1971 का साल था. ओवल में इंग्लैंड और भारत के बीच टेस्ट सीरीज का आखिरी मैच खेला जा रहा था. भागवत चंद्रशेखर (38 रन पर छह विकेट) की फिरकी के सामने अंग्रेज टीम बिखर गई थी और भारत को जीत के लिए चौथी पारी में 176 रन का लक्ष्य मिला था. टीम ने चार विकेट हाथ में रहते ही इसे हासिल कर लिया. 24 अगस्त, 1971 की उस तारीख को क्रिकेट की दुनिया का शक्ति संतुलन हल्का सा ही सही भारत की तरफ झुक गया था.

ओवल मैदान की बॉलकनी में खड़े भारतीय कप्तान अजीत वाडेकर की आंखें डबडबाईं थीं, लेकिन शायद उन्हें भारतीय क्रिकेट का पूरा परिदृश्य साफ नज़र आ रहा था. इंग्लैंड दौरे से पहले वे गैरी सोबर्स की महान टीम को 1-0 से हरा कर आये थे, लेकिन अपनी आत्मकथा में उन्होंने इंग्लैंड को उसी की सरजमीं पर हराने को अपने जीवन का सबसे यादगार पल बताया.

2018 में जब अजीत वाडेकर के निधन की खबर आई तो क्रिकेट जगत से जुड़ी तमाम हस्तियों ने उनकी कप्तानी में ओवल की जीत की तुलना 1983 के विश्व कप से की थी. लेकिन अगर ठहरकर देखा जाए तो कुछ मायनों में वेस्टइंडीज और इंग्लैंड में वाडेकर के नेतृत्व में हुई यह जीत इससे भी ऊपर ठहरेगी.

1983 का विश्व कप सीमित ओवरों के वन डे मैचों की प्रतियोगिता थी जिसमें क्रिकेट की अनिश्चितता कुछ ज्यादा ही अपना रंग दिखाती है. लेकिन 1971 में जब अजीत वाडेकर ने दोनों देशों के खिलाफ 1-0 से सीरीज जीती थी, तब तक भारत ने अपना एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैच खेला ही नहीं था. मजे की बात यह है कि 1974 में जब भारत ने अपना पहला वनडे खेला तो उस टीम के भी कप्तान अजीत वाडेकर थे. वाडेकर ने महज दो वनडे खेले, लेकिन कहा जाता है कि उन्होंने 1971 में वेस्टइंडीज और इंग्लैंड जैसी क्रिकेट महाशक्तियों को हरा कर फार्मेट में भारतीय क्रिकेट की नींव का पत्थर रख दिया था.

1971 की वह जीत कई मायनों में अहम थी. क्रिकेट इतिहासकार गिडियन हेग ने लिखा है कि इस जीत ने भारतीय टीम की मानसिक स्थिति ही बदल दी थी. वे लिखते हैं, ‘1971 के लॉर्ड्स टेस्ट में शानदार प्रदर्शन के बाद भारत ने इंग्लैंड से ड्रा खेला. इसके बाद टीम के कप्तान वाडेकर और मैनेजर हेमू अधिकारी ने भारतीय खिलाड़ियों की रुकने की व्यवस्था पर जोरदार आपत्ति दर्ज कराई. और ऐसा पहली बार हुआ कि भारतीय टीम के मुताबिक व्यवस्था की गई.’

वर्ना इससे पहले अंग्रेजों का रवैया वैसा ही रहता था जैसे औपनेवेशिक दौर में भारत की कोई टीम शौकिया मैच खेलने आयी हो. उसके रहने-खाने का जैसा-तैसा इंतज़ाम कर दिया जाता था. अजीत वाडेकर की कप्तानी वाली टीम क्रिकेट जगत की व्यवस्था में बदलाव की शुरुआत कर चुकी थी. 1971 में अजीत वाडेकर की कप्तानी में इंग्लैंड में जीत इतनी बड़ी थी कि आज भी जब टीम इंडिया इंग्लैंड के दौरे पर जाती है तो उस दौरे का फ़्लैश बैक सुर्खियों में छपता है.

लेकिन एक अप्रैल 1941 को पैदा हुए अजीत लक्ष्मण वाडेकर की बचपन में क्रिकेट में दिलचस्पी ऐसी भी नहीं थी कि वे भारतीय टीम में खेलने की इच्छा रखते हों. अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं पढ़ने में अच्छा था और गणित में मुझे खासी दिलचस्पी थी. स्कूल में क्रिकेट खेलता था, लेकिन सिर्फ टेनिस बॉल वाला.’ वाडेकर पर लिखे तमाम संस्मरणों में इस बात का जिक्र मिलता है कि घर वाले यह तय नहीं कर पा रहे थे कि उन्हें डॉक्टर बनाया जाए या इंजीनियर. अजीत को उनका पहला क्रिकेट बैट उनके पिता ने तब दिलाया था. जब वे अलजेबरा यानी बीजगणित के पेपर में पूरे नंबर लाये थे. लेकिन इस सब के बाद भी अजीत वाडेकर एक बंबइया लड़के की तरह शौकिया क्रिकेट ही खेल रहे थे.

