बीते करीब एक हफ्ते से पुणे पुलिस की कार्रवाई राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है. उसने माओवादियों की एक साजिश का भांडाफोड़ करने का दावा किया है. पुणे पुलिस का कहना है कि इस साजिश के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या और उनकी सरकार को उखाड़ फेंकने की योजना थी. उसके मुताबिक इसके सबूत उसे तब मिले जब वह इसी साल एक जनवरी को महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हुई जातीय हिंसा के मामले की जांच कर रही थी.
पुलिस ने बीते शुक्रवार जो प्रेस कॉन्फ्रेंस की है उसके मुताबिक इस साजिश का दायरा देश के बाहर भी फैला हुआ है. पुणे पुलिस का कहना है कि कई दशकों से देश के मध्य और पूर्वी इलाकों के जंगलों में गुरिल्ला लड़ाई लड़ रहे प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) के सदस्य पेरिस में बैठकें कर रहे थे. यह भी कि वे रूस और चीन से हथियार खरीद रहे थे. पुलिस के मुताबिक वे आपस में एक दूसरे को चिट्ठियां भी लिख रहे थे जिनमें उनके नाम भी दर्ज हैं और उनकी साजिश से जुड़ी अहम जानकारियां भी.
पुलिस के दावे पर जाएं तो छह शहरों में मारे गए छापों में उसे ये चिट्ठियां मिली हैं. इस दौरान 10 सामाजिक कार्यकर्ताओं और मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले वकीलों को हिरासत में लिया गया है. इनमें से पांच की गिरफ्तारी बीते जून में हुई थी और बाकी पांच की 28 अगस्त को.
गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ताओं के बारे में पुणे पुलिस ने बीते बुधवार को अदालत में बताया कि वे ‘अर्बन नक्सल’ यानी शहरी नक्सली हैं, और खुद को मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों के रूप में पेश करते हैं. उसके मुताबिक इनमें से एक ने मॉब लिंचिंग पर एक फोटो प्रदर्शनी का आयोजन किया था जिसका मकसद नौजवानों को सरकार के खिलाफ भड़काना था. पुलिस ने ऐसे कई दावे किए हैं. मसलन इन सभी का एक ‘फासीवाद विरोधी फ्रंट’ है. पुलिस ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इन चिट्ठियों के कई अंश पढ़कर भी सुनाए. इसमें से एक में कहा गया था कि ‘लगातार विरोध प्रदर्शनों और अराजकता से धीरे-धीरे कानून-व्यवस्था ढह जाएगी और इसके आने वाले महीनों में अहम राजनीतिक परिणाम होंगे.’
इन गिरफ्तारियों का काफी विरोध हो रहा है. कई प्रबुद्ध हस्तियों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर इन्हें रद्द करने की अपील की है. इस याचिका में कहा गया है कि इन सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ हुई कार्रवाई पुलिस को मिली शक्तियों का गंभीर दुरुपयोग है. इसमें यह भी आरोप लगाया गया है कि इस तरह की कार्रवाई के जरिये सत्ताधारी पार्टी से अलग विचारधाराओं का गला घोंटने की कोशिश की जा रही है.
सत्याग्रह की सहयोगी वेबसाइट स्क्रोल.इन ने इस मामले की पड़ताल की. मुंबई और पुणे में हमारे चार संवाददाताओं ने 30 से ज्यादा साक्षात्कारों, दर्जनों पुलिस और अदालती दस्तावेजों और बीते कुछ समय के दौरान की गई रिपोर्टों से मिली जानकारियों को आपस में जोड़ा. इससे पता चलता है कि राजनीतिक भेदभाव के आरोप, प्रक्रियागत खामियां और सवालिया दावे पुलिस की पड़ताल पर गंभीर सवाल उठाते हैं.
लेकिन सबसे पहले एक नजर में घटनाओं के इस सिलसिले को समझते हैं.
