आज भारत क्रिकेट की शक्तिपीठ है और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड दुनिया के पूरे क्रिकेट तंत्र को अपने इशारों पर नचाने की हैसियत रखता है. लेकिन यह उन दिनों की बात है जब क्रिकेट इंग्लैंड से समुद्री रास्तों के जरिये भारत तक पहुंचा था. एक अंग्रेज नाविक ने अपने संस्मरण में लिखा है कि कैसे वह अपने साथियों के साथ मन बहलाने के लिए कच्छ के तट पर क्रिकेट खेला करता था और भारतीय अचंभित होकर उन्हें देखा करते थे.

1721 का यह संस्मरण भारत में क्रिकेट के आगमन का पहला प्रामाणिक लिखित दस्तावेज माना जाता है. इसके बाद भारत में अंग्रेजी राज के साथ क्रिकेट भी फैलना शुरु हो गया. इसके करीब दो सदी बाद भारत में क्रिकेट का प्रशासनिक ढांचा बनने की शुरुआत हुई. 1928 में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का गठन हुआ.

हालांकि, तब तक क्रिकेट भारत के बड़े शहरों में बड़े लोगों का खेल बन चुका था. पारसियों ने सबसे पहले क्रिकेट क्लब बनाए. तब के बंबई (अब की मुंबई) में पारसी, हिंदू, मुस्लिम और एंग्लोइंडियन टीम आपस में मैच खेलती थीं. क्रिकेट की प्रतियोगिता में टीम बनाने का आधार धर्म था. यह इंग्लैंड के काउंटी और क्लब कल्चर का विचित्र भारतीयकरण था. इन टीमों के मैच अक्सर इंग्लैंड से आने वाली टीमों से भी हुआ करते थे.

ऐसा ही एक मैच 1926 में खेला गया था. यह हिंदू टीम और यूरोपियन मेहमानों के बीच था. इस मैच में भारत का एक शानदार खिलाड़ी पहचान में आया जिसका नाम था सीके नायडू. सीके नायडू ने उस मैच में 13 चौकों और 11 छक्कों के साथ 153 रन बनाए और अंग्रेजी क्रिकेट के दिग्गजों को भी यह मानने पर मजबूर कर दिया कि भारत को अब टेस्ट टीम का दर्जा मिलना चाहिए. नायडूू की दमदार बल्लेबाजी के चलते हिंदू टीम अंग्रेजों की मेहमान टीम से केवल सात रन से हारी. यह उस समय बहुत बड़ी बात थी.

सीके नायडू

आखिरकार 1932 में भारत को टेस्ट खेलने वाले देश का दर्जा मिल गया. यह भी तय हो गया कि भारत अपना पहला टेस्ट क्रिकेट के मक्का कहे जाने वाले लार्ड्स में खेलेगा. अब तलाश प्रायोजक की थी जो इस पूरे दौरे का खर्च उठाए. उस समय भारतीय क्रिकेट में नेतृत्व के स्वाभाविक उत्तराधिकारी राजघराने थे. जो अंग्रेजों पर अपना प्रभाव और सत्ता में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए ट्रायल टूर्नामेंट से लेकर स्टेडियम की व्यवस्थाओं तक पर पैसा खर्च करते थे.

पटियाला के महाराजा भूपिन्दर सिंह और विजयनगरम स्टेट के महाराजा पहले टेस्ट में भारत के दौरे का सारा खर्च उठाकर कप्तान बनने की दौड़ में सबसे आगे थे. हालांकि इसके लिए सबसे पहले प्रिंस दलीप सिंह से भी संपर्क किया गया था, लेकिन उन्होंने इन्कार कर दिया. दलीप सिंह उस समय के मशहूर क्रिकेटर महाराजा रणजीत सिंह उर्फ रणजी के भतीजे थे. कहा, यह भी जाता है कि रणजीत सिंह ने ही दलीप को भारतीय टीम का कप्तान बनने से मना किया था क्योंकि अंग्रेजियत में पूरी तरह रम चुके रणजी नहीं चाहते थे कि उन्हें भारतीय क्रिकेट से जोड़ा जाए. रणजी भारत के पहले क्रिकेटर थे जिन्होंने इंग्लैंड की टीम की ओर से ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट खेला था.

