कुछ नाम हैं, कुछ कयास हैं, एक तर्क है और एक किस्सा है. पहले नामों की चर्चा करते हैं. मनोहर लाल खट्टर, योगी आदित्यनाथ, विजय रूपाणी और रामनाथ कोविंद. ये सभी वे लोग हैं जिन्हें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी संभावित संभावनाओं से परे जाकर किसी न किसी महत्वपूर्ण या अतिमहत्वपूर्ण पद की जिम्मेदारी सौंपने का निर्णय लिया. अब इस सूची में मदनलाल सैनी का भी नाम जुड़ गया है. यहां बात इन नेताओं के राजनैतिक कद की नहीं है, बात है पार्टी हाईकमान के खास अंदाज की. इस शुक्रवार तमाम अनुमानों को धता साबित करते हुए मदनलाल सैनी को राजस्थान भाजपा के नए प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर चुन लिया गया है.
यह पद पिछले करीब ढाई महीने से खाली पड़ा था. मदनलाल सैनी से पहले इस पद पर अशोक परनामी कार्यरत थे जिन्हें राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया का विश्वस्त माना जाता था. इस साल हुए दो महत्वपूर्ण लोकसभा और एक विधानसभा उपचुनाव में पार्टी की हार के बाद परनामी ने अप्रैल में पद से इस्तीफा दे दिया था. जानकारों के मुताबिक इसके बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपने पसंदीदा चेहरे और केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को इस पद के लिए आगे किया लेकिन राजे ने इस नाम पर वीटो लगा दिया. इसके बाद पार्टी प्रदेशाध्यक्ष को लेकर दोनों पक्षों में विवाद बढ़ता चला गया. इस पद को लेकर एक पक्ष ने जिस नाम का पत्ता खोला दूसरे ने उसे बंद करने में देर नहीं लगाई. जानकार मान रहे हैं कि अब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करीब एक सप्ताह बाद राजस्थान आने की तैयारी में हैं तो आपसी सहमति से मदन लाल सैनी की आड़ में पार्टी की लाज ढकी रखने की कोशिश की गई है.
मदनलाल सैनी कौन हैं?
उम्र करीब 75 वर्ष. माली समुदाय से आते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों से पुराना रिश्ता रहा है. मूलत: सीकर से ताल्लुक रखते हैं लेकिन कर्मभूमि के तौर पर नजदीकी जिले झुंझनू को चुना. बीस वर्षों से भाजपा की अनुशासन समिति का काम देख रहे हैं. प्रत्यक्ष चुनावी जीत के तौर पर 90 के दशक में विधायक बने. 2008 में फिर से झुंझनू की उसी माली समुदाय बहुल सीट से विधायक बनने की कोशिश में जमानत जब्त करवा बैठे. इसी दौरान दो लोकसभा चुनाव भी हारे. दो महीने पहले संगठन का वरिष्ठ सिपाही होने का फायदा मिला और भाजपा की सीट पर राज्यसभा पहुंचे.
मदनलाल सैनी प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता और पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम माथुर के खास माने जाते हैं. इनके व्यक्तित्व और संगठन के लिए समर्पण को सिर्फ एक पंक्ति से समझा जा सकता है- जैसे कोई अनुशासित फौजी. बताया जाता है कि सैनी के नाम पर वसुंधरा राजे इसलिए राजी हुईं क्योंकि उनकी उम्र बहुत ज्यादा है और प्रदेश में स्वीकार्यता कम, ऐसे में राजे को उनसे किसी खतरे की बू कम ही आती है.
सीधे तौर पर जुड़े लोगों पर क्या प्रभाव?
जाहिर सी बात है किसी भी बड़े राजनैतिक निर्णय से या तो कोई पक्ष खुश होता है या फिर निराश. लेकिन राजस्थान के राजनीतिकारों से बात कर लगता है कि इस मामले से जुड़े लगभग सभी लोग थोड़े खुश हैं और थोड़े निराश. सबसे पहले प्रदेश की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की ही बात करते हैं. सूत्रों के मुताबिक वे खुश इसलिए हैं कि उन्होंने अमित शाह की पसंद के नेता को प्रदेशाध्यक्ष नहीं बनने दिया और निराश इसलिए कि उनका भी भरोसेमंद कोई नेता इस पद पर नहीं बैठ पाया. मोटे तौर पर अमित शाह की स्थिति भी यही है, लेकिन उनकी बात बात में.
मदनलाल सैनी के लिहाज से देखें तो वे खुश इसलिए हैं कि उम्र के इस पड़ाव पर बिना किसी बड़ी राजनैतिक उपलब्धि के उन्हें यह मुकाम मिला और निराश इसलिए कि जनता के रुझान को देखते हुए अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा के जीतने की संभावना कम है. ऐसे में उन्हें राजनीति से सम्मानजनक सेवानिवृति का मौका शायद ही मिले.