इस साल एक जनवरी को पुणे से 30 किलोमीटर दूर भीमा कोरेगांव में दलितों के एक आयोजन के दौरान हिंसा हुई. इस आयोजन से एक दिन पहले पुणे में अंबेडकरवादी संगठनों और वामपंथी कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई थी.
कुछ दावों में कहा गया कि इस नए लेकिन राजनीतिक रूप से ताकतवर गठजोड़ से सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को खतरा दिख रहा है इसलिए उसने अपने सहयोगी हिंदुत्ववादी संगठनों को भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़काने के लिए कहा. दूसरी तरफ, कुछ ने यह भी दावा किया कि पुणे में हुई उस बैठक में भड़काऊ बयान दिए गए थे जिनसे हिंसा भड़की.
इन दावों के नतीजे में कई एफआईआर दर्ज हुई थीं. एक मामला उन दो हिंदुत्ववादी नेताओं के खिलाफ दर्ज किया गया जिन्होंने इस बैठक का विरोध किया था. उन सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी मामले दर्ज हुए जिन्होंने इस बैठक में हिस्सा लिया था और उनके खिलाफ भी जिन्होंने इसमें भाषण दिए थे.
हिंदुत्वादी नेताओं के खिलाफ जो मामला दर्ज हुआ था उसमें थोड़े से समय के लिए एक नेता को गिरफ्तार किया गया. दूसरे से पूछताछ तक नहीं हुई. धीरे-धीरे पुणे पुलिस की कार्रवाई उस शिकायत पर केंद्रित हो गई जिसमें आरोप लगाया गया था कि वह बैठक माओवादियों द्वारा ‘दलित समुदाय को गुमराह करने के लिए’ आयोजित की गई थी.
इसी मामले में कार्रवाई करते हुए पुलिस ने देश के छह शहरों में छापामारी कर दलित और आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले 10 सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों को गिरफ्तार किया. पुलिस की इस पड़ताल पर राजनीतिक भेदभाव ही नहीं बल्कि प्रक्रियागत खामियों के भी आरोप लगे हैं. मसलन छापों के दौरान सर्च वारंट नहीं दिखाए गए, जहां दिखाए गए वहां मराठी से इनका संबंधित भाषाओं में अनुवाद नहीं किया गया था. गिरफ्तार किए गए सामाजिक कार्यकर्ताओं को उनके वकील को कोई उचित नोटिस दिए बिना ही अदालत में पेश कर दिया गया. इसके अलावा कथित तौर पर इन कार्यकर्ताओं से बरामद चिट्ठियों को पढ़कर मीडिया के सामने सुनाया गया लेकिन उन्हें अदालत में जमा नहीं किया गया. इसके लिए बॉम्बे हाईकोर्ट ने पुलिस को फटकार भी लगाई है. जानकारों के मुताबिक इन चिट्ठियों की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है.

समारोह
घटनाओं का यह जटिल सिलसिला तब शुरू हुआ जब हमेशा की तरह इस साल के पहले दिन भी बड़ी संख्या में दलित समुदायों के लोग भीमा कोरेगांव में इकट्ठा हुए. यह आयोजन 1818 में हुई एक विजय की याद में होता है. उस साल महार सैनिकों की एक छोटी सी टुकड़ी ने कहीं बड़ी पेशवा बाजारीव द्वितीय की सेना को हरा दिया था. 2018 में इस विजय को 200 साल पूरे हो रहे थे इसलिए इस बार यह आयोजन भी थोड़ा जल्दी शुरू हो गया. दिसंबर 2017 के आखिरी हफ्ते में हजारों दलितों ने भीमा कोरेगांव की तरफ कूच करना शुरू कर दिया. 31 दिसंबर को पेशवाओं की गद्दी रहे पुणे के शनिवारवाड़ा किले में एक बैठक का आयोजन हुआ. यलगार परिषद नाम की इस बैठक में 250 से भी ज्यादा संगठन शामिल हुए. आयोजनकर्ताओं ने इसमें करीब 35 हजार लोगों के मौजूद होने का दावा किया था. हालांकि पुलिस यह संख्या करीब साढ़े चार हजार बताती है. बैठक के प्रमुख आयोजनकर्ताओं में दो रिटायर्ड जज, दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन रिपब्लिकन पैंथर्स के कार्यकर्ता और कबीर कला मंच नाम के एक सांस्कृतिक संगठन के सदस्य शामिल थे.