लेकिन तभी वह मोड़ आया जिसने इस बंबइया लड़के की जिंदगी बदल दी. अजीत वाडेकर की मुलाकात उनके कालेज के सीनियर बालू गुप्ते से हुई. स्पिनर बालू गुप्ते उस समय भारतीय टेस्ट टीम के खिलाड़ी थे. गुप्ते को एक मैच में 12 वें खिलाड़ी की जरूरत थी. उन्होंने अजीत को खेलने के लिए कहा. अजीत बालू के साथ बस में बैठ गए और यहीं से उनके क्रिकेट करियर की शुरुआत हो गई. गणित का एक मेधावी स्टूडेंट इंजीनियर नहीं बन सका, लेकिन बाद में देश का कप्तान बन गया.

अजीत वाडेकर का प्रथम श्रेणी करियर 1958 में शुरू हुआ. लेकिन उन्हें टेस्ट टीम में आते-आते आठ साल लग गए. 1966 में उन्होंने बंबई (अब मुंबई) में वेस्टइंडीज के खिलाफ अपने टेस्ट करियर की शुरुआत की. घरेलू क्रिकेट में उनका प्रदर्शन इतना शानदार था कि 1967 में ही उन्हें अर्जुन पुरस्कार मिल गया था.

अजीत वाडेकर को टेस्ट टीम में आने में भले थोड़ा वक्त लगा, लेकिन उनके गणित और विज्ञान वाले तर्कशील दिमाग के लिए कप्तानी ज्यादा दूर नहीं थी. जब अजीत टीम में आये तो टाइगर पटौदी भारतीय टीम के कप्तान थे. उनकी अगुवाई में 1967-68 में न्यूज़ीलैंड गई भारतीय टीम ने मेजबान टीम को हरा दिया था. लेकिन हालात एकाएक तेजी से बदले. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी पुस्तक ‘ए कार्नर ऑफ फॉरेन फील्ड’ में लिखते हैं, ‘ पटौदी 1970 में भारतीय टीम का शानदार नेतृत्व करने के लिए तैयार लग रहे थे, लेकिन उसी साल इंदिरा सरकार ने राजाओं के प्रिवी पर्स और पदवियां छीन लीं. पटौदी की फार्म भी काफी खराब हो गई.’

इसके बाद वेस्टइंडीज और इंग्लैंड दौरे पर जाने वाली भारतीय टीम के लिए नए कप्तान की चर्चा शुरू हुई. 1966 में टीम में आये अजीत वाडेकर अपने प्रदर्शन और क्रिकेटिंग सेंस के चलते कप्तानी के दावेदार हो गए. चयन समिति में पटौदी और वाडेकर के नाम पर वोट बराबर हो गए. अब चेयरमैन विजय मर्चेंट का वोट निर्णायक था. कहा जाता है कि विजय मर्चेंट ने एकबारगी अजीत को अपने कालेज में खेलते देखा था तो कहा था कि यह लड़का एक दिन भारत की कप्तानी करेगा. विजय मर्चेंट के वोट ने अजीत वाडेकर को टीम का कप्तान बना दिया. पटौदी ने प्रिवी पर्स खत्म होने के बाद कप्तानी से हटाए जाने को एक और झटके के तौर पर लिया. खुद को टीम के लिए अनुपलब्ध बताते हुए उन्होंने 1971 का संसदीय चुनाव लड़ने का फैसला किया. हालांकि वे कांग्रेस उम्मीदवार से बुरी तरह हारे.

तीन नंबर पर बल्लेबाजी करने वाले बाएं हाथ के बल्लेबाज़ अजीत वाडेकर को अब इतिहास लिखना था. नियति भी उनके साथ थी. सुनील गावस्कर जैसा बल्लेबाज वेस्टइंडीज में उनकी कप्तानी में अपना टेस्ट करियर शुरु करने जा रहा था. उनके पास बेदी, प्रसन्ना और चंद्रशेखर की ऐसी तिकड़ी थी कि यह तय करना मुश्किल हो जाता था कि किसे टीम में रखा जाए.

वेस्टइंडीज और इंग्लैंड की जीत ने अजीत वाडेकर को राष्ट्रीय हीरो बना दिया. 1971 का ओवल टेस्ट जीतने के बाद भारतीय टीम को बंबई के सांताक्रूज हवाई अड्डे आना था. लेकिन फ्लाइट को दिल्ली घुमा दिया गया. रामचंद्र गुहा लिखते हैं, ‘प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने मुख्यमंत्रियों को भी मिलने के लिए महीनों इंतज़ार करवाती थीं. लेकिन इस विजयी टीम से मिलने का महत्व वे भी जानती थीं. सभी खिलाड़ियोंं ने दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात की.’

