स्वतंत्रता दिवस के कई दिन पहले से ही वह राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने की प्रैक्टिस कर रहा था. हालांकि वह दसियों सालों से इस तरह के संबोधन सफलतापूर्वक सुन रहा था और उसे अभ्यास की कोई जरूरत नहीं थी. वैसे भी राष्ट्र का काम हमेशा ध्यानपूर्वक सुनना होता है, सुनाना नहीं. सुनाने के लिए राष्ट्र के पास सिर्फ एक चीज है. वह है जनादेश.
जिस भी राजनीतिक दल के पक्ष में जनादेश सुनाया जाता है, वह राष्ट्र का आभार प्रकट करता है और उसी समय इशारा कर देता है कि आपने जनादेश सुना दिया है, अब अगले पांच साल तक और कुछ न सुनाइएगा. अब वह नागरिक कुछ सुना नहीं सकता था तो खुद से आत्मालाप किया करता था और डायरी लिखा करता था. इस बार के स्वतंत्रता दिवस पर भी उसने डायरी लिखी. उस डायरी के कुछ पन्ने हमारे हाथ भी लग गए. डायरी के ये पन्ने कुछ खतनुमा हैं और उनसे भाषण जैसा भी कुछ होने का भ्रम होता है. हम उस आम नागरिक की डायरी के पन्ने हूबहू आपके सामने पेश कर रहे हैं...
मेरे प्यारे देशवासियो,
जैसे कुशल ही कुशलता का प्रतीक है, वैसे आजादी भी आजादी का प्रतीक है. मैं यहां आजाद हूं और आशा करता हूं कि आप भी वहां आजाद होंगे. पिछले कई सालों से मैं स्वतंत्रता दिवस आने के कई दिन पहले से व्यस्त हो जाता हूं. बेटा 15 अगस्त को होने वाली वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेता है. उसे तैयारी करानी होती है. पहली बार तो मैंने उसके इस तरह की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का पुरजोर विरोध किया था. लेकिन जब वह अपने बलबूते ही तीसरा स्थान पाकर कापियों का एक सेट जीत लाया तो मेरी भी इसमें रुचि बढ़ी. इसके बाद से मैं उसका भाषण मोहल्ले में पीसीएस की तैयारी करने वाले लड़के से लिखवा देता हूं. लगातार दो बार से वह वाद-विवाद प्रतियोगिता में दो हज़ार एक रुपये का इनाम जीत रहा है. इससे मेरा भी काम कुछ आसान हो जाता है और उसकी मां को भी देशभक्ति की फीलिंग आती है.
पीसीएस की तैयारी करने वाला लड़का धैर्यवान है. पिछले छह साल से लगातार असफल प्रयासों के बाद भी उसकी निराशा खतरे के निशान तक पहुंचने वाली होती है कि अखबारों में नौकरियों की खबर उसे थाम लेती हैं. मुझे जब भी उससे स्वतंत्रता दिवस पर भाषण लिखाना होता है, मैं उससे कहता हूं कि अगर आरक्षण न होता तो तुम अब तक पांच-सात तहसीलों के डिप्टी कलक्टर रह लिए होते. वह मेरे बेटे का लेख लिख मेरी बात पर सहमति जता देता है. हालांकि अगर मैं किसी आरक्षण समर्थक के पास किसी काम से जाता हूं तो आरक्षण की उपयोगिता पर बढ़िया विचार रख लेता हूं. मेरे विचार बिल्कुल स्वतंत्र हैं, वे विचारधारा के किसी भी बर्तन में समा जाते हैं.
बेटी अभी छोटी है. सिर्फ तिरंगे के लिए जिद करती है. सुनने में आया था कि प्लास्टिक वाले तिरंगे पर रोक लग गई है. लेकिन मैं पहले ही उसके लिए दो तिरंगे ले आया. झंडे बेचने वाले को मैंने नसीहत भी दी कि उसे प्लास्टिक के झंडे नहीं बेचने चाहिए. मेरे ज्ञान से बचने के लिए उसने मुझे एक तिरंगे का स्टीकर मुफ्त दे दिया. मुझे वह सूक्ति याद आई कि ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता.
मैं स्वयं सरकारी कर्मचारी हूं और कायदे में मुझे अपने दफ्तर में होने वाले झंडारोहण में शरीक होना चाहिए. लेकिन इससे बचने के लिए मैंने पड़ोस के प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर साहब को सेट कर लिया है. वे मुझे बिना गए ही अपने विद्यालय के झंडारोहण कार्यक्रम में शामिल होने का प्रमाणपत्र दे देंगे जिसे मैं अपने कार्यालय में जमा करा दूंगा, ताकि किसी ऊंच-नीच की स्थिति में काम आए.