गजेंद्र सिंह शेखावत निराश इसलिए हैं कि पार्टी आलाकमान ने खुद ही उन्हें प्रोजेक्ट किया और वही उन्हें ढंग से संबल नहीं दे पाया. पर वे खुश इसलिए हो सकते हैं कि अब वे आलाकमान की जिम्मेदारी हैं और जल्द ही उन्हें कोई बड़ा पद मिलने की संभावना है ताकि राष्ट्रीय स्तर पर संगठन के कार्यकर्ताओं और नेताओं में यह संदेश दिया जा सके कि यदि शीर्ष नेतृत्व किसी को दांव पर लगाकर बाजी हार जाता है तो उसे सांत्वना के तौर पर बेहतरीन पुरस्कार मिलना तय है. राजनीतिकारों की मानें तो ऐसा होने पर देशभर के ‘सेकंड लाइन’ के भाजपा नेता सिर्फ यही दुआ करेंगे कि कब अमित शाह की कृपा दृष्टि उन पर पड़े और कब वे उन्हें हारने वाली बाजी का मोहरा बनाएं.
इस निर्णय से प्रभावित होने वाले नेताओं में एक नाम और जो सामने आया वह है प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव अशोक गहलोत का. वे और मदनलाल सैनी एक ही समाज से नाता रखते हैं. गहलोत इस बात को लेकर खुश हो सकते हैं कि भाजपा के इस निर्णय ने खुद यह बात पुख्ता कर दी है कि वह गहलोत को लेकर असुरक्षित महसूस करता है और राजस्थान में उनके प्रभाव को कम करना चाहता है. दरअसल भाजपा प्रदेशाध्यक्ष के लिए पहले जिन गजेंद्र सिंह का नाम सामने आया था वे (राजनैतिक तौर पर) गहलोत के गृहजिले जोधपुर से ताल्लुक रखते थे और मदनलाल सैनी उनके समाज से.
इसके अलावा अशोक गहलोत कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान में इस बात का भी फायदा उठाने से नहीं चूकेंगे कि यदि अगले विधानसभा चुनाव में उन्हें पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद के लिए आगे नहीं बढ़ाया गया तो प्रदेश में तेजी से निर्णायक भूमिका में उभर रहा माली वोटर छिटककर भाजपा की तरफ जा सकता है. उनके निराश होने की कोई विशेष वजह विश्लेषकों को नज़र नहीं आती सिवाय इसे छोड़ कि यदि भाजपा सच में उनका प्रभाव कम करना चाहती थी तो किसी मजबूत नाम को आगे बढ़ाती जिससे टक्कर लेने में उन्हें भी मजा आता.
कुछ कयास
गजेंद्र सिंह शेखावत की जगह मदनलाल सैनी को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बनाने पर राजस्थान में कुछ जानकार मानकर चल रहे हैं कि राजपूतों को मनाने का आखिरी मौका भाजपा ने खो दिया. पहले जयपुर राजघराने से ताल्लुक रखने वाली विधायक दीया कुमारी के होटल में प्रशासन द्वारा तोड़-फोड़, फिर गैंगस्टर आनंदपाल का एनकाउंटर, फिर पद्मावत विवाद (हालांकि इस मामले में समाज की सीधे तौर पर भाजपा से नाराजगी नहीं थी) और अब प्रदेशाध्यक्ष पद को लेकर गजेंद्र सिंह शेखावत के साथ एक तरह से जो खिलवाड़ हुआ है उसे समाज के अधिकतर लोग अपने अपमान के तौर पर देख रहे हैं. ऐसे में विधानसभा चुनाव-2018 में पार्टी का कोर वोटर माने जाने वाले इस समाज के बड़े हिस्से का भाजपा से मोहभंग होना तय माना जा रहा है.
कुछ विश्लेषकों का यह भी कहना है कि जब राजपूतों को नाराज करना ही था तो किसी जाट नेता-जो कि वसुंधरा राजे की पसंद थे, को ही प्रदेशाध्यक्ष बना दिया जाता ताकि समाज के बंटे हुए वोटों को अपनी तरफ लाने में भाजपा को थोड़ी मदद और मिलती. हालांकि कुछ जानकार इससे विपरीत राय भी रखते हैं. उनके मुताबिक हाईकमान ने मदनलाल सैनी को अध्यक्ष बनाकर ठीक ही किया क्योंकि जाट या किसी अन्य प्रभावशाली कौम से ताल्लुक रखने वाले नेता को यह जिम्मेदारी सौंपने पर शेष प्रभावशाली समुदाय जहां इस बात से प्रतिद्वंदिता महसूस करते वहीं पिछड़े तबकों के लोग असुरक्षित. लेकिन माली समुदाय से होने की वजह से यदि मदनलाल सैनी की कोई अपील नहीं है तो एंटी अपील भी नहीं है.
