एक केंद्र शासित प्रदेश (दादरा नगर हवेली), दो राज्य (गुजरात, महाराष्ट्र), 312 गांव, 850 हेक्टेयर जमीन, पांच हजार से ज्यादा किसान परिवार और एक प्रोजेक्ट यानी बुलेट ट्रेन. बीते साल जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ मिलकर इस प्रोजेक्ट का उद्घाटन करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि बुलेट ट्रेन भारत को एक नई रफ्तार देगी. उनका यह भी कहना था कि यूरोप से लेकर चीन तक हाईस्पीड ट्रेनों ने अर्थव्यवस्था में एक अहम भूमिका निभाई है.

लेकिन अपनी शुरुआत से ही मोदी सरकार की यह महत्वाकांक्षी परियोजना चर्चाओं से ज्यादा विवादों में घिरी रही है. इसके ऐलान के बाद से ही कई सामाजिक और किसान संगठन - फिलहाल इसकी जरूरत, जापान से मिलने वाले कर्ज की ब्याज की दर और इसके लिए भूमि अधिग्रहण के तरीकों पर बड़े सवाल उठाते रहे हैं.

हम गुजरात के खेड़ा जिले के दावड़ा गांव में हैं. ग्रामीणों से हुई बातचीत से लगता है कि बुलेट ट्रेन के लिए सर्वे करने आए लोगों ने किसानों के दिलो-दिमाग में एक बात ठोक-ठोक कर बिठा दी है - चूंकि यह प्रोजेक्ट केंद्र सरकार का है इसलिए किसी के पास राजी-गैर राजी अपनी जमीनें देने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं है. इस बात से यहां के काश्तकार मानसिक तौर पर खासे हताश हैं.

ऐसे ही एक किसान हितेश भाई कहते हैं, ‘जब (सर्वे) फॉर्म भरने वाले आए थे तो मैंने उस पर दस्तख़त नहीं किए. लेकिन फिर भी मेरे खेत में बुलेट ट्रेन (रुट) के निशान लगा दिए गए हैं. पंचायत के पास जो नोटिस आया उसमें भी मेरा नाम था.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘मेरी जमीन पर हर साल तीन फसलें होती हैं. जमीन जाने के बाद मजदूरी करनी पड़ेगी. क्या करें, कुछ समझ भी नहीं आता. सरकार के सामने जाएंगे तो गोली चला देगी.’

हितेश भाई का आरोप है कि पहले बुलेट ट्रेन के रूट प्लान में एक विधायक और एक प्रभावशाली ट्रस्ट की जमीनें आ रही थीं जिन्हें बचाते हुए इस प्रोजेक्ट को उन जैसे किसानों के खेतों से गुजारा गया है. वे कहते हैं, ‘सरकार की नीयत में भी खोट है और नीति में भी.’

खेड़ा गांव के पंचायत भवन के बाहर साल भर कीचड़ जमा रहता है. अंदर पर्याप्त जगह न होने के चलते एक ही कमरा स्टोर रूम भी है और कंप्यूटर रूम भी. गांव वालों का कहना है कि उनके यहां से सवा लाख करोड़ के कर्ज़ से बुलेट ट्रेन जैसे सफेद हाथी का गुजारा जाना एक भद्दा मजाक है | फोटो : पुलकित भारद्वाज
खेड़ा गांव के पंचायत भवन के बाहर साल भर कीचड़ जमा रहता है. अंदर पर्याप्त जगह न होने के चलते एक ही कमरा स्टोर रूम भी है और कंप्यूटर रूम भी. गांव वालों का कहना है कि उनके यहां से सवा लाख करोड़ के कर्ज़ से बुलेट ट्रेन जैसे सफेद हाथी का गुजारा जाना एक भद्दा मजाक है | फोटो : पुलकित भारद्वाज