इस बैठक में कई सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए. बहुत से दलित और आदिवासी नेताओं ने भाषण भी दिए. इनमें गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी भी शामिल थे जिन्होंने लोगों से आह्वान किया कि वे सड़क पर उतरकर क्रांति करें और नई पेशवाई को उखाड़ फेंकें. जिग्नेश मेवाणी का कहना था, ‘अगर इस देश में कभी क्रांति होगी तो वह लोकसभा या विधानसभा के जरिये नहीं बल्कि सड़क पर संघर्ष से होगी.’ उनका यह भी कहना था कि जाति का खात्मा भी सड़क पर संघर्ष के जरिये होगा. आखिर में सबके द्वारा संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ के साथ बैठक खत्म हुई.
लेकिन अब पुणे पुलिस का दावा है कि यलगार परिषद उस माओवादी साजिश का हिस्सा थी जिसका मकसद भारत सरकार को उखाड़ फेंकना है. उसने जिन लोगों के खिलाफ छापामारी और गिरफ्तारी की कार्रवाई की है उनमें इस बैठक के कुछ आयोजनकर्ता भी हैं. पुलिस ने इन पर माओवादियों से रिश्ते रखने और बैठक का इस्तेमाल अराजकता फैलाने के लिए करने का आरोप लगाया है.

जैसा कि जिक्र हुआ इस बैठक के आयोजनकर्ताओं में दो रिटायर्ज जज भी शामिल थे. वे पुलिस के आरोपों को खारिज करते हैं. उनका कहना है कि इस बैठक का मकसद सांप्रदायिकता और खासकर गोरक्षा के नाम पर हिंदुत्ववादी संगठनों की बढ़ती हिंसा के विरोध में किया गया था. आरिफा जौहरी से बातचीत में जस्टिस पीबी सांवत कहते हैं, ‘यलगार का मतलब ही है जोरदार तरीके से आह्वान और हमारा मुख्य विषय था संविधान और देश को बचाना.’
तो सवाल उठता है कि पुलिस को माओवादी साजिश का पता कैसे चला?
हिंसा
दो सदी पुरानी घटना पर भीमा कोरेगांव में दलित समुदाय का जश्न कोई नई बात नहीं है. यह काफी समय से होता रहा है और शांति के साथ होता रहा है. इस गांव के लोगों का भी सामाजिक भाईचारे का इतिहास रहा है. लेकिन इस साल इसके पड़ोस में मौजूद एक गांव में इस सवाल को लेकर तनाव भड़कने लगा था कि मराठा शासक संभाजी का अंतिम संस्कार किस समुदाय ने किया था - महारों ने या मराठाओं ने
आयोजन वाले दिन की सुबह हिंसा भड़क उठी. इस समारोह के लिए ख़ास तौर पर यहां आए दलित समुदाय के लोगों का कहना था कि उन पर केसरिया झंडा लिए हुए कुछ लोगों ने हमला किया था. जबकि स्थानीय निवासियों का दावा था कि दलितों ने उन्हें निशाना बनाया. इस हिंसा में मराठा समुदाय के एक व्यक्ति की मौत हो गई.
अगले दिन जब मृदुला चारी यहां पहुंचीं तो उन्होंने देखा कि बिरयानी की एक दुकान जलकर ख़ाक हो चुकी है. यह दुकान दलित समुदाय के एक व्यक्ति की थी. इसके बारे में जब पता किया गया तो मराठा समुदाय के एक समूह ने माना कि उसने इस दुकान में आग लगाई है.

