1977 में इंदिरा गांधी को हराकर सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार हर लिहाज़ से ‘भानुमती का पिटारा’ थी. हर कोई अपना राग अलाप रहा था. हर नेता महत्वाकांक्षी हो रहा था. प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह और रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम के मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे. सरकार के पास देश के लिए न कोई विज़न था, न एक्शन प्लान. आख़िर ये सब तो जेपी के ‘इंदिरा हटाओ देश बचाओ’ के नारे को लेकर आगे बढ़े थे. इंदिरा को तो हटा दिया गया था, पर अब देश कैसे चलेगा, यह कुछ साफ नहीं हो रहा था .

ऐसे में पहले से गड़बड़ाया देश का माहौल और बिगड़ गया. आखिरकार जनता पार्टी की नादानियों के चलते इंदिरा गांधी को दोबारा सत्ता में आने का मौका मिल गया. आइये, देखें कैसे?

जनता पार्टी के सरकार में आने के बाद समाज में कई प्रकार के संघर्ष पैदा हो गए थे. सबसे पहले था शहरी बनाम ग्रामीण का संघर्ष जो फैक्ट्री मालिकों और किसानों के टकराव में तब्दील हो गया. अब तक यह होता आया था कि किसान और मिल मालिक के बीच होने वाले क़रार में मिल मालिक का पलड़ा भारी रहता था. 1977 के बाद किसान लुटियंस जोन तक पंहुच गए थे. इस चुनाव में जीते 36 फीसदी सांसद किसान पृष्ठभूमि से थे जबकि 1952 में यह आंकड़ा महज़ 22 फीसदी था.

यह कोई क्रांतिकारी बढ़त तो नहीं थी, न ही यह फ़्रांसीसी आंदोलन जैसी कोई बात थी जिसमें किसानों ने सत्ता को उखाड़ फेंका था. यह धीरे-धीरे होना वाला बदलाव था. देश की आर्थिक नीतियों में चौधरी चरण सिंह की पहल पर अहम बदलाव होने लग गए. अब सरकार किसानों को उनकी फ़सल के ज़्यादा दाम और कम लागत पर कृषि संबंधित चीज़ें देने लगी.

राजनीति के जानकर आशुतोष वार्ष्णेय ‘अधूरी जीत’ क़िताब में लिखते हैं, ‘जिन देशों में आज़ादी के बाद आर्थिक संपन्नता से पहले लोकतंत्र स्थापित हुआ वहां सैनिक शासन लागू हो गए, पर भारत इसका अपवाद है.’ इसके पीछे वे जवाहर लाल नेहरू और उनके मंत्रिमंडल की सोच मानते हैं जिन्होंने लोकतंत्र को औद्योगीकरण के ऊपर तरजीह दी. वे आगे लिखते हैं, ‘...चरण सिंह का नज़रिया संकुचित था. इसमें निचली जातियों को ग्रामीण क्षेत्र की व्यापक राजनीतिक श्रेणी के भीतर सम्मिलित कर लिया गया जहां वे साफ़ तौर पर बहुसंख्यक थे. इससे शहरों में रहने वाले निचली जाति के लोग छूट गए थे.’

फ्रेंच पत्रकार क्रिस्टॉफ़ जेफ़रलॉट और नरेंद्र कुमार अपनी क़िताब ‘अंबेडर एंड डेमोक्रेसी’ में लिखते हैं कि 1977 में जनता पार्टी का राष्ट्रीय सत्ता में उभार ओबीसी वर्ग के लिए निर्णायक मोड़ था. जेफ़रलॉट के मुताबिक़ पहली लोकसभा (1952-57) में उत्तर भारत से आने वाले सांसदों में केवल 4.55 ओबीसी थे. 77 के चुनावों के बाद ये आंकड़े लगातार बदलते गए. जेफ़रलॉट बताते हैं कि कैसे निचली मानी जाने वाली जातियों के भीतर मौजूद अंतर्विरोधों ने उत्तर भारत में अलग किस्म की राजनीति को जन्म दिया. इस वजह से शहरी बनाम ग्रामीण टकराव की विचारधारा जातीय संघर्ष में बदल गयी. जहां पहले, सवर्ण और बाकी जाति के लोग लड़ रहे थे, अब लड़ाई का दूसरा मोर्चा दलित बनाम पिछड़ी जातियों के रूप में खुल गया था.