जमीन पर जाकर देखें तो बुलेट ट्रेन का रूट मैप कुछ इस तरह तैयार हुआ है कि यह अधिकतर खेतों के बीच से गुज़र रहा है. जानकारों का कहना है कि ट्रेन भले ही ऊपर से गुजरेगी लेकिन, उसके नीचे की जमीन को अन्य उद्देश्यों के लिए फेंसिंग (बाड़ाबंदी) द्वारा घेरा जाएगा. इसके चलते खेत दो समान या असमान भागों में बंट जाएंगे. लिहाजा किसानों को अपने ही खेत के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने के लिए एक लंबा रास्ता लेना पड़ेगा. इसलिए वे न तो एक साथ बुवाई कर पाएंगे और न ही सिंचाई, जुताई या कटाई. विशेषज्ञ बताते हैं कि ऐसा होने पर जहां बड़े किसानों की लागत डेढ़ से दोगुनी हो जाएगी वहीं छोटा किसान अपने खेत के एक हिस्से का इस्तेमाल ही नहीं कर पायेगा. यह बिल्कुल उस कहावत जैसा है कि - खाया सो खाया, पर फैलाया उससे कहीं ज्यादा. यानी जो जमीन गई सो गई, लेकिन उसकी वजह से बची जमीन भी बरबाद होगी, सो अलग.

दावड़ा के ही परेश भाई पटेल का खेत भी बुलेट ट्रेन के प्रस्तावित रूट में आता है. परेश भाई कहते हैं, ‘कुछ लोग इससे जुड़ी जानकारी लेने आए थे, तब हमें पता चला कि हमारी जमीन बुलेट ट्रेन के लिए चिन्हित की जा चुकी है.’ वे कहते हैं, ‘मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि मैं अपनी जमीन देना चाहता हूं या नहीं. सिर्फ फरमान सुना दिया. बुलेट ट्रेन खेत में से गुज़रेगी, समझ नहीं आता खेती कैसे करेंगे. मुझे मुआवजा नहीं चाहिए. पैसा तो थोड़े दिनों में ही खत्म हो जाएगा फिर कहां से खाएंगे. फॉर्म भरने वालों (सर्वेक्षकों) से मैंने कह दिया था कि या तो सरकार गांव के आस-पास ही मुझे पहले जितनी उपजाऊ जमीन उपलब्ध करवाए नहीं तो मैं अपनी जमीन नहीं दूंगा.’

हमारी मुलाकात दावड़ा के पूर्व सरपंच रतिभाई परमार से भी होती है. उनकी भी जमीन का बड़ा हिस्सा बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के तहत आ रहा है. रतिभाई कहते हैं, ‘जब हमने गांव वालों से इस बारे में चर्चा की तो सभी का दो टूक कहना था कि न तो हमें बुलेट ट्रेन की जरूरत है और न ही हम कभी उसमें बैठ पाएंगे. हमें अपनी जमीन नहीं देनी.’

वे आगे जोड़ते हैं, ‘यहां से हाईवे निकला, रेलवे लाइन निकली, फिर हाईवे का कई बार विस्तार हुआ. दो बार बीच में ओएनजीसी की लाइन गई फिर गैस के लिए पाइप लाइन गयी और अब बुलेट ट्रेन. हर बार किसानों से उनकी जमीन ली गई. अगर ऐसा ही चलता रहा तो गुजरात के ग्रामीण कहां रहेंगे और क्या खाएंगे? क्या यही विकास है?’

नाराज रतिभाई आगे कहते हैं, ‘सरकार अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए देश की अवाम को बुलेट ट्रेन का लॉलीपॉप दे रही है और कीमत हम से वसूलने की तैयारी में है.’ जमीन जाने के बाद परिवार पर बेरोजगारी का संकट मंडराने की बात करते हुए वे कहते हैं, ‘सरकार जमीन के बदले रोजगार थोड़े ही देती है. मेरे अपने घर में नर्सिंग किए हुए दो लड़के हैं, पूरे गांव में 50 से ज्यादा इंजीनियर हैं, लेकिन सब बेरोजगार हैं. उपज अच्छी होने की वजह से सभी खेत में हाथ बंटाकर गुजर लायक व्यवस्था तो कर लेते हैं. लेकिन जमीन जाने के बाद क्या करेंगे.’

