किस्सा है कि राम भक्त तुलसी एक बार घाट से स्नान करके घर जा रहे थे. रास्ते में उन्हें कन्हैया जी के दर्शन हो गए. और दर्शन भी क्या हुए! बांके बिहारी वाली छवि में खड़े हुए थे कन्हैया जी. यानी सिर पर मोर पंखी और होंठों पर बांसुरी और त्रिभंगी मुद्रा. तुलसी ने उन्हें प्रणाम किया और चल दिए. कृष्ण हतप्रभ रह गए! आख़िर तीन लोक के नाथ थे, महाभारत के सूत्रधार थे, द्वापर के सबसे बड़े पात्र थे. राम में तो 12 कलाएं मानी जाती हैं. कृष्ण 16 कलाओं से परिपूर्ण थे. उनकी अनदेखी! कृष्ण ने जब उनसे इस उपेक्षा का कारण पूछा तो तुलसी बोले, ‘क्या कहूं छबि आपकी, भले बने हो नाथ. तुलसी मस्तक जब नवे, धनुस बान हो हाथ.’
अब तुलसी तो सबसे बड़े राम भक्त, शायद हनुमान से भी बड़े. पर कृष्ण के भी भक्त कम नहीं हुए हैं. हिंदू धर्म के अलावा इस्लाम, ईसाई, जैन और सिख मज़हबों के अनुयायी तक कृष्ण की लीला से विस्मित रहे हैं. ग़लत नहीं होगा अगर कहें कि कृष्ण गंगा-जमुनी तहज़ीब के सबसे बड़े प्रतीक हैं.
कृष्ण भक्ति और सूफ़ीवाद का मिलन
ग्यारहवीं शताब्दी के बाद इस्लाम भारत में तेज़ी से फैला. लगभग इसी समय भक्ति काल और सूफ़ीवाद में ज़बरदस्त संगम हुआ और भारत में इस्लाम कृष्ण के प्रभाव से अछूता नहीं रह पाया. सूफ़ीवाद ईश्वर और भक्त का रिश्ता प्रेमी और प्रेमिका के संबंध की मानिंद मानता है. इसलिए राधा या फिर गोपियां या सखाओं का कृष्ण से प्रेम सूफ़ीवाद की परिभाषा में एकदम सटीक बैठ गया. नज़र ज़ाकिर अपने लेख ‘ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ बांग्ला लिटरेचर’ में लिखते हैं कि चैतन्य महाप्रभु के कई मुस्लिम अनुयायी थे.
स्वतंत्रता सेनानी, गांधीवादी और उड़ीसा के गवर्नर रहे बिशंभर नाथ पांडे ने वेदांत और सूफ़ीवाद की तुलना करते हुए एक लेख में कुछ मुसलमान कृष्ण भक्तों का ज़िक्र किया है. इनमें सबसे पहले थे सईद सुल्तान जिन्होंने अपनी क़िताब ‘नबी बंगश’ में कृष्ण को नबी का दर्ज़ा दिया. दूसरे, अली रज़ा. इन्होंने कृष्ण और राधा के प्रेम को विस्तार से लिखा. तीसरे, सूफ़ी कवि अकबर शाह जिन्होंने कृष्ण की तारीफ़ में काफी लिखा. बिशंभर नाथ पांडे बताते हैं कि बंगाल के पठान शासक सुल्तान नाज़िर शाह और सुल्तान हुसैन शाह ने महाभारत और भागवत पुराण का बांग्ला में अनुवाद करवाया. ये उस दौर के सबसे पहले अनुवाद का दर्ज़ा रखते हैं.
और उस दौर के सबसे मशहूर कवि अमीर ख़ुसरो की कृष्ण भक्ति की बात ही कुछ और है. बताते हैं एक बार निज़ामुद्दीन औलिया के सपने में श्रीकृष्ण आये. औलिया ने अमीर ख़ुसरो से कृष्ण की स्तुति में कुछ लिखने को कहा तो ख़ुसरो ने मशहूर रंग ‘छाप तिलक सब छीनी रे से मोसे नैना मिलायके’ कृष्ण को समर्पित कर दिया. इसमें कृष्ण का उल्लेख यहां मिलता है, ‘...ऐ री सखी मैं जो गई थी पनिया भरन को, छीन झपट मोरी मटकी पटकी मोसे नैना मिलाईके...’
भक्ति काल के रसखान
भक्ति काल के कबीर, नामदेव और एकनाथ तुकाराम जैसे चिंतकों ने निर्विकार की पूजा को महत्व दिया, पर वहीं कुछ मुसलमान कवियों पर कृष्ण हावी हो गए. इनमें सईद इब्राहिम उर्फ़ ‘रसखान’ का नाम सबसे पहले आता है. बिल्कुल सूरदास की तरह उन्होंने भी कृष्ण लीलाओं का वर्णन किया है. रसखान की कृष्ण भक्ति को अब क्या कहिए. भागवत पुराण का फ़ारसी में अनुवाद करने वाले रसखान की कृष्ण कल्पना में ठेठ ब्रज भाषा छलकती है. उनका कृष्ण वर्णन कुछ ऐसा है मानो कृष्ण उनके सामने ही लीला कर रहे हैं. मसलन, वे देख रहे हैं कि कभी कृष्ण पहाड़ उठा रहे हैं तो कभी धूल से सने हुए हैं. कभी व्यास, नारद को छका रहे हैं तो कभी कृष्ण गोपियों की चिरोरी करते हुए छाछ मांग रहे हैं.