आंकड़ों के मुताबिक़ जनता पार्टी की सरकार में हरिजनों पर तब तक के सबसे ज़्यादा हमले हुए. जहां इंदिरा गांधी के 10 साल के राज में दलितों पर कुल 40,000 हमले हुए थे. वहीं, अप्रैल 1977 से लेकर सितंबर 1978 तक उनके ख़िलाफ़ 17,775 अत्याचारों की रिपोर्ट दर्ज़ हुई. और हैरानी की बात थी कि सबसे ज़्यादा अत्याचार उत्तर भारत में हुए, जहां से जनता पार्टी को बहुमत मिला था. इन जातीय संघर्षों कारण यह था कि ओबीसी वर्ग के पास ज़मीनें थी और वह ताक़तवर था. वहीं हरिजन उसकी ज़मीनों पर बेगारी करते थे. रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं, ‘ओबीसी वर्ग ने ऊंची जाति के तौर तरीक़े ही नहीं अपनाये बल्कि हरिजनों के साथ वैसा ही बर्ताव किया जो ऊंची जाति के लोग करते थे. इस वजह से हरिजन अपने सम्मान में उठ खड़े हुए.

सबसे प्रखर आंदोलन मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी को लेकर हुआ. महाराष्ट्र सरकार ने 27 जुलाई, 1978 को इसका नाम बदलकर डॉ भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी रख दिया. वहां उच्च जाति के हिंदू मराठों के विरोध पर महाराष्ट्र के अंदरूनी इलाकों में ज़बरदस्त हिंसा फैल गयी. इसमें कई लोग मारे गए और आंकड़ों के मुताबिक़ 5000 दलित बेघर हो गए. डरकर सरकार ने अपना फ़ैसला पलट दिया.

पर, जिस हिंसक आन्दोलन ने इंदिरा गांधी की वापसी का रास्ता बनाया, वह बिहार के बेलची गांव में हुआ था. वहां नौ हरिजनों को जिंदा जला दिया गया था. इंदिरा जो राजनीति से संन्यास लेने का मन बना रहीं थीं उन्हें उम्मीद की किरण नज़र आ गई. वे तुरंत ही बेलची जा पंहुचीं और वहां से सरकार को जमकर कोसा. इसका फ़ायदा यह हुआ कि जो लोग इंदिरा को लोकतंत्र और ग़रीबों का दुश्मन मान रहे थे, वे देश में व्याप्त हिंसा से परेशान होकर उनकी तरफ़ दुबारा देखने लगे.

इंदिरा के दोबारा राजनैतिक उभार में जनता पार्टी का भी बराबर का योगदान रहा. गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा को अक्टूबर 1977 में भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार कर उनकी मनचाही मुराद पुरी कर दी. सीबीआई उन्हें गिरफ़्तार कर दिल्ली से बाहर यानी हरियाणा ले जा रही थी. रास्ते में रेलवे फाटक के बंद होने के कारण गाड़ियां रुक गयीं. इंदिरा गाड़ी से बाहर उतरीं और नाटकीय अंदाज़ में पुलिया पर जाकर बैठ गईं. पूर्व प्रधानमंत्री को यूं बैठा देख, लोग जमा हो गए. उधर, उनके वकीलों ने सीबीआई को इस बहस में उलझा लिया कि वारंट के मुताबिक़ जांच एजेंसी उन्हें दिल्ल्ली से बाहर नहीं ले जा सकती. आखिरकार सीबीआई को झुकना पड़ा. उन्हें वापस लेकर दिल्ली आ गयी. अगले दिन उसने कोर्ट में गिरफ़्तारी का चालान पेश किया जिस पर लिखे आरोपों को जज ने बेतुका और बचकाना बताकर खारिज़ कर दिया. इंदिरा रिहा हो गईं. इस पूरे प्रकरण से लोगों के मन में उनके प्रति सहानुभूति पैदा हो गई.

बात यहीं नहीं रुकी, जनता सरकार ने इंदिरा गांधी के द्वारा की गयी कथित ज़्यादतियों की जांच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ़ जस्टिस जेसी शाह की अगुवाई में ‘शाह आयोग’ बैठा दिया. इंदिरा की पैरवी करने के लिए मशहूर वकील फ़्रैंक एंथनी नियुक्त थे. जानकार बताते हैं कि जांच का पहला दिन बड़ा नाटकीय था:

जस्टिस शाह ने इंदिरा से पूछा, ‘आपका नाम?’

इंदिरा बोलीं, ‘जस्टिस, आप जानते हैं’.

शाह, ‘मैडम यहां अगर मर्लिन मुनरो भी आयेंगी तो उन्हें नाम बताना होगा.’