रतिभाई के मुताबिक वे आस-पास के सत्तर गांवों से राजनैतिक और सामाजिक तौर पर जुड़े हुए हैं. उन गांवों के किसानों की मनोदशा का जिक्र करते हुए वे बताते हैं, ‘हमसे हुई मुलाकात में दो-तीन लोगों का तो कहना था कि यदि उनकी जमीन अधिग्रहीत की गई तो वे अधिकारियों के सामने ही पेट्रोल छिड़क कर आत्मदाह कर लेंगे. लेकिन जमीन नहीं देंगे.’

खेड़ा जिले के ही दंतिवाड़ा गांव से भी यह प्रोजेक्ट निकलना है. यहां के एक बुजुर्ग रमेश पटेल अपने खेतों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘पिछले एक सौ पांच साल से यह जमीन हमारे परिवार के पास है और मां की तरह हमारा और हमारे बच्चों का पोषण कर रही है और आगे भी करती रहेगी. आज तक हमने निजी कारणों से कभी खेत नहीं बेचा. लेकिन सरकार ने चार बार अलग-अलग कारणों से हमारी जमीन हम से ले ली और पांचवीं बार लेने की तैयारी में है.’

अपने खेत के बीचों-बीच बुलेट ट्रेन के प्रस्तावित रास्ते के चिह्नांकन को दिखाते रमेश पटेल | फोटो : पुलकित भारद्वाज
अपने खेत के बीचों-बीच बुलेट ट्रेन के प्रस्तावित रास्ते के चिह्नांकन को दिखाते रमेश पटेल | फोटो : पुलकित भारद्वाज

80 साल के रमेश पटेल का आरोप है कि परियोजनाओं के नाम पर जितनी भी जमीन दवाब बनाकर उनसे ली गई, सरकार ने उसका मोल कौड़ियों के भाव लगाया. वे कहते हैं, ‘हाइवे से सटी होने की वजह से हमारी जमीन की कीमत कहीं ज्यादा है. लेकिन सरकार अपना भाव दे रही है. इससे पहले जब अहमदाबाद-वड़ोदरा हाईवे का विस्तार हुआ तब हमारी सैंतालीस गुंठा (करीब दो बीघा) जमीन ले ली गई थी. तब भी सरकार ने अपना ही भाव दिया था. उस समय जंत्री (सरकारी रेट) के हिसाब से साढ़े बारह हजार प्रति गुंठा रुपए मिले जबकि बाजार में ढाई से तीन लाख गुंठा का भाव था.’ इस हिसाब से रमेश पटेल की मानें तो सिर्फ पिछले सौदे में ही उन्हें तकरीबन सवा करोड़ रुपए का नुकसान हुआ.

गुजरात में आखिरी बार जमीन के सरकारी भाव 2011 में संशोधित किए गए थे जो कि 2006 से बरकरार थे. लेकिन इसकी वजह से रजिस्ट्री और स्टांप ड्यूटी की दरों में जो बढ़ोतरी हुई उसे लेकर जमीन से जुड़े व्यवसाइयों, बड़े बिल्डरों और कई कॉरपोरेट घरानों में खासा असंतोष देखा गया. लिहाजा उन्होंने गुजरात सरकार पर दवाब बनाना शुरू कर दिया. जानकार बताते हैं कि इसी दबाव में गुजरात सरकार ने जंत्री (एनुअल स्टेटमेंट ऑफ रेट) के भाव फिर से कम कर दिए जो फिर कभी नहीं बढ़ाए गए.

भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (सीएजी) की मार्च-2018 की एक रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है कि 2011-12 के बाद से गुजरात सरकार ने जंत्री में कोई संशोधन नहीं किया है. अपनी इस रिपोर्ट में सीएजी ने गुजरात में जमीन की मौजूदा दरों को अव्यवहारिक माना. इस रिपोर्ट में कहा गया कि जंत्री में भाव कम होने की वजह से राजकोष को प्रतिवर्ष भारी घाटा हो रहा है. विश्लेषकों के अनुमान के मुताबिक प्रतिवर्ष पांच हजार करोड़ रु के हिसाब से यह आंकड़ा पिछले सात वर्षों में तकरीबन पैंतीस हजार करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है. इस नुकसान के मद्देनज़र गुजरात हाईकोर्ट भी प्रदेश सरकार को जंत्री संशोधित करने के निर्देश दे चुका है. लेकिन अभी तक स्थिति जस की तस है.

लंबे समय से भूमि अधिग्रहण के मामलों को देख रहे गुजरात के वरिष्ठ अधिवक्ता आनंद याग्निक गुजरात सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हैं. उनका कहना है कि इस प्रोजेक्ट में न सिर्फ किसान बल्कि जापान से भी छल किया जा रहा है. आनंद कहते हैं, ‘बुलेट ट्रेन के लिए ऋण देने से पहले जापान ने भारत के समक्ष कुछ शर्तें रखीं थीं जिनमें मानवाधिकारों और पर्यावरण की सुरक्षा पर विशेष जोर दिया गया था. दोनों देशों के बीच हुए समझौते में कहा गया था कि इस प्रोजेक्ट में संबधित सभी लोगों की भागीदारी और आजीविका सुनिश्चित करने के बाद ही उनकी जमीनें अधिग्रहीत की जाएं. लेकिन गुजरात सरकार ने बहुत ही शातिर तरीके से कानून में बदलाव कर किसानों को उनके हक़ से महरूम रखने की कोशिश की है.’

इस बारे में विस्तार से बात करते हुए वे आगे कहते हैं, ‘हमारे यहां भूमि अधिग्रहण का जो कानून था वो 1894 से चला आ रहा था. 1980 के बाद से सुप्रीम कोर्ट लगातार कहता रहा कि अंग्रेजों के इस कानून को विशेष परिस्थितियों में ही उपयोग लेना चाहिए. लेकिन भारत में केंद्र या राज्य सरकारों ने जमीन के भाव कभी कायदे से तय नहीं किए और उस कानून की आड़ में लाखों किसानों को उनकी रोजी-रोटी से बेदर कर दिया गया. तब कहीं 2013 में जाकर यूपीए सरकार ने लैंड एक्विजिशन रीहेबिलीटेशन एंड रीसेटलमेंट एक्ट (भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्‍थापन अधिनियम) पारित किया जिसे संक्षेप में भूमि अधिग्रहण अधिनियम-2013 भी कहा जाता है.’

इस अधिनियम में किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए कई प्रावधान तय किए गए. जैसे किसी बड़ी परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहीत करने के लिए उस गांव के 70 (सरकारी प्रोजेक्ट के लिए) और 80 (निजी प्रोजेक्ट के लिए) फीसदी निवासियों की सहमति लेनी जरूरी होगी. यह भी कि गांव वालों की सहमति मिलने के बाद सरकार को यह देखना होगा कि जमीन अधिग्रहण के बाद वहां के लोगों पर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि परिप्रेक्ष्य में क्या प्रभाव पड़ेगा. इस मूल्यांकन के बाद ही संबंधित लोगों के पुनर्वास या पुनर्स्थापन की योजना तैयार की जाएगी. नए कानून एक और प्रावधान था. अगर एक जनवरी 2014 के बाद किसी किसान की भूमि जो कि (नए या पुराने कानून के हिसाब से) अधिग्रहीत की गई, लेकिन पांच साल से ज्यादा वक़्त गुजरने के बाद भी वहां संबंधित परियोजना शुरू नहीं हई या जमीन मालिक को मुआवजा नहीं मिला तो अधिग्रहण स्वत: ही निरस्त माना जाएगा और जमीन फिर से मूल मालिक को लौटा दी जाएगी.