खैर, भारत के पहले टेस्ट में कप्तानी की बाजी अनुभव के चलते महाराजा पटियाला के हाथ लगी. वे बीसीसीआई के गठन के समय हुई बैठकों में भी काफी सक्रिय रहे थे. विजयनगरम के महाराजा विज्जी को उप कप्तान चुना गया. महाराजा विजयनगरम इस फैसले से खुश नहीं थे. लिहाजा उन्होंने बीमारी की बात कह खेलने में असमर्थता जता दी. क्रिकेट इतिहासकार मानते हैं कि बीमारी की बात सिर्फ बहाना थी. वे टीम के कप्तान बनना चााहते थे और तत्कालीन वायसराय से नजदीकी के चलते वे कप्तानी पक्की मान रहे थे. लेकिन बाजी उल्टी पड़ने पर उन्होंने टीम के साथ ही न जाने का फैसला किया.

हालांकि बाद में बीमारी और रियासत के कामकाज के कारण महाराजा पटियाला ने भारत की कप्तानी से हाथ खींच लिया. कुछ विशेषज्ञ इसके पीछे अंग्रेज अफसरों से उनका मनमुटाव भी मानते हैं. कप्तानी के लिए दो महाराजाओं के पीछे हटने के बाद अब एक और महाराजा की तलाश शुरू हुई. यह तलाश पोरबंदर के महाराजा नटवर सिंहजी भावसिंहजी के तौर पर पूरी हुई. जाहिर है महाराजा पोरबंदर अपनी क्रिकेटीय प्रतिभा के चलते भारतीय टीम के कप्तान नहीं बने थे. वजह कुछ और थी. इसकी तस्दीक छह मैचों में उनके द्वारा बनाए गए महज 42 रन भी करते हैं.

इंग्लैंड पहुंचकर इस बात का एहसास शायद महाराजा पोरबंदर को भी हो गया और उन्होंने भारत के पहले टेस्ट टीम की कप्तानी करने का इरादा छोड़ दिया. इसके बाद जिम्मेदारी उपकप्तान केएसजी लिंबडी पर आनी थी, लेकिन उन्होंने भी टीम से अपना नाम वापस ले लिया. लिंबड़ी महाराजा पोरबंदर के साले थे.

भारतीय टीम में कप्तानी के लिए अब कोई महाराजा नहीं था. हालात ने उस टेस्ट की कप्तानी सीके नायडू को सौंप दी जो उस टीम में पहले ही कप्तानी के लिए सबसे योग्य थे. सीके नायडू महाराजा या प्रिंस नहीं थे लेकिन वे भी अभिजात्य वर्ग से ताल्लुक रखते थे. उनके पिता वकील थे और उनके जमींदार दादा को अंग्रेज सरकार ने रायबहादुर की उपाधि से नवाजा था. लेकिन सीके नायडू बेहतरीन क्रिकेटर थे. बंबई और लंदन के क्रिकेट दायरे में उनके प्रथम श्रेणी मैचों में प्रदर्शन के चर्चे थे. बंबई जिमखाना और मद्रास के मैचों में हिंदू टीम की ओर से खेलते हुुए नायडू ने इतने लंबे छक्के मारे थे कि जो पैवेलियन में जाकर गिरे थे.

भारतीय क्रिकेट के उस ‘महाराजा-युवराज युग’ में सीके नायडू को कप्तानी नियति ने सौंपी थी. पहले मैच में नायडू के नेतृत्व में भारतीय खिलाड़ियों ने यादगार प्रदर्शन किया. 25 जून 1932 को शुरु हुए इस तीन दिवसीय टेस्ट मैच में इंग्लैंड ने पहले बल्लेबाजी करने का फैसला किया था. नायडू ने भारतीय गेंदबाज मोहम्मद निसार और अमर सिंह को गेंद को हर हाल में सही लेंथ पर डालने के निर्देश दिए. और नतीजा यह रहा कि भारत की नौसिखिया माने जाने वाली टीम के खिलाफ इंग्लैंड ने 19 रन पर तीन विकेट गंवा दिए.

