28 फरवरी 2018 को केंद्रीय कैबिनेट ने मानव तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 को मंज़ूरी दी थी. अगले ही महीने देश के कई हिस्सों से दिल्ली आए मानव तस्करी के पीड़ितों ने तमाम सांसदों से मिल कर दरख्वास्त की कि संसद के तत्कालीन सत्र में इस विधेयक को कानून का दर्ज़ा दे दिया जाए. लेकिन बजट सत्र समाप्त हो गया और उम्मीद अधूरी रह गई.

बीते दिनों एक बार फिर देश के सात अलग-अलग राज्यों से आए मानव तस्करी के पीड़ितों ने सांसदों से मुलाकात की. अब प्रयास और जन जागृति मंच जैसी कुछ संस्थाओं के सहयोग से इसका आयोजन राजधानी दिल्ली में हुआ. मुलाकात नई थी पर दरख्वास्त वही पुरानी कि मानसून सत्र में इस विधेयक को पारित कर कानून बना दिया जाए. इस मुलाकात के दौरान सातों पीड़ितों ने अपनी-अपनी आपबीतियां सांसदों को सुनाई और यह समझाने की कोशिश की कि आखिर क्यों इस कानून का जल्द से जल्द बनना ज़रूरी है.

इस मामले में सबसे बड़ी समस्या दो राज्यों की पुलिस के आपसी सहयोग की है. अधिकतर मामलों में पीड़ितों को दूसरे राज्य में ले जाकर बेचा गया था. ऐसे में बचाव की कार्रवाई के लिए पुलिस का सहयोग लेना, मामले की एफआइआर दर्ज़ कराना और अदालती कार्रवाई के लिए पीड़ित का बार-बार उस स्थान पर जाना जहां से उसे बरामद किया गया, एक बड़ी समस्या है. उदाहरण के लिए कोलकाता की रौशनी (बदला हुआ नाम) को मुंबई ले जाकर बेचा गया था. लेकिन बरामद होने के बाद मुंबई पुलिस के लिए उसे वापस उसके राज्य भेजने के लिए ज़रूरी प्रावधान नहीं हैं. नया विधेयक पुलिस को यह प्रावधान उपलब्ध कराता है.

इस समय अपने जैसी अन्य पीड़ितों के लिए काम कर रही रौशनी के मुताबिक कई मामलों में बेच दी गई लड़की के परिवार को अपने थाने की पुलिस को उस राज्य या ज़िले तक जाने का पैसा देना पड़ता है जहां लड़की को बेचे जाने की संभावना है. वे बताती हैं, ‘कई सरवाइवर्स के साथ यह भी होता है कि मान लीजिए कोलकाता की लड़की मुंबई में बरामद हुई. तो ऐसे में मुंबई पुलिस कहती है कि वो कोलकाता जाकर एफआइआर दर्ज़ कराए और कोलकाता की पुलिस कहती है कि अपराध मुंबई में हुआ है तो वहां रिपोर्ट दर्ज़ होनी चाहिए.’

सभी सांसदों ने इन हालात पर चिंता जताई. आयोजन में मौजूद शत्रुघ्न सिन्हा का कहना था, ‘दुख की बात है कि अब भी ऐसे हालात मौजूद हैं. नए बिल में इंटर-स्टेट इनवेस्टिगेशन और नेशनल एंटी-ट्रैफिकिंग ब्यूरो का प्रावधान है, जो इन समस्याओं को सुलझाएगा. ये बिल देर से आया है पर दुरुस्त आया है.’

मानव तस्करी पीड़ितों की समस्या सुनते सांसद शत्रुघन सिन्हा, कोथापल्ली गीता और प्रयास के संयोजक आमोद कंठ
मानव तस्करी पीड़ितों की समस्या सुनते सांसद शत्रुघन सिन्हा, कोथापल्ली गीता और प्रयास के संयोजक आमोद कंठ

सुंदरबन की अर्शिया (बदला हुआ नाम) को भी मुंबई ले जाकर बेचा गया था. एक साल पहले जब वे अपने गांव लौटीं तो लोगों ने उनसे दूरी बना ली. यहां तक कि उन्हें गांव के कुंए से पानी भरने की इजाज़त भी नहीं दी गई. वे बताती हैं, ‘धीरे-धीरे मैं एक बार फिर गांव का हिस्सा बनने लगी थी. लेकिन क्योंकि मेरा केस मुंबई के कोर्ट में चल रहा है तो मुझे बार-बार वहां जाना पड़ता है. इस वजह से लोगों को लगता है कि मैं अब भी अपनी पुरानी ज़िंदगी से जुड़ी हुई हूं.’ अर्शिया चाहती हैं कि उन्हें या अन्य पीड़ितों को बार-बार तारीख पर पेश होने के लिए दूसरे राज्य न जाना पड़े और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए वे कचहरी की कार्रवाई में शामिल हो सकें.

इसके अलावा पीड़ितों का यह भी कहना है कि उन्हें बचाए जाने के बाद उन्हें खरीदने वाले लोगों या ईंट भट्टा मालिकों के खिलाफ तो कार्रवाई हो भी जाती है, लेकिन उन्हें वहां तक ले जाने वाले दलाल अक्सर कानून के पंजे से बच जाते हैं. उन्होंने मांग की है कि विधेयक में इन दलालों के लिए विशेष तौर पर कड़ी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए ताकि वे अन्य लोगों की तस्करी न कर सकें.

ड्रग्स और हथियारों की बिक्री के बाद मानव तस्करी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा संगठित अपराध है. घरेलू चाकरी, बंधुआ मजदूरी, जबरन विवाह, अंग व्यापार या यौन दासता के लिए महिला, पुरुष व बच्चों को दुनिया भर में बेचा और खरीदा जाता रहा है. भारत में मानव तस्करी के खिलाफ मौजूदा कानून इम्मॉरल ट्रैफिकिंग प्रिवेंशन एक्ट, 1956 के तहत सिर्फ यौन शोषण के लिए की गई तस्करी पर कार्रवाई करने का प्रावधान है.

मानव तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 को मानसून सत्र में पारित कर देने की पीड़ितों की अपील पर आंध्र प्रदेश के अराकू से सांसद कोथापल्ली गीता का कहना था, ‘एक महिला होने के नाते यह विषय मेरे दिल के बहुत करीब है. मुझे यकीन है कि संसद में मौजूद सभी महिलाएं इस बिल का समर्थन करेंगी और इसे जल्द से जल्द पारित किया जाएगा.’

लोकसभा सांसद और दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी ने भी इससे सहमति जताई. उनका कहना था, ‘कई बार हम विधेयकों को विस्तार से नहीं समझते, लेकिन इन पीड़ितों को सुनने के बाद में निश्चित रूप से इस विधेयक का समर्थन करुंगा और इसके पक्ष में अपने तर्क रखूंगा.’

दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, बिहार और झारखंड से आए ये पीड़ित सांसदों के आश्वासन के साथ फिलहाल अपने-अपने राज्यों को लौट गए हैं. इस उम्मीद के साथ कि साल भर में दो बार दिल्ली का दरवाज़ा खटखटा चुकने के बाद उन्हें फिर एक बार इस कानून को पारित किए जाने की गुज़ारिश लिए वापस नहीं आना पड़ेगा.