लेकिन केंद्र की सत्ता में आने के कुछ ही महीनों बाद मोदी सरकार ने व्यापारिक और औद्योगिक संस्थाओं की सलाह पर भूमि अधिग्रहण कानून - 2013 में संशोधन के प्रयास जोर-शोर से शुरु कर दिए. जानकार बताते हैं कि जितना यह कानून किसानों के हित में था, नियमों में पारदर्शिता की वजह से औद्योगिक घरानों के लिए उतना ही मुश्किलों भरा था. जानकारों के मुताबिक कॉरपोरेट्स के अलावा यह कानून मोदी सरकार की ‘स्मार्ट सिटी’ जैसी विकास परियोजनाओं के रास्ते में भी अवरोध पैदा कर रहा था. लिहाजा केंद्र सरकार ने दिसंबर-2014 में भूमि अधिग्रहण विधेयक (2013) में संशोधन से संबंधित पहला अध्यादेश लागू किया. इसके बाद तीन-तीन महीने के अंतराल से ऐसे ही दो अध्यादेश और लागू किए गए. बाद में सरकार ‘भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्‍थापन (संशोधन) विधेयक, 2015’ लाई. अपने सहयोगियों तक के तमाम विरोध के बावजूद सरकार ने इसे लोकसभा से भी पारित करवा लिया.

आनंद याग्निक कहते हैं, ‘इन अध्यादेशों और विधेयक में भूमि अधिग्रहण बिल (2013) के तीनों मुख्य प्रावधानों को दरकिनार करने की कोशिश की गई. यानी, सरकार की दलील थी कि भूमि अधिग्रहण के लिए गांव वालों की सहमति लेने की कोई जरूरत नहीं. अधिग्रहण के बाद मालिकों पर पड़ने वाले सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के मूल्यांकन की भी आवश्यकता नहीं. और चूंकि सरकारी योजनाओं में देर-सवेर होती रहती है, इसलिए जमीन का अधिकार भी मालिक को वापिस देने का औचित्य नहीं बनता.’

हालांकि भारी दबाव और बिहार विधानसभा चुनावों में किसान विरोधी छवि का नुकसान झेल चुकी मोदी सरकार ने 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले इस मामले से अपने पैर पीछे खींच लिए. सरकार ने अधिग्रहण के लिए कानून का काम राज्य सरकारों पर छोड़ दिया. चूंकि भूमि-अधिग्रहण समवर्ती सूची में है इसलिए राज्य सरकारें केंद्र के कानून में अपने हिसाब से बदलाव कर सकती हैं. जानकारों के मुताबिक केंद्र के कदम पीछे खींचने के पीछे सोच यह थी कि भाजपा शासित राज्य उसके द्वारा प्रस्तावित कानून के आधार पर ही आगे बढें. इसकी बानगी गुजरात और महाराष्ट्र में देखी गई.

आनंद याग्निक कहते हैं, ‘बुलेट ट्रेन पर जापान से समझौता (2015) होने के बाद गुजरात सरकार ने अगस्त-2016 में भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन कर दिया.’ इस नए कानून में उपरोक्त अध्यादेशों की ही भाषा दोहराई गई. इसमें कहा गया - जनहित को समर्पित किसी भी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण के वक़्त उसके मालिक से उसकी राय या इजाजत लेने की कोई जरूरत नहीं होगी, जबकि पूरे भारत में लोगों से उनकी जमीनें लेने से पहले पूछे जाने का प्रावधान है. इसके अलावा संशोधित अधिनियम में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव के मूल्यांकन के प्रावधान को भी दरकिनार कर दिया गया. इस तरह गुजरात सरकार ने अधिग्रहण के बाद की दूसरी जिम्मेदारियों से भी खुद को पूरी तरह मुक्त कर लिया.

गुजरात खेड़ुत (किसान) समाज के अध्यक्ष जयेश भाई पटेल कहते हैं, ‘राज्य द्वारा किए गए संशोधन आमतौर पर तभी स्वीकार्य होते हैं जब वे मुख्य कानून को पहले से बेहतर बनाते हैं. लेकिन गुजरात में भूमि अधिग्रहण कानून को अंग्रेजों के कानून से भी बदतर बना दिया गया. यह खुली अंधेरगिर्दी नहीं तो और क्या है?’

