लेकिन किसी घमंड या ठसक से नहीं उपजा है. यह औरतपन उसके महान, त्यागी और पवित्र होने से भी नहीं आया बल्कि अपने आपको सहजता से लेने से आया है. कायदे से फिल्म ऐसा कुछ अनूठा नहीं दिखाती जो दुनिया में अब तक नहीं हुआ, लेकिन जो हुआ है और होता है, वही दिखाकर यह अनूठी हो जाती है. औरतों का ना समझ आने वाला जीव समझे जाने वाले हमारे समाज में हमें कई लस्ट स्टोरीज की जरूरत है, जिनके आने की उम्मीद भी यह फिल्म बंधाती है. इसके लिए फिलहाल नेटफ्लिक्स को शुक्रिया कहिए.
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