इस गांव से सुलगी हिंसा की आग जल्दी ही पश्चिमी महाराष्ट्र के दूसरे हिस्सों में भी फैल गई. इसी मुद्दे को लेकर दलित संगठनों ने तीन जनवरी को विरोध रैली भी आयोजित की. इस दौरान पुलिस ने सिर्फ मुंबई में ही 300 से अधिक दलितों को ग़िरफ़्तार कर लिया. इनमें से कुछ तो 14 साल के लड़के ही थे. इनमें से कई पिछले आठ महीनों से कानूनी मदद हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
हिंसा अभी पूरी तरह शांत भी नहीं हुई थी कि ये सवाल सिर उठाने लगे कि आख़िर इसका ज़िम्मेदार कौन है? इसके ताल्लुक़ विरोधाभासी बयान भी सामने आने लगे.
शिकायतें
तीन जनवरी को 39 साल की दलित सामाजिक कार्यकर्ता अनीता सावले ने शिकायत दर्ज़ कराई. इसमें आरोप लगाया गया था कि उन्होंने ‘दो हिंदूवादी नेताओं - संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे - के समर्थकों को भीमा कोरेगांव में तोड़-फोड़ करते देखा था. वे लोगों के साथ मारपीट कर रहे थे. उन पर पत्थरबाज़ी कर रहे थे. वे लोग हथियार भी लिए हुए थे. उन्होंने अंबेडकरवादियों के झंडे भी जलाए.’
इस शिकायत के आधार पर पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज़ कर ली. इसमें भिड़े और एकबोटे का उल्लेख भी संदिग्ध के तौर पर किया गया था. उन पर जातिगत अत्याचार, पवित्र चीजों को क्षति पहुंचाना, ग़ैरकानूनी तौर पर इकट्ठा होना और हथियारों के साथ दंगा करने जैसे आरोप लगाए गए थे. 84 साल के भिड़े राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के पूर्व स्वयंसेवक हैं. उन्हें प्रभावशाली आध्यात्मिक नेता माना जाता है. पश्चिमी महाराष्ट्र में उनके समर्थकों की तादाद अच्छी-ख़ासी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें 2014 में एक सभा के दौरान ‘सबसे सम्मानित भिड़े गुरुजी’ कहकर संबोधित किया था.
वहीं 65 साल के एकबोटे पूर्व पार्षद हैं. उनका नाम 2003 के सातारा दंगों के मामले में सामने आया था. पुलिस का कहना था कि वे एक गौरक्षक दल का नेतृत्व करते हैं जो गौरक्षा के नाम पर अवैध वसूली और हिंसा की गतिविधियों को अजाम देता है.
भीमा-कोरेगांव की हिंसा के मामले में दोनों ही अपने ऊपर लगे आरोपों को ख़ारिज़ करते हैं. इनमें भिड़े का दावा है कि जिस वक़्त हिंसा भड़की वे दूसरे जिले में थे.

पुलिस ने इस मामले में अपनी जांच पूरी कर ली है और वह आरोप पत्र दायर करने को तैयार है. इस बीच उसने एकबोटे को मार्च में ग़िरफ़्तार किया था लेकिन बाद में उन्हें ज़मानत पर छोड़ दिया गया. लेकिन भिड़े से उसने अब तक पूछताछ भी नहीं की है. इस बाबत पुणे के पुलिस अधीक्षक (एसपी) संदीप पाटिल ने अभिषेक डे को बताया कि पुलिस एकबोटे के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दाखिल करेगी. लेकिन उसे भिड़े के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिले हैं.
इसी मामले में एक दूसरी शिकायत भी तीन जनवरी को ही दर्ज़ कराई गई. यह विश्रामबाग पुलिस थाने में दर्ज़ हुई थी. अक्षय बिक्कड़ नाम के एक 23 वर्षीय छात्र ने यह शिकायत दर्ज़ कराई थी. अक्षय पुणे विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के छात्र हैं. वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से भी जुड़ा रहे हैं, जो कि आरएसएस का छात्र संगठन है. हालांकि अक्षय अब ख़ुद को उससे अलग बताते हैं. अक्षय का दावा है कि उन्होंने अपने दोस्त आनंद धोंड़ के साथ यलगार परिषद में हिस्सा लिया था. आनंद भी एबीवीपी का सदस्य है.