हमने ऊपर जिक्र किया था कि गुजरात में 2011-12 के बाद से जमीन के भाव संशोधित नहीं किए गए है. इस बारे में चर्चा करते हुए आनंद याग्निक बताते हैं कि कानूनन जिन क्षेत्रों में भूमि का अधिग्रहण होना हो वहां इससे संबंधित किसी भी तरह की प्रक्रिया शुरू करने से पहले जंत्री के भाव संशोधित किए जाने का प्रावधान है. इसकी जिम्मेदारी जिला कलेक्टर की होती है. लेकिन गुजरात में इसके बिना ही किसानों को अधिग्रहण सबंधी नोटिफिकेशन जारी कर दिए गए, जो अपने आप में कानून का उल्लंघन है. इसे लेकर आनंद याग्निक ने गुजरात हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की है.

प्रदेश सरकार द्वारा किसानों के साथ खिलवाड़ की यह कहानी सिर्फ गुजरात ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र में भी खुद को दोहराती दिखती है. वहां के भूमि पुत्र बचाओ आंदोलन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता शशि सोनवाणे कहते हैं कि महाराष्ट्र सरकार ने किसानों से उनकी जमीन लेने के लिए अधिग्रहण के बजाय जमीन मालिकों से सीधे मोल-भाव का प्रावधान तय किया ताकि वह भूमि अधिनियम -2013 की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त हो सके.

इसके जुड़े एक अन्य नकारात्मक पक्ष की बात करते हुए सोनवाणे कहते हैं, ‘मोल-भाव तब होता है जब एक व्यक्ति कोई वस्तु खरीदना चाहे और सामने वाला बेचना. लेकिन जब यहां के अधिकतर लोग अपनी जमीन बेचना ही नहीं चाहते तो मोल-भाव कैसे होगा.’ उनके शब्दों में ‘सीधे मोल-भाव के नाम पर साम, दाम, दंड, भेद हर तरह की नीति से उन किसानों का मनोबल तोड़ने की कोशिश की जा रही है जो अपनी जमीनें इस प्रोजेक्ट के लिए देने के लिए तैयार नहीं हैं.’ सोनवाणे आगे कहते हैं, ‘प्रशासन से जुड़े लोग किसानों को प्रलोभन या कहें कि धमकी दे रहे हैं कि जिन लोगों ने अपनी मर्जी से जमीन दे दी उन्हें 25 फीसदी ज्यादा मुआवजा मिलेगा. लेकिन जो लोग नहीं मानेंगे उनकी जमीनें रेलवे एक्ट के तहत जबरन ले ली जाएंगी. जबकि बुलेट ट्रेन में यह एक्ट लागू ही नहीं होता.’

आरोप लग रहे हैं कि बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के लिए जमीन अधिग्रहण सुनिश्चित करने के लिए केंद्र, प्रदेश सरकार ही नहीं बल्कि संवैधानिक पदों का भी दुरुपयोग करने से नहीं चूक रहा है. कई जानकार इसकी बानगी के तौर पर महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा जारी उस विवादित अध्यादेश का जिक्र करते हैं जिसमें पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम (पेसा) में बदलाव की बात कही गई है. आदिवासियों को उनके इलाके से बेदखल होने से रोकने और उनके सामूहिक हितों को ध्यान में रखते हुए 1996 में पेसा लागू किया गया था. इसके तहत आदिवासी बहुल गांवों में जमीनें अधिग्रहीत करने के लिए उनकी ग्रामसभाओं की अनुमति आवश्यक तय कर दी थी.

