इस संग्रह की एक कविता ‘चमार होने से अच्छा है’ :
‘सुन पेपला! / चमार होने से अच्छा है / कुछ भी होना / चिड़िया होना / काग होना / तोता होना / कबूतर होना / भले ही सबकी नियति में हो / किसी का / शिकार होना / चाहे तो बलि का बकरा ही होना / कसाई का भैंसा ही होना / परन्तु चमार / कभी मत होना. / मौत का तय है / एक दिन / यूं तिल-तिल / रोज़ मरने से अच्छा है / एक दिन / समूचा मर जाना’
कविता संग्रह : पेपलो चमार
कवि : उम्मेद गोठवाल
प्रकाशक : वाणी
कीमत : 295 रुपये
दलित आज मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा जरूर बन गए हैं, लेकिन उनके बुनियादी मुद्दे अभी-भी मुख्यधारा के विमर्श से बहुत दूर हैं. बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि राजनीति के केन्द्र में आते-आते उनके मुद्दे राजनीति के शिकार हो गए हैं! दलितों की तकलीफें, जरूरत, गुस्सा, आक्रोश आदि को अभिव्यक्त करने वाले भी कहीं न कहीं राजनीति या फिर गुटबंदी के शिकार हुए हैं. लेकिन उम्मेद गोठवाल का यह कविता संग्रह बिना किसी गुटबंदी में फंसे, दलितों की पीड़ाओं को व्यक्त करती बेहद मार्मिक, प्रभावी और सशक्त कविताएं हम तक पहुंचाता है.
उम्मेद गोठवाल की ये कविताएं जिस पीड़ा, संत्रास, टूटन या अपमान को तीव्रता से महसूस करने के बाद लिखी गई हैं, लगभग उसी स्तर की तकलीफ ये पाठकों को भी महसूस करवाने में सफल होती हैं. अपने ही देश-समाज के लोगों से मिली इतनी घृणा, वैमनस्य और हीनता को स्वयं भोगने के बाद, कवि मनुष्य व्यवहार में इतनी अमानवीयता को ‘कपोल कल्पना’ कहता है! गोठवाल का यह अंदाज पूरी सामाजिक व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य है. कविता का यह विचार दलितों की प्रति क्रूरता के भाव को चरम पर ले जाने में सफल होता है और पाठकों पर गहरी चोट करता है. एक बानगी -
‘ये सब मिथकीय ही है / कि इस महान देश में / प्रकृति की सर्वोत्तम कृति / मानव को कभी / प्रवेश करते हुए / किसी नगर में / बजाना पड़ा हो ढोल / अपने गले में / बांधना पड़ा हो तगरा / कमर पर झाड़ू / कि जिसके थूकने से / कि जिसके क़दमों के निशान से / मैली ना हो जाये / ये पावन धरा / कि जहां सदियों से / मन्दिर के कंगूरे में ही / ढूंढ़नी पड़ी हो मुक्ति / सिर पर मैला / ढोते नर कंकाल / जहां आज भी / एक आबादी / करती है विचार / क्या इन्सान नहीं होता है / कोई चमार! / छोड़ो ये सब बातें / ऐसा भी कहीं होता है क्या / ये महज कल्पना है / कपोल कल्पना’
इन कविताओं की सबसे अच्छी बात यह है कि ये दलित शब्द का खोखले राजनीतिक नारे की तरह प्रयोग नहीं करतीं. बल्कि इसके उलट ये दलित जीवन के इतने मार्मिक चित्र खींचती हैं कि पढ़ने वाले के दिल में बहुत बार सिहरन पैदा हो जाए. एक तरफ ये कविताएं बेहद सादगी और भोलेपन से दलितों के नारकीय जीवन को परत-दर-परत उघाड़ती हैं. दूसरी तरफ उनमें जातिगत हीनता से निकलने और अपनी अस्मिता व आत्म सम्मान के लिए लड़ने और खड़े होने का जबरदस्त जज्बा भी पैदा करती हैं. इसी मिजाज की एक बेहद प्रभावी कविता है ‘जाति’. इस कविता की कुछ पंक्तियां -
‘जी, ज्ञानी जी! / आप में हो सकता है / जातीय गौरव, आप बता सकते हैं / अपनी जाति का / गर्वीला इतिहास / मेरी सदियां / रही हैं संघर्ष की / विद्रूपताओं की / इसी कारण / ज्ञानी जी! जब / बड़ी कुटिलता से / किसी सार्वजनिक सभा में / पूछ लिए जाने पर जाति / ख़ून सर्द हो जाता था / हलक से नहीं निकलती थी ज़बान, / सुनो ज्ञानी जी! / अब मैं जान गया हूं / मेरी सारी विद्रूपताएं / मेरी तमाम विसंगतियां / तुम्हारी ही साजिश थी / अब पूछना कभी / मेरी जाति / उसी वाहियात मुस्कान के साथ, / अब नहीं पड़ेगा मुझ पर घड़ों पानी / अब नहीं उखड़ेगी मेरी श्वास / खींचकर अपना सारा दम / चिल्लाकर कहूंगा / हां, / हां, मैं चमार हूं.’