मास्टर साहब और ग्राम प्रधान बहुत भले और व्यावहारिक हैं. दोनों स्कूल के मिडडे मील में गड़बड़ी के आरोप झेलते रहते हैं. लेकिन 15 अगस्त को जब सारे लोग दो लड्डू में निपटा रहे होते हैं, स्कूल में चार लड्डू के साथ जलेबी भी बंटती है. बच्चे तो बच्चे, उनके माता-पिता भी पनियल दाल को भूल जलेबी की मिठास में डूब जाते हैं. ग्राम प्रधान के विचार बहुत स्पष्ट हैं. वे कहते हैं कि 15 अगस्त के दिन कोई कमी नहीं होनी चाहिए, आज़ादी बहुत मुश्किल से मिली है.
मेरा वे लोग इसलिए भी सम्मान करते हैं कि मैंने एकाध बार उल्टा फहरा दिये गए झंडे को सीधा करा के उन्हें अख़बारों के उन फोटोग्राफरों से बचाया जो संपादकों के दबाव में किसी उल्टे झंडे की ताक में रहते हैं. झंडारोहण और लड्डू वितरण की रूटीन खबरों में उल्टा झंडा एक्सक्लूसिव होता है. फोटोग्राफर इन पर गिद्ध दृष्टि जमाए रहते हैं और प्राथमिक विद्यालय आसानी से इनका शिकार हो जाते हैं.
हालांकि पिताजी प्रधान की सहृदयता का कारण कुछ और मानते हैं. उनका कहना है कि प्रधान तुम्हारे झंडा सीधा करने के कारण तुम्हें भाव नहीं देता है, बल्कि मैंने नोटबंदी के समय अपने खाते में जो उसके पांच लाख रुपये जमा कराए और बाद में बिना 10 फीसदी कमीशन लिए वापस कर दिए, ये उसका नतीजा है. प्रधान के कालेधन को सफेद करने में कोई कमीशन न लेने का उन्हें आज भी अफसोस है.
हालांकि प्रधान जो कर सकता था उसने किया. बिल्कुल अपात्र होते हुए भी उसने मेरी माताजी की वृद्धावस्था पेंशन की सिफारिश की है. इसके लिए उसने लिखा है कि सरकारी नौकर बेटा इनका बिल्कुल ध्यान नहीं रखता, ये निराश्रित हैं और इन्हें पेंशन की सख्त जरूरत है. मैं मातृ-पितृ भक्त हूं. उनका पूरा ख्याल रखता हूं. यह मजमून देख मुझे अच्छा नहीं लगा, लेकिन पेंशन की रकम ध्यान में आते ही मन से यह कुविचार जाता रहा. अगर ऊपर के अधिकारी भी नियमपूर्वक काम करेंगे और सत्यापन जैसी भौतिक चीजों में नहीं उलझेंगे तो माताजी की पेंशन आने लगेगी.
माताजी की ड्यूटी आजकल खेतों से गाय-सांड़ भगाने की लगी है. गौरक्षा का असर है कि पूरा गांव चलती फिरती गौशाला में तब्दील हो गया है. चारागाह की ज्यादातर जमीन पर पहले ही कब्जे हो चुके हैं. जिन पर नहीं हुए हैं उन पर जल्द हो जाएंगे. लेखपाल और तहसीलदार इसी सिलसिले में अक्सर गांव आते रहते हैं. सरकार को चाहिए कि खेतों का एक हिस्सा आवारा पशुओं के लिए निर्धारित कर दे. सरकारी नियम बन जाएगा तो लोग मानेंगे ही. अभी स्कूल में राष्ट्रगान चल रहा था कि एक जन को बीच में ही खेत में सांड़ भगाने जाना पड़ा. वो तो कहो सिनेमाहाल नहीं था नहीं तो बेचारे पिट भी जाते.
मुझे तो बस इस बात का डर है कि अम्मा अपनी पेंशन वाली बात रामरती चाची को न बता दें. अभी उनके लड़के ने मनरेगा का पैसा ठीक से न मिलने पर प्रधान और ग्राम पंचायत अधिकारी की शिकायत कर दी है. नाराज प्रधान ने रामरती चाची की पेंशन के कागज ही नहीं भेजे. अब अगर उनके बेटे ने कुछ बखेड़ा खड़ा किया तो बना-बनाया काम बिगड़ जाएगा.
बड़ी मुश्किल है. देश की व्यवस्था देख मन बड़ा खिन्न है.देशभक्ति के दो चार गीत सुनता हूं. नहीं प्रधानमंत्री जी के संबोधन की रिकॉर्डिंग आ रही होगी, वही सुन लेता हूं.
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