लेकिन जब बुलेट ट्रेन के प्रस्तावित रुट से जुड़े अधिकतर आदिवासी बाहुल गांव जो कि महाराष्ट्र के पालघर जिले में स्थित हैं, इस प्रोजेक्ट को लेकर अपना विरोध दर्ज करवाने लगे तो महाराष्ट्र के राज्यपाल ने बीते नवंबर में एक अध्यादेश जारी किया जिसमें भूमि अधिग्रहण के लिए इन ग्राम पंचायतों की अनुमति को गैरज़रूरी घोषित कर दिया गया. प्रदेश के जनजाति संगठनों का कहना है कि इस आदेश के जरिए राज्यपाल ने उन आदिवासियों के विरोध को भी दबाने की कोशिश की जो मुंबई-नागपुर एक्सप्रेस-वे के लिए जमीन अधिग्रहण से नाराज थे.

आदिवासी एकता परिषद के प्रवक्ता राजू पाठां इस अध्यादेश पर सवाल खड़ा करते हैं. वे कहते हैं, ‘राज्यपाल को पेसा के सरंक्षक की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, ताकि इस अधिनियम को कोई कमजोर न कर सके. लेकिन महाराष्ट्र में उल्टा हो रहा है.’ राजू पांठा आगे कहते हैं, ‘यह अध्यादेश इसलिए भी अवैधानिक है कि प्रावधान के मुताबिक यह पहले अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग के पास भेजा जाना चाहिए था, जहां से इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता और उनकी मंजूरी के बाद ही यह लागू माना जाता अन्यथा नहीं. लेकिन महाराष्ट्र में ऐसा नहीं हुआ.’

शशि सोनवाणे कहते हैं कि मानवाधिकारों का ही नहीं, बल्कि केंद्र सरकार ने बुलेट ट्रेन समझौते के तहत जापान से जो पर्यावरण संबंधी अनुबंध किए थे उनका भी जमकर मखौल बनाया जा रहा है. वे कहते हैं, ‘जापान इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन एजेंसी (जिका) की गाइडलाइन के बावजूद बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट को लेकर अभी तक पर्यावरण संबंधी कोई समीक्षा नहीं की गई है. भारत में बुलेट ट्रेन की सरंक्षक एजेंसी नेशनल हाईस्पीड रेल कॉरपोरेशन लिमिटेड (एनएचएसआरएल) ने पहले जो रिपोर्ट तैयार की वो सिर्फ खानापूर्ति के लिए थी. भारी विरोध के बाद एनएचएसआरएल ने दूसरी रिपोर्ट तैयार करने की बात कही. लेकिन अभी तक उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया है.’

सोनवाणे आगे कहते हैं, ‘एनएचएसआरएल ने प्रशासनिक अधिकारियों के साथ पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, जिका के अधिकारियों और किसानों को बुलेट ट्रेन की वजह से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों पर चर्चा के लिए बुलाया था. लेकिन जब तक यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं होगी हम इस प्रोजेक्ट के चलते पर्यावरण को पहुंचने वाली क्षति (कितने पेड़ कटेंगे, कितने तालाब बरबाद होंगे, कितनी नदियों का प्रवाह और कितना खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा) का आकलन कैसे कर सकते हैं? और फिर किस आधार पर हम सलाह-मशविरा करेंगे?’

सोनवाणे के मुताबिक इस चर्चा के बिना ही बुलेट ट्रेन के लिए किसानों को भूमि अधिग्रहण संबंधित नोटिस जारी करना दिखाता है कि एनएचएसआरएल और दोनों प्रदेशों की सरकारें यह तय कर चुकी हैं कि जो रास्ता उन्होंने बुलेट ट्रेन के लिए चुना है, पर्यावरण के हिसाब से वही सर्वोत्तम है. वे कहते हैं, ‘इस तरह की हरकतें दिखाती हैं कि हमारे यहां किसान, आदिवासी, ग्रामीण, खेतिहर मजदूर और पर्यावरण को लेकर कितनी संजीदगी बरती जाती है! सरकार चाहे तो अपनी आंखें इनकी तरफ से बंद कर सकती है. लेकिन हम आखिरी दम तक सरकार की इस ढिठाई के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखेंगे.’