भारत में यह दौर अजीबोग़रीब क़िस्म के विवादों का है. पहले इस बात पर विवाद हुआ कि शशि थरूर ने यह क्यों कहा कि अगर भाजपा के राज में भारत ‘हिंदू पाकिस्तान’ बन जाएगा. अब एक विवाद मुस्लिम बुद्धिजीवियों की एक बैठक में राहुल गांधी के इस कथित बयान पर हुआ है कि कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है. हालांकि कांग्रेस और उस बैठक में मौजूद कई बुद्धिजीवी इस बात से इंकार करते हैं कि राहुल गांधी ने ऐसा कुछ कहा था.

इन मुद्दों पर बवाल की एक वजह तो यह है कि आजकल की राजनीति में किसी भी बात का सिर-पैर तोड़कर, उसे संदर्भ से काटकर बवाल पैदा करने का चलन है. इसमें सभी पार्टियां एक जैसी हैं. दूसरी एक बड़ी समस्या यह है कि ज़्यादातर राजनैतिक पार्टियों और नेताओं को गंभीर विचारों से बचने की आदत है क्योंकि अगर गंभीर और जटिल बातों में उलझा जाए तो समुदायों और लोगों को काले सफ़ेद में बांटने की सुविधा ख़त्म हो जाएगी.

शशि थरूर और राहुल गांधी की अपनी समस्या यह है कि दोनों अभिजात वर्ग से आते हैं और देश के व्यापक जनसमुदायों से संवाद कैसे किया जाए या वे जो कह रहे हैं उसका इस्तेमाल विरोधी कैसे कर सकते हैं, यह वे नहीं जानते. देसी स्तर पर संवाद का कौशल उनमें नहीं है. यह समस्या कांग्रेस के समूचे शीर्ष नेतृत्व की है और कांग्रेस के पतन की एक बड़ी वजह यह भी है.

धर्मनिरपेक्ष होना या अल्पसंख्यक हितों का ख़्याल रखना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन संवाद करने की अपनी अक्षमता की वजह से कांग्रेस ऐसे मुद्दों पर रक्षात्मक नजर आती है, या बहुसंख्यकों का तुष्टिकरण करने के लिए ‘सॉफ़्ट हिंदुत्व’ का सहारा लेती दिखती है. महात्मा गांधी कभी किसी मंदिर में नहीं गए लेकिन देश के करोड़ों लोगों की नजर में वे महात्मा और तमाम घोषित हिंदुवादियों से ज्यादा हिंदू थे. उन्हें न कभी अपना हिंदू होना जताना पड़ा, न ही अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए रक्षात्मक और ढुलमुल होना पड़ा.

धर्म के आधार पर लोगों में भेद करना उतना ही बुरा है जितना नस्लवाद या रंगभेद. अगर कई मुस्लिम देशों में ऐसा होता है, तो यह कोई अच्छी बात नहीं है और हमें इसकी नक़ल नहीं करनी चाहिए. दूसरों की अच्छी बातें ग्रहण करना अच्छी बात है और बुरी बात ग्रहण करना बुरी. जबकि हमारे देश के ज़्यादातर हिंदुत्ववादियों का तर्क यही होता है कि मुस्लिम देशों में अल्पसंख्यक समुदायों के साथ ऐसा व्यवहार होता है तो हम क्यों अल्पसंख्यकों के साथ बराबरी का व्यवहार करें.

क़ायदे से बतौर भारतीय और बतौर हिंदू हमें सऊदी अरब में या पाकिस्तान में क्या हो रहा है, इसके बजाय इस बात से मतलब होना चाहिए कि हमारे देश और हमारे धर्म में एक दलित को घोड़ी चढ़ कर बारात निकालने के लिए छह महीने की जद्दोजहद और ढेर सारे पुलिस बंदोबस्त की जरूरत होती है. हमारे देश और धर्म का भविष्य इस बात से तय होगा. सऊदी अरब में क्या होता है, इससे नहीं.

अगर आप तमाम हिंदुत्ववादियों नेताओं की टिप्पणियां देखें तो लगभग सारी की सारी मुसलमानों और पाकिस्तान के बारे में होती हैं. वरिष्ठ पत्रकार आकार पटेल ने एक लेख इसी विषय पर लिखा था कि उन्होनें ट्विटर पर एक महीने तक एक विश्व हिंदू परिषद के नेता को फ़ॉलो किया. उन्होंने उस एक महीने में उस नेता की सारी टिप्पणियों को तारीखवार लिखा जिनमें से सारी टिप्पणियां मुसलमानों के बारे में थीं. उन्होंने लिखा कि इन्हें विश्व हिंदू परिषद के नेता क्यों कहा जाता है जबकि वे हिंदुओं के बारे में कुछ लिखते ही नहीं हैं. अगर ऐसे नेता देश पर राज करने लगे तो उनका आदर्श पाकिस्तान या ऐसे मुल्क ही होंगे.