अपनी शिकायत में अक्षय ने आरोप लगाया है कि सभा में ‘भड़काऊ भाषण दिए गए थे’ जिससे कि ‘दो समुदायों के बीच संघर्ष पैदा किया जा सके.’ इस शिकायत के आधार पर दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और छात्र नेता उमर ख़ालिद को संदिग्धों में शामिल करते हुए उनके ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज़ की गई. इन पर दो समुदायों के बीच संघर्ष भड़काने और ऐसे भाषण देने का आरोप लगाया गया जिससे लोग व्यवस्था के ख़िलाफ संघर्ष के लिए प्रोत्साहित हों.
लेकिन ग़ौर करने की बात है कि अब तक आठ महीने बीत गए लेकिन ख़ालिद और मेवाणी से पुलिस ने पूछताछ तक नहीं की. इस बाबत पुणे के संयुक्त पुलिस आयुक्त (जेसीपी) शिवाजी बोडके कहते हैं, ‘जांच अभी जारी है.’ वहीं मेवाणी इन आरोपों को ‘बेबुनियाद’ बताते हैं. उनके मुताबिक, ‘कोई भी मेरे भाषण का किसी भी संविधान विशेषज्ञ, आपराधिक मामलों के जाने-माने वकील या उच्च अथवा उच्चतम न्यायालय के जज से परीक्षण करा सकता है. अगर ये लोग परीक्षण के बाद मेरे भाषण में एक भी शब्द ऐसा पाते हैं, जो भड़काऊ था तो मैं सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लूंगा.’ इसी तरह ख़ालिद भी कहते हैं, ‘हमारे भाषण के वीडियो सार्वजनिक हैं. इन्हें कहीं से भी हासिल किया जा सकता है. लोग इन्हें देख-सुन सकते हैं. उन्हें देखना-सुनना चाहिए. बजाय इसके कि वे राजनीति से प्रेरित आरोपों पर यक़ीन करें.’

इस केस में तीसरी शिकायत चार जनवरी को दर्ज़ हुई. पुणे के कारोबारी तुषार दामगुडे ने इसे दर्ज़ कराया. तुषार का दावा है कि यलगार परिषद के दौरान दिए गए भड़काऊ भाषणों को उन्होंने ख़ुद सुना है. बिक्कड़ और धोंड़ से भी एक कदम आगे जाते हुए दामगुडे यह भी दावा करते हैं कि सभा के आयोजकों में कुछ लोगों के माओवादियों से भी संपर्क-संबंध हैं. उन्होंने अपनी शिकायत में कहा है, ‘उनका एजेंडा दलित समुदाय को बरगलाना है. उनके बीच माओवादी विचारधारा को मज़बूत करना है. ताकि वे लोग हिंसा का रास्ता अख़्तियार कर सकें. ये लोग अपने साहित्य, किताबों और भाषणों आदि से समाज में वैमनस्य पैदा करना चाहते हैं.’ दामगुड़े ने भी यह शिकायत विश्रामबाग पुलिस थाने में ही दर्ज़ कराई.
इस शिकायत के आधार पर पुणे पुलिस ने आठ जनवरी को एक और प्राथमिकी दर्ज़ की. रिकॉर्ड में यह केस 04/2018 नंबर से दर्ज़ है. इसमें परिषद के आयोजकों में शामिल छह सामाजिक कार्यकर्ताओं को संदिग्ध के तौर पर शामिल किया गया है.

यही वह मामला है कि जिसकी जांच के दौरान पुलिस ने देश के कई शहरों में छापा मारा. वह भी एक नहीं, तीन-तीन बार. इन छापों के जरिए 10 सामाजिक कार्यकर्ताओं को ग़िरफ़्तार किया गया. साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साज़िश का ख़ुलासा करने का दावा भी किया गया.