इस संग्रह की कविताएं आरक्षण की बैसाखी के सहारे जीवनभर चलने को सहज जीवन न मानकर खुलकर चुनौती देते हुए कहती हैं कि जिसमें दम हो वह दलितों को सिर्फ जीवन की बुनियादी जरूरतें सौंप दे, वे उसी समय अपना आरक्षण लौटा देंगे. कवि यह बात कहते हुए लिखते हैं – ‘अपनी सदियों की / संचित पूंजी / तुम्हारी उच्चता / तुम्हारा धर्म / तुम्हारे देवता / सब पेपलो को सौंप दो / पेपलो भी आपको / खुद का आरक्षण सौंपता है.’
जिस देश में पशु, पक्षी और प्रकृति तक की पूजा अलग-अलग रूपों में होती है, उस महान देश में कैसे एक इंसान दूसरे इंसान के प्रति इतनी भयंकर अमानवीयता पाल सकता है. यह न सिर्फ आश्चर्य बल्कि शर्म का भी विषय है. उम्मेद गोठवाल अपनी कविताओं के माध्यम से ‘चमार’ को इंसान के रूप में स्थापित करने का बीड़ा सा उठाते दिखते हैं. वे अपनी कविताओं से सिर्फ द्रवित ही नहीं करते बल्कि समाज, सरकार, व्यवस्था, धर्म, ईश्वर, आदि सत्ता के मठों से कई स्तरों पर गहरे सवाल भी करते हैं. यहां तक कि उनकी नजर से वे दलित भी नहीं बचते, जो अवसर पाकर आर्थिक रूप से संपन्न होकर अपने ही दलित समाज से सवर्णों की तरह पेश आने लगते हैं. इसी भाव की बेहद सशक्त और शानदार कविता है ‘मजबूरी’ उसी की कुछ पंक्तियां -
‘तुम्हारे छुए बर्तनों को / अंगारों पर नहीं सेंका जाता अब / पढ़ने पर भी / नहीं डाला जाता / कानों में पिघला सीसा / तुम्हारी महिलाएं भी / फतुई छोड़ / पहन सकती हैं / कुरती-कांचली / अब नहीं मोली जातीं / लाख की चूंड़ियां / मुठ्ठी भर ज़मीं / टुकड़ा-भर आसमां / पाते ही कैसे / हो जाते हो उन्हीं जैसे / सदियों खड़े रहे / जिनके विरुद्ध /...जब कोई पुकारता है / चमार / कैसे तुम्हारे मुंह में / भर जाता है / खंखार, / वो खंखार / जिसे तुम ना / उगल सकते हो / ना / निगल सकते हो’
‘पेपलो चमार’ मूलतः राजस्थानी भाषा का पहला दलित काव्य-संग्रह है जो लेखक द्वारा हिन्दी में भी अनुदित किया गया है. संभवतः हिन्दी के दलित साहित्य में इतनी सशक्त कविताएं अभी तक सामने नहीं आई हैं. इस कविता संग्रह की लगभग सभी कविताएं पाठकों को द्रवित करती हैं, उद्वेलित करती हैं, गहरी टीस पैदा करती हैं और भीतर तक झिंझोड़ती हैं. दलितों की सदियों की पीड़ा को बेहद सूक्ष्मता से दर्ज करती ये बेहद संवेदी, सशक्त और सक्षम कविताएं हैं.
ये कविताएं न सिर्फ राजस्थानी बल्कि भारत की श्रेष्ठ दलित कविताओं में शामिल होने का प्रबल दावा पेश करने में समर्थ हैं. और हां, इन ‘दलित कविताओं’ में संवेदना की जबरदस्त ‘लय’ है, पेपलो का गढ़ा नया आकर्षक ‘शिल्प’ है, और ये ‘अनगढ़’ कतई नहीं हैं!
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