जब पाकिस्तान बनाया गया तो उसे बनाने वालों के दिमाग़ में क्या विचार था कि वे कैसा पाकिस्तान बनाएंगे, या कोई विचार था भी या नहीं ? पाकिस्तान समर्थक मुस्लिम अभिजात वर्ग को एक ऐसा देश चाहिए था जहां उनके विशेषाधिकार सुरक्षित रहें. अल्लामा इक़बाल जैसे लोग ऐसा देश चाहते थे जहां शुरुआती इस्लाम की पवित्रता और समानता बरक़रार रहे. जिन्ना एक आधुनिक लोकतांत्रिक देश चाहते थे, उनके लिए इस्लाम सिर्फ़ एक नया देश और उसकी सत्ता पाने का ज़रिया था. कट्टरवादी कट्टर इस्लामी क़ानूनों और रिवायतों पर आधारित देश चाहते थे.

चूंकि सबके उद्देश्य बिखरे हुए थे, इसलिए किसी ने यह नहीं साफ़ किया आज़ादी के बाद किस तरीक़े से देश की व्यवस्था गढ़ी जाएगी. आज़ादी के बाद कई साल तक पाकिस्तान इसीलिए बिना किसी नक़्शे के उथलपुथल से गुज़रता रहा. चूंकि अविभाजित भारत के मुस्लिमों को अपने साथ जोड़ने के लिए धर्म का सहारा लिया गया था इसलिए धीरे धीरे कट्टरपंथी धार्मिक ताक़तों ने फ़ौज का सहारा लेकर अपना वर्चस्व बना लिया. आज़ादी के 70 साल बाद भी पाकिस्तान अस्थिर ही बना हुआ है.

इसी तरह जो लोग हिंदुत्ववादी हैं, वे भी कई तरह के हैं. एक ओर संघ है जो सबसे ज्यादा प्रभावशाली और मज़बूत संगठन है जो पुनरुत्थानवादी है, जिसे भारत की प्राचीन गरिमा फिर से प्राप्त करनी है. बुनियादी तौर पर उसे आधुनिक लोकतंत्र पर यकीन नहीं है. वह भारतीय क़िस्म की राज्य व्यवस्था चाहता है जिसका कोई नक़्शा उसके पास नहीं है, लेकिन राजनीति से लगातार संपर्क की वजह से वह थोड़ा व्यावहारिक हुआ है. दूसरी ओर सावरकर का हिंदुत्व है जिनके लिए हिंदुत्व एक विचारधारा या राष्ट्रीयता है जिसके सहारे वे एक आधुनिक, सैन्य शक्ति आधारित व्यवस्था चाहते हैं. सावरकर क़तई धार्मिक व्यक्ति नहीं थे और उनका धर्म के रीति-रिवाजों व विश्वासों से कोई लगाव नहीं था. तीसरी ओर तरह तरह के साधु-संत और उनके मठ, अखाड़े हैं जो घोर पुरातनपंथी हैं.

चूंकि हिंदू समाज के बारे में इनमें तरह तरह के विचार हैं इसलिए वे उन्हें सतह पर लाने से बचते हैं. जैसे संघ ज़ाहिर तौर पर मानता है कि जातिगत भेदभाव से हिंदू समाज का नुक़सान हुआ. लेकिन जहां दलितों पर अत्याचार होते हैं उसके नेता नहीं बोलते क्योंकि हिंदुत्व के बहुत समर्थक जाति प्रथा के समर्थक हैं. इन सबको जोड़ने वाली एक ही कड़ी है, मुसलमानों का विरोध. जैसे बीसवीं सदी के तीस और चालीस के दशक में मुस्लिम कट्टरपंथी नेताओं को जोड़ने वाली एकमात्र कड़ी हिंदुओं का विरोध थी. सिर्फ़ किसी धर्म या संप्रदाय के विरोध पर आधारित देश कैसा होता है, इसका उदाहरण पाकिस्तान है.

चूंकि किसी भी धर्मआधारित देश के बनाने वालों के पास कोई सुचिंतित आर्थिक और प्रशासनिक नीति नहीं थी इसलिए उस पर मुल्ला-मिलिट्री गठबंधन हावी हो गया. जब आप धर्म को किसी राष्ट्रीयता का आधार बनाएंगे तो फिर उसमें सब से ज्यादा कट्टर लोगों को हावी होने से नहीं रोक पाएंगे, न ही उस देश को लगातार युद्ध और अशांति के माहौल से बचा पाएंगे. अगर हिंदू राष्ट्र बना तो वह पाकिस्तान की प्रतिछवि ही होगा.

कट्टर धर्मवादियों का धर्म मानवीय मूल्यों पर नहीं, किसी दुश्मन के विरोध पर और उसे कुचलने की कोशिश पर आधारित होता है. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक बहुत अच्छी बात कही है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद धर्म पर आधारित दो देश बने - इज़रायल और पाकिस्तान और दोनों ही दुनिया के सामने मौजूद बहुत सी समस्याओं के मूल में हैं.

अंत में एक क़िस्सा, आज़ादी के तुरंत बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल सोवियत रूस गया था. वहां स्टालिन ने अपने सांस्कृतिक मामलों के कमिसार आंद्रेई ज़्दानोव को भारतीय कम्युनिस्टों से मिलने के लिए अधिकृत किया. भारतीय कम्युनिस्ट उन्हें धर्म के आधार पर भारत के विभाजन के बारे में बता रहे थे. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने विभाजन का समर्थन किया था हालांकि पार्टी में इसे लेकर काफी आंतरिक मतभेद थे. ज़्दानोव ने कहा - धर्म के आधार पर देश, यह क्या बेहूदगी है. इस हिसाब से तो हम जैसे नास्तिकों के लिए तीसरा कोई देश होना चाहिए.