रिपोर्ट
सामाजिक कार्यकर्ताओं को माओवादियों के बीच संपर्क-संबंध का पता पुलिस को तुषार दामगुडे की शिकायत के अलावा एक और जगह से चला. पुणे का एक कम जाना-माना वैचारिक संगठन है - ‘फोरम फॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्योरिटी.’ इस संगठन के दो महामंत्रियों में से एक शेषाद्री चारी भी हैं, जो कि आरएसएस के वरिष्ठ स्वयंसेवक हैं. वे भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति में भी शामिल हैं.
इस संगठन ने इसी मार्च में एक रिपोर्ट जारी की थी. इसमें कहा था कि परिषद के आयोजकों ने इतिहास से छेड़छाड़ की है. उन्होंने 1818 की भीमा-कोरेगांव की लड़ाई को दलित अत्याचारों के ख़िलाफ़ हुआ संघर्ष बताया है. संगठन के मुताबिक यह वास्तव में माओवादियों की रणनीति का हिस्सा है. इसके जरिए वे दलितों को बरगलाकर अपने आंदोलन से जोड़ना चाहते हैं. रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया था कि ऐसे संगठन (यलगार परिषद जैसे) वास्तव में माओवादियों की मदद करते हैं ताकि वे लोग व्यवस्था के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष के लिए कार्यकर्ताओं की भर्ती कर सकें.
यह रिपोर्ट कैप्टन स्मिता गायकवाड़ ने तैयार की थी, जो भारतीय सेना की सेवानिवृत्त अफसर हैं. वे बाद में एक अन्य वैचारिक संगठन - विवेक विचार - मंच की फैक्ट फाइंडिंग कमेटी की प्रमुख भी रहीं. इस संगठन को आरएसएस का समर्थन हासिल है और इसे भारतीय जनता पार्टी के पूर्व सांसद प्रदीप रावत चलाते हैं.
छापामारी
अप्रैल की 17 तारीख. सुबह का वक़्त था. पुणे के वाकड़ में रहने वाले कबीर कला मंच के सागर गोरखे अभी सोकर ही उठे थे. तभी उन्होंने दरवाजे पर दस्तक सुनी. उन्होंने जब दरवाजा खोला तो देखा कि सामने पुलिस खड़ी है. पुलिस उनके घर की तलाशी लेना चाहती थी. इसके लिए मजिस्ट्रेट की ओर से जारी वारंट उसके पास नहीं था.
वे हमारे संवाददाता शोन सतीश को बताते हैं, ‘उन्होंने मेरा फोन ले लिया. मेरी पत्नी का भी फोन ले लिया जबकि उसका नाम तो एफआईआर में है ही नहीं.’ इसके बाद पुलिस ने घर में तमाम किताबों की छानबीन की और खासकर वे किताबें जिनके नाम में ‘विद्रोही’ या ‘क्रांति’ शब्द शामिल था, को जब्त कर लिया. इसके अलावा पुलिस ने पेन ड्राइव, मेमोरी कार्ड और यलगार परिषद के पर्चे भी जब्त कर लिए.
मुंबई और पुणे में रहने वाले कबीर कला मंच के दूसरे कार्यकर्ताओं के घरों पर भी इसी तरह छापा मारा गया. मुंबई में रिपब्लिकन पैंथर्स के सदस्य सुधीर धावले और हर्षाली पोतदार के घरों पर भी छापामारी हुई. नागपुर में सामाजिक कार्यकर्ता और वकील सुरेंद्र गाडलिंग के घर की भी तलाशी ली गई. यहां तक कि पुणे पुलिस की एक टीम दिल्ली में रहने वाले कार्यकर्ता रोना विल्सन के घर की तलाशी लेने भी पहुंची. हालांकि तब इनमें से किसी को भी हिरासत में नहीं लिया गया.