‘सेस, गनेस, महेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावें
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुभेद बतावें
नारद से सुक ब्यास रहें पचि हारे तऊ पुनि पार न पावें
ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर छाछ पे नाच नचावें
गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा लेने के बाद रसखान वृन्दावन में ही बस गए. अंतिम सांस उन्होंने मथुरा में ली थी और वहीं उनका मकबरा भी है.
आलम शेख़
आलम शेख़ रीति काल के कवि थे. उन्होंने ‘आलम केलि’, स्याम स्नेही’ और माधवानल-काम-कंदला’ नाम के ग्रंथ लिखे. ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि आलम हिंदू थे जो मुसलमान बन गए. उनका मानना है कि प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना ‘रसखान’ से होनी चाहिए.
‘पालने खेलत नंद-ललन छलन बलि,
गोद लै लै ललना करति मोद गान है ।
‘आलम’ सुकवि पल पल मैया पावै सुख,
पोषति पीयूष सुकरत पय पान है ।
नंद सों कहति नंदरानी हो महर सुत,
चंद की सी कलनि बढ़तु मेरे जान है ।
आइ देखि आनंद सों प्यारे कान्हा आनन में,
आन दिन आन घरी आन छबि आन है ।
नज़ीर अकबराबादी
रीति काल के अंतिम सालों में नज़ीर अकबराबादी का कृष्ण प्रेम तो रसखान के कृष्ण प्रेम से टक्कर लेता हुआ दिखता है. कुछ ऐसी रार जैसी मीरा को राधा से रही होगी. वैसे इतिहास में राधा का पात्र जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ के बाद ही आता है.
कृष्ण उपासना का प्रचलन इसी दौरान अधिक हुआ. नज़ीर की दृष्टि में श्रीकृष्ण दुःख हरने वाले, कृपा करने वाले और परम आराध्य ही हैं. उनके लिए कृष्ण पैगंबर जैसे हैं. उन्होंने कृष्णचरित के साथ रासलीला का वर्णन किया है तो कृष्ण के बड़े भाई बलदेव पर ‘बलदेव जी का मैला’ नामक कविता लिखी. कृष्ण की तारीफ़ में लिखते हुए वे उन्हें सबका ख़ुदा बताते हैं.
‘तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी
हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी
तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा
तू बहरे करम है नंदलला, ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी.’
एक कविता में वे कृष्ण पर लिखते हैं:
‘यह लीला है उस नंदललन की, मनमोहन जसुमत छैया की
रख ध्यान सुनो, दंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की.’
बताते हैं कि भीख मांगने वाले जोगी के निवेदन पर नज़ीर ने ‘कन्हैया का बालपन’ कविता कही
‘क्या-क्या कहूं किशन कन्हैया का बालपन
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन.’
इस कविता में पूरे 32 छंद हैं जिनमें कृष्ण के एश्वर्य और माधुर्य दोनों का ज़बरदस्त वर्णन है.
वाजिद अली शाह का कृष्ण प्रेम
देखिये यूं तो फैज़ाबाद का राम लला प्रेम जगज़ाहिर है. पर वहां से निकले और लखनऊ आकर बसे नवाबों के आख़िरी वारिस वाजिद अली शाह कृष्ण के दीवाने थे. 1843 में वाजिद अली शाह ने राधा-कृष्ण पर एक नाटक करवाया था. लखनऊ के इतिहास की जानकार रोज़ी लेवेलिन जोंस ‘द लास्ट किंग ऑफ़ इंडिया’ में लिखती हैं कि ये पहले मुसलमान राजा (नवाब) हुए जिन्होंने राधा-कृष्ण के नाटक का निर्देशन किया था. लेवेलिन बताती हैं कि वाजिद अली शाह कृष्ण के जीवन से बेहद प्रभावित थे. वाजिद के कई नामों में से एक ‘कन्हैया’ भी था.
कृष्ण और बॉलीवुड
वाजिद अली शाह के बाद तो अंग्रेज़ आ गए थे. विलियम जे हंटर, जॉन मिल, जॉन बेर्वेर्ली निकोल्स जैसे लेखकों और विचारकों ने हमारे ज़हनों में झूठ ठूंस-ठूंस कर साबित कर दिया कि हिंदू और मुस्लिम साथ नहीं रह सकते क्यूंकि दोनों मुख्तलिफ़ कौमें हैं. आज़ादी के बाद बॉलीवुड में राजा मेहदी अली खान, शकील बदायूंनी जैसे गीतकारों का कृष्ण वर्णन बेहद शानदार है. पर एक शायर का नाम लिए बिना यह लेख ख़त्म नहीं हो सकता. वे थे निदा फ़ाज़ली. जितना अच्छा उन्होंने कृष्ण पर लिखा इस दौर में शायद ही कोई लिख पाया. उनका एक शेर देखिये:
‘फिर मूरत से बाहर आकर चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला.’
हम मुख्तलिफ़ थे, कोई शक नहीं. पर साथ थे, इसमें भी कोई शक नहीं.
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