बाद में कप्तान डगलस जार्डिन (जिन्हें बॉडीलाइन गेंदबाजी का जनक कहा जाता है) के 79 रनों की बदौलत इंग्लैंड संभला और टीम पहली पारी में 259 रन बनाकर आउट हुई. मोहम्मद निसार ने शानदार गेंदबाजी करते हुए 93 रन देकर पांच विकेट चटकाए. कप्तान सीके नायडू ने भी मैच में दो विकेट लिए. उन्होंने डगलस जार्डिन का कीमती विकेट चटकाया. पर गेंदबाजों के बेहतर प्रदर्शन को बल्लेबाजों का साथ नहीं मिला. पहली पारी में भारतीय टीम 189 रन बनाकर अाउट हो गई. कप्तान सीके नायडू को गली में एक कैच पकड़ने के प्रयास में हाथ में चोट लग गई थी. इसके बाद भी उन्होंने सबसे ज्यादा 40 रन बनाए.

दूसरी पारी में इंग्लैंड ने आठ विकेट पर 275 रन बनाकर पारी घोषित कर दी. दूसरी पारी में जहांगीर खान ने 60 रन देकर चार विकेट चटकाए. जवाब में भारतीय बल्लेबाजी दूसरी पारी में भी 187 रन पर सिमट गई. इस तरह भारत अपना पहला टेस्ट 159 रनों से हार गया. लेकिन पहले ही मैच गेंदबाजों के शानदार प्रदर्शन और नायडू की कप्तानी ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा.

सीके नायडू का नाम भारत के पहले टेस्ट कप्तान के तौर पर दर्ज हो चुका था. सुर्खियां उनका साथ छोड़ने को तैयार नहींं थीं. इसके बाद मिडिलसेक्स और सॉमरसेट काउंटी के खिलाफ उन्होंने 101 और 130 रन बनाए. 1932 में भारत का इंग्लैंड दौरा जब खत्म हुआ तो नायडू पांच शतकों के साथ 42.34 के औसत से 1613 रन बना चुके थे. इस दौरान उन्होंंने 29.33 के औसत से 59 विकेट भी चटकाए. सीके नायडू ने पूरे दौरे में 32 छक्के जड़े. लॉर्ड्स में एमसीसी के खिलाफ नायडू ने जब 130 रनों की शानदार पारी खेली तो इंग्लैंड के तबके प्रसिद्ध अखबार स्टार ने उन्हें ‘हिंदू ब्रेडमैन’ तक कहा. द स्टार की हेडिंग थी- ‘द हिंदू ब्रेडमैन इन फार्म एट लॉर्ड्स.’ हिंदू ब्रेडमैन कहने के पीछे की वजह यह थी कि बंबई जिमखाना में सीके नायडूू हिंदू टीम की तरफ से खेलते थे. भारत के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण से पहले नायडू की ख्याति हिंदू टीम के खिलाड़ी के तौर पर ही थी.

सीके नायडू को होल्कर शासकोंं ने कर्नल की उपाधि दी थी. 1956 में उन्हें पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया. नायडू की उस समय की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया सकता है कि उन्होंने 1941 में बाथगेट लीवर टॉनिक का विज्ञापन किया और किसी ब्रांड का प्रचार करने वाले पहले भारतीय क्रिकेटर बने.

सीके नायडू ने 36 साल की उम्र में भारत की कप्तानी की थी और वे 60 साल तक प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेलते रहे. ब्रैडमैन से उनकी तुलना एक तात्कालिक उत्साह का नतीजा मानी जा सकती है ,लेकिन नायडू का पूरा व्यक्तित्व खेल में रमा था. क्रिकेट के अलावा वे हॉकी और फुटबॉल भी अच्छा खेलते थे और कहा जाता है कि 100 यार्ड की दौड़ कर्नल 11 सेकेंड में पूरी कर लेते थे. 14 नवंबर 1967 को सीके नायडू का 72 साल की उम्र में निधन हो गया.

भारत की टेस्ट टीम की कप्तानी के लिए पहला-दूसरा क्या, तीसरा विकल्प भी नहींं माने जा रहे कर्नल सीके नायडू ने भारत के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की ऐसी बुनियाद रखी कि आगे चलकर भारत दो बार विश्व विजेता तक बना.