इस पर वकील फ्रैंक एंथनी बोले, ‘माय लार्ड, ये आयोग इनके ख़िलाफ़ ही बैठाया गया है. नाम सबको मालूम है. आप इतने अंजान न बनें’

बताया जाता है कि जस्टिस शाह और एंथनी के बीच हुई बहस बड़ी मजेदार थी. एक बार एंथनी ने उनसे कहा, ‘ये राजनीतिक प्रोपेगैंडा है, मेरा मुवक्किल मशहूर ही होगा. और कौन जाने कब कहां बैठा होगा. बहुत संभव है आप जो जांच कर रहे हैं, उसकी रिपोर्ट बाद में कहीं धूल चाट रही हो.’ हुआ भी यही. इंदिरा देश भर में फिर लोकप्रिय होने लग गईं. जांच आयोग एक मज़ाक बनकर रह गया. कई बार इंदिरा पेशी पर जाती ही नहीं थीं.

देश में हालात ख़राब होते जा रहे थे. महंगाई दर और हिंसा काफी बढ़ गई थी. जनता सरकार मुश्किल में घिरती जा रही थी. चर्चित पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘बियॉन्ड द लाइन्स में लिखते हैं, ‘लोगों को जनता पार्टी और कांग्रेस के नेताओं में कोई फ़र्क नहीं दिखा. दागदार नेता और अफ़सरों ने अहम पद हथिया लिए थे. जांच एजेंसियां पहेली की तरह आम कर रही थीं. जो तरीक़े संजय गांधी ने विपक्ष के नेताओं पर इख्तियार किये थे, लगभग वहीं अब कांग्रेसियों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल हो रहे थे. लोग आपातकाल के ख़त्म होने को आजादी मान रहे थे पर जो लोग ‘परिवर्तन’ की लहर पर सवार होकर आये थे, वो कमोबेश पहले वालों से अलग नहीं थे’.

इंदिरा गांधी ने संसद से बाहर से जनता सरकार पर प्रहार तेज़ कर दिए थे. बाहर से इसलिए कि 1977 के लोकसभा चुनाव में वे रायबरेली से हार गई थीं. अब इंदिरा दोबारा संसद में प्रवेश के लिए एक सुरक्षित सीट तलाश रही थीं. उनकी तलाश कर्नाटक की चिकमंगलूर सीट पर जाकर रुकी. कर्नाटक में उनकी पार्टी की सरकार थी. देवराज उर्स मुख्यमंत्री थे. उन्होंने इंदिरा के चुनाव के लिए नारा दिया, ‘एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर-चिकमंगलूर’. इंदिरा बहुमत से जीतकर संसद पहुंच गईं. यह 1978 की बात है.

जनता सरकार की बेवकूफ़ी अभी और बाकी थी. इंदिरा गांधी संसद पहुंची ही थीं कि उसने संसद में उनके ख़िलाफ़ विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव पारित करवा लिया. इंदिरा को एक महीने की जेल हुई. इंदिरा भी यही चाहती थीं. उनका चुनाव फिर रद्द हो गया. अब तक उनकी लोकप्रियता पहले से अधिक ह गयी थी. जेल से रिहा होने पर फिर चिकमंगलूर से जीतकर वे संसद में प्रवेश कर गयीं. उधर, जनता पार्टी में घमासान मचा हुआ था. मोरारजी देसाई ने जुलाई 1978 में चौधरी चरण सिंह को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया. लडाई अब निर्णायक मोड़ पर आ चुकी थी. पर फिलहाल ये क़िस्सा यहीं तक.

चलते-चलते

ऐसा नहीं है कि जनता सरकार ने कुछ भी अच्छे काम नहीं किये. सबसे पहला यह कि उसने संविधान में 44 वां संशोधन पारित करके 42वें संशोधन के प्रभाव को लगभग ख़त्म किया. इससे संविधान की गरिमा पुनर्स्थापित हुई. इंदिरा गांधी ने संसद का कार्यकाल पांच की जगह छह साल कर दिया था. इस सरकार ने पांच सालों वाला प्रावधान दोबारा लागू किया और संविधान में ऐसे प्रावधान भी किये जो यह सुनिश्चित करते थे राष्ट्रपति को आपातकाल लागने के लिए कैबिनेट की मंजूरी लेनी होगी और यह भी कि एक बार में आपातकाल की अवधि छह महीने से अधिक नहीं हो सकती. अगर होगी तो इसके लिए ठोस कारणों का होना ज़रूरी होगा. दिलचस्प बात यह है कि जब संसद में 44 वें संशोधन पर वोटिंग हो रही थी तो इंदिरा और मोरारजी देसाई दोनों ही सदन में मौजूद थे.

इतिहास को वर्तमान से जोड़कर देखने में ही उसकी प्रासंगिकता है. बहुत से लोग मानते हैं कि मौजूदा केंद्र सरकार ने बीते कुछ समय के दौरान जो कुछ दिल्ली में किया है उससे अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियता बढ़ी है और वे अब राष्टीय स्तर के नेता माने जाने लगे हैं. कुछ लोग इतिहास से नहीं सीखते.