‘आतंरिक अशांति’ के आधार पर इंदिरा गांधी सरकार द्वारा देश में आपातकाल लगाने को लेकर 43 साल बाद भी राजनीतिक दलों के बीच जुबानी जंग जारी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को एक मुंबई में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कहा, ‘‘देश ने कभी नहीं सोचा था कि सत्ता का लालच और एक परिवार की चापलूसी में देश को एक जेल में तब्दील कर दिया जाएगा.’ उन्होंने आगे कहा कि जिन लोगों ने संविधान को कुचला और देश को लोकतंत्र को कैदी बनाया, वे आज डर फैला रहे हैं कि मोदी संविधान में दखलंदाजी कर रहे हैं. इसके अलावा भाजपा नेता अरुण जेटली ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तुलना जर्मनी के तानाशाह शासक हिटलर से की.
उधर, कांग्रेस ने भी इस पर पलटवार किया है. पार्टी राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुगल शासक औरंगजेब से अधिक क्रूर तानाशाह बताया. इसके अलावा वरिष्ठ नेता और सोनिया गांधी के रणनीतिक सलाहकार माने जाने वाले अहमद पटेल ने भी ट्वीट कर कहा, ‘चार साल बाद भाजपा को 2019 में चुनाव हारने के डर परेशान कर रहा है, इसलिए वह 1975 के आपातकाल की घटनाओं का सहारा लेने की कोशिश कर रही है. लेकिन सच तो यह है कि 1977 के बाद इंदिरा जी ने माफी मांग ली थी, अपनी गलती सुधारी थी और जनता ने उनके पक्ष में मतदान किया था.’
इससे पहले बीती 25 जून को आपातकाल के वर्षगांठ के मौके पर कांग्रेस ने इस संबंध में एक तस्वीर ट्वीट की थी. इसमें इस बात का जिक्र किया गया था कि 24 जनवरी, 1978 को महाराष्ट्र के यवतमाल में इंदिरा गांधी ने आपातकाल के लिए देश से माफी मांगी थी. इस तस्वीर के मुताबिक इंदिरा गांधी ने कहा था, ‘यदि दूसरे लोग जो आपातकाल के दौरान हुई गलतियों के लिए दोषी हैं, वे इनकी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है तो मैं उन गलतियों की भी जिम्मेदारी लूंगी.’
सवाल उठता है कि क्या इस बयान को इंदिरा गांधी की माफी माना जा सकता है. यवतमाल की जिस रैली का जिक्र कांग्रेस ने अपने ट्वीट में किया है, उस रैली में इंदिरा गांधी के पूरे भाषण को देखें तो यह कहीं नहीं दिखता कि उन्होंने आपातकाल के लिए देश से माफी मांगी हो. बल्कि उन्होंने तो आपातकाल को जरूरी कदम ठहराने की कोशिश की थी.
40 साल पहले छपी द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक इंदिरा गांधी ने यवतमाल की रैली में जनता को उन दिनों की याद दिलाने की कोशिश की थी जिनकी वजह से उन्हें आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी. उन्होंने कहा था, ‘चारों ओर (पूरे देश में) अराजकता की स्थिति थी. यदि इसे जारी रहने दिया जाता तो जिस तरह की परिस्थितियां (मुक्ति संग्राम के दौरान) बांग्लादेश में पैदा हुई थीं उन्हें भारत में भी दोहराया जा सकता था.’
इसके साथ उन्होंने कहा था, ‘आपातकाल लगाने से ठीक पहले बहुत गंभीर स्थिति थी और देश के अस्तित्व को भी खतरा था. अलग-अलग राजनीतिक दलों द्वारा विरोध प्रदर्शन सड़कों पर पहुंच चुका था जिनकी सीधी टक्कर एक चुनी हुई सरकार से थी.’ इंदिरा गांधी ने आपातकाल को बीमारी का इलाज करने के लिए कड़वी दवा जैसा भी कहा था. हालांकि, वे इस पर सहमत थीं कि यह सुखद नहीं था. इसके आगे इंदिरा गांधी ने यह भी कहा था, ‘जनता हमारी गलतियों के लिए हमसे नाराज थी. हमने उसके जनादेश (1977 में कांग्रेस पार्टी की हार) को स्वीकार किया.’
यवतमाल की रैली से एक दिन पहले यानी 23 जनवरी, 1978 को इंदिरा गांधी ने महाराष्ट्र के ही नागपुर, वर्धा, चंद्रपुर और भंडारा में रैलियां की थीं. इनमें भी उन्होंन आपातकाल के फैसले को सही ठहराने की कोशिश की थी. उनका कहना था कि आपातकाल में कुछ कदम उठाए गए थे और इस दौरान कइयों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आपातकाल के दौरान कुछ हासिल नहीं हुआ. इंदिरा गांधी का दावा था कि करीब दो साल के आपातकाल के दौरान औद्योगिक और कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी हुई. साथ ही, देश समाजवाद की दिशा में भी आगे बढ़ा जो कुछ पूंजीवादी और सांप्रदायिक राजनीतिक दलों को पसंद नहीं आया.
इस तरह महाराष्ट्र की इन रैलियों में इंदिरा गांधी द्वारा कही गईं बातों से साफ दिखता है कि उन्होंने कांग्रेस के दावे के उलट सीधे तौर पर आपातकाल के लिए जनता से माफी नहीं मांगी थी. इसके बजाय पूर्व प्रधानमंत्री ने भारतीय लोकतंत्र के लिए कलंक माने जाने वाले इस फैसले को सही ठहराने की भरसक कोशिश की थी. 26 जनवरी, 1975 की सुबह आकाशवाणी पर उन्होंने आपातकाल की वजह देश में ‘आंतरिक अशांति’ बताई थी. इस बात पर वे बाद के दिनों में भी कायम दिखीं.
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