वह जीत इतनी बड़ी थी कि उस समय की चर्चित साप्ताहिक पत्रिका इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया ने नौ पेज का सप्लीमेंट निकाला और उसमें सर डॉन ब्रेडमैन और कीथ मिलर जैसे खिलाड़ियों के बधाई संदेश छापे. 1972-73 में भारत दौरे पर आई इंग्लैंड की टीम को हराने के बाद अजीत वाडेकर और उनकी टीम सातवें आसमान पर थी.

लेकिन जैसे-जैसे भारत में क्रिकेट लोकप्रिय हो रहा था. खिलाड़ियों से प्रदर्शन की अपेक्षा बढ़ रही थी. प्रदर्शन हमेशा एक जैसा नहीं रहता. 1974 में वाडेकर के नेतृत्व में टीम इंग्लैंड गई. दिलीप सरदेसाई टीम में नहीं थे. गावस्कर फॉर्म में नहीं थे. नतीजा टीम सभी टेस्ट बुरी तरह हारी. एक मैच में भारत की पूरी टीम महज 42 रन पर आउट हो गई. इसे ‘समर ऑफ 42’ कहा गया. जो भीड़ अजीत वाडेकर को सिर-माथे पर बैठाती थी उसी ने उनके घर पर पत्थर फेंके.

बाएं हाथ के इस स्टाइलिश आक्रामक बल्लेबाज ने भारत की ओर से 37 टेस्ट खेले और 2113 रन बनाए. उनके नाम एक शतक (143) और 14 अर्धशतक हैं. अजीत की कप्तानी में भारत ने 16 टेस्ट खेले जिनमें से उसने चार जीते और चार हारे. आठ मैच ड्रा रहे. आंकड़ों की दर उन्हें भारत का सफलतम कप्तानों में शुमार करती है. हालांकि क्रिकेट विशेषज्ञोंं का एक खेमा मानता है कि कप्तानी और फिर सफलतम कप्तान बने रहने के दबाव ने उनकी बल्लेबाजी को खासा प्रभावित किया. घरेलू क्रिकेट के कुछ विवादों के चलते अजीत वाडेकर ने 1974 में खेल से संन्यास ले लिया.

अजीत वाडेकर के खेल के अलावा उनके व्यक्तित्व के तमाम पहलू हैं जो खासे मजेदार हैं. मसलन एक बार वे इंग्लैंड में जल्दी आउट हो गए. बाउंड्री के बाहर एक पत्रकार उनसे बात करना चाह रहा था. लेकिन वाडेकर उसके हर सवाल के जवाब में कह देते थे- नो इंग्लिश. आखिर में उस पत्रकार ने खीझकर कहा, ‘अजीत तुम पूरे टूर पर मुझसे इंग्लिश में बात करते आए हो. आखिर ऐसा क्या हो गया कि तुम इतनी जल्दी सारी इंग्लिश भूल गए.’

जब अजीत वाडेकर पहली बार बतौर कप्तान वेस्टविंडीज में सर गैरी सोबर्स की टीम से खेलने पहुंचे तो उस सीरीज में सुनील गावस्कर ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था. शुरू के मैच में गावस्कर ने अच्छा खेला और उनके कुछ कैच भी छूटे. इसके बाद गैरी सोबर्स भारतीय टीम के ड्रेसिंग रूम में आते और गावस्कर का कंधा छूकर चले जाते. उनका अंधविश्वास था कि इस समय गावस्कर की किस्मत अच्छी है और उनका कंधा छूने से कुछ गुडलक उन्हें भी मिल जाएगा. तीसरे टेस्ट में यह बात वाडेकर को पता चली. इस टेस्ट की पहली पारी में गावस्कर और गैरी की मुलाकात नहीं हो सकी. दूसरी पारी में गैरी भारतीय टीम के ड्रेसिंग रूम में पहुुंचे तो अजीत वाडेकर ने गावस्कर को धकेल कर वॉशरूम में बंद कर दिया. गैरी उन्हें ढूंढते ही रह गए. इत्तफाक देखिए कि गैरी सोबर्स उस पारी में सस्ते में आउट हो गए.

संंन्यास लेने के बाद 1990 में अजीत वाडेकर भारतीय टीम से बतौर मैनेजर जुड़े. तत्कालीन कप्तान अजहरुद्दीन से उनके रिश्ते बहुत अच्छे थे. 2007 में अजित आईसीएल से भी जुड़े, लेकिन इस लीग के अवैध घोषित होने के बाद 2009 में वे फिर बीसीसीआई के साथ जुड़ गए.

अजित वाडेकर अब हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन इंजीनियर बनने की ख्वाहिश रखने वाला यह शख्स भारतीय क्रिकेट का ऐसा आर्किटेक्ट है, जिसने हमें विदेशी पिचों पर जीतना सिखाया.