वहीं कुछ राजनीतिकारों का मानना है कि चूंकि भाजपा में पहले से ही प्रदेश युवा मोर्चा और यूथ बोर्ड के अध्यक्ष सैनी समाज से ताल्लुक रखते हैं इसलिए ओबीसी वर्ग को ज्यादा से ज्यादा साधने के लिए भाजपा को इसी वर्ग के किसी अन्य समुदाय (जैसे कुमावत) के नेता पर दांव खेलना चाहिए था. इसके अलावा ये कयास भी लगाए जा रहे हैं कि राजस्थान में जल्द ही उत्तर प्रदेश की तरह एक चुनाव कमेटी तय कर दी जाएगी. और चूंकि वसुंधरा राजे, प्रदेशाध्यक्ष मामले में पहले ही अपना वीटो इस्तेमाल कर चुकी हैं इसलिए आलाकमान बिना उनकी ना-नुकुर की चिंता के इस कमेटी में अपनी पसंद के लोगों को लेकर प्रदेश संगठन में नई जान फूंकने की कोशिश कर सकता है.
हमने ऊपर अमित शाह से जुड़ी बात अधूरी छोड़ी थी. पिछले साल गुजरात की तीन सीटों पर हुए राज्यसभा चुनाव को याद कीजिए जब अमित शाह ने तीन में से दो सीटों को जीतने के बजाय कांग्रेस के एक अहमद पटेल को हराने में जान लगा दी थी. भाजपा दो सीटें तो जीत गई, लेकिन अहमद पटेल को नहीं हरा पाई. अब, गुजरात के विधानसभा चुनावों को याद करें जब अमित शाह ने कांग्रेस को हराने की बात कभी नहीं की. बल्कि वे बार-बार भाजपा की 150 सीटें आने के दावे को जोर-शोर से दोहराते रहे. हालांकि भाजपा यह चुनाव भी जीत तो गई थी. लेकिन सौ के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाई. अब बात राजस्थान की. पार्टी प्रदेशाध्यक्ष मामले में यह मुद्दा तो कभी रहा ही नहीं कि इस पद पर वसुंधरा राजे का कोई करीबी बैठेगा या नहीं, बात तो गजेंद्र सिंह शेखावत को ही अध्यक्ष बनाने की थी. लेकिन अमित शाह यहां भी नाकाम रहे. इस बात को यहां एक बार फिर अधूरा छोड़ते हैं.
रिपोर्ट की शुरुआत में हमने एक तर्क का भी जिक्र किया था. तर्क खुद भाजपा का है और राजस्थान के गौरवमयी इतिहास से जुड़ा है. पार्टी का मानना है कि हल्दीघाटी के युद्ध में दिल्ली के बादशाह अकबर राजस्थान के राणा प्रताप से पराजित हुए थे. क्योंकि अकबर का लक्ष्य युद्ध जीतना नहीं बल्कि प्रताप को जिंदा या मुर्दा पकड़ना था और चूंकि वे इसमें कामयाब नहीं हुए इसलिए सैद्धांतिक तौर पर हारे हुए माने गए. अब आप भाजपा की ही इस दलील को उसके शाह यानी अमित शाह पर (उपरोक्त संदर्भों में) लागू कर रिपोर्ट में उनसे जुड़ी चर्चा को पूरा कर सकते हैं.
चलते-चलते एक किस्से की भी बात कर लेते हैं. आपने पुरानी फिल्मों में अक्सर देखा होगा कि दो छोटे बच्चे पक्के दोस्त होते हैं. फिर बड़े होकर दोनों की राहें बिल्कुल जुदा हो जाती हैं. और फिर मौका आने पर एक, दूसरे को संभालता है. सूबे के शेखावाटी इलाके (सीकर-झुंझनू) की राजनीति से जुड़े यशवर्धन सिंह शेखावत बताते हैं कि लंगोटिया यारी के जीते-जागते उदाहरण के तौर पर भाजपा के वरिष्ठ नेता रह चुके घनश्याम तिवाड़ी और सैनी की जोड़ी को लिया जा सकता है. अजीब इत्तेफाक है कि जब मदनलाल सैनी राजनीति के समुद्र में संघर्ष कर रहे थे तो घनश्याम तिवाड़ी कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रहे थे. और अब, जब घनश्याम तिवाड़ी को इसी सप्ताह मजबूरन भाजपा का दामन छोड़ना पड़ा तो मदनलाल सैनी को प्रदेश संगठन का सबसे महत्वपूर्ण पद मिला है. अब देखने वाली बात होगी कि मदनलाल सैनी अपने बचपन के दोस्त घनश्याम तिवाड़ी को कितना संभाल पाते हैं.
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