अगले दिन पुणे की पुलिस कमिश्नर रश्मि शुक्ला ने बताया कि पुलिस की यह छापामारी भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में विश्रामपुरबाग पुलिस स्टेशन में दर्ज केस नंबर 04/2018 की जांच का हिस्सा थी. यह भी एक गौर करने लायक बात है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का इस मामले में कुछ अलग ही कहना था. फडणवीस के मुताबिक केंद्रीय जांच एजेंसियां माओवादी समूहों के करीब समझे जाने वाले लोगों की गतिविधियों की जांच कर रही थीं और पुलिस ने उसी सिलसिले में छापामारी की थी.
यह भी एक दिलचस्प बात है कि छापामारी की इस घटना के दो हफ्ते पहले ही, 26 मार्च को धावले और पोतदार ने फडणवीस से मुलाकात की थी. तब ये दोनों प्रकाश अंबेडकर की अगुवाई वाले एक प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे और इन लोगों ने मुख्यमंत्री से मिलकर मांग की थी कि एक जनवरी को भीमा-कोरेगांव में दलितों पर हुए हमले में हिंदूवादी संगठनों की भूमिका की जांच की जाए. डॉ भीमराव अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर भारिपा बहुजन महासंघ के नेता हैं और वे भी यलगार परिषद की बैठक में शामिल हुए थे.

रिपब्लिकन पैंथर्स के एक और कार्यकर्ता वीरा साथीदार बताते हैं कि धावले, पोतदार और अन्य लोगों ने कुछ सोशल मीडिया पोस्ट और तस्वीरों के रूप में ऐसे सबूत जमा किए थे जिनसे दिसंबर के आखिरी हफ्ते के दौरान दक्षिणपंथी संगठनों की संदिग्ध गतिविधियों का पता चलता है.
कबीर कला मंच के सागर गोरखे बताते हैं, ‘हमारे पास एकबोटे के समर्थकों की वह फुटेज थी जिसमें ये लोग 31 दिसंबर को तलवारों और अन्य हथियारों के साथ दुर्गा दौड़ नाम से एक रैली आयोजित कर रहे थे.’
साथीदार दावा करते हैं कि एक जनवरी के हिंसक घटनाक्रम के बाद हिंदूवादी समूहों के सदस्यों ने फेसबुक पर कुछ पोस्ट डाली थीं और इनमें अफसोस जताया था कि ये लोग अपने नेताओं द्वारा तय किए गए लक्ष्य के मुताबिक दलितों को निशाना नहीं बना पाए. सबूत के तौर पर इन पोस्टों को भी जमा किया गया था. ‘लेकिन चौंकाने वाली बात है कि 17 अप्रैल को पुलिस ने हमारे यहां छापा मारा और इन सारे सबूतों को जब्त कर लिया’ गोरखे कहते हैं, ‘लेकिन शुक्र था कि हमने पहले ही इनकी कॉपियां बना ली थीं.’
इन कार्यकर्ताओं के मुताबिक सबूतों की ये कॉपियां 16 जुलाई को कोरेगांव-भीमा जांच आयोग के पास जमा करा दी गई हैं. महाराष्ट्र सरकार ने कलकत्ता हाई कोर्ट के पूर्व जज जेएन पटेल की अगुवाई में भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा की जांच के लिए इस आयोग का गठन किया है.
इस बीच पुलिस ने छह जून को दूसरे दौर की छापामारी के बाद धावले, गाडलिंग और विल्सन को हिरासत में ले लिया था. इनके साथ दो अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं महेश राउत और शोमा सेन को भी गिरफ्तार किया गया. वनाधिकार कार्यकर्ता राउत प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास शोधार्थी (पीएमआरडीएफ) रह चुके हैं तो वहीं सेन नागपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग के प्रमुख थे.

जिन पांच लोगों को हिरासत में लिया गया, इनमें से सिर्फ धावले का नाम दामगुडे की शिकायत के आधार पर दर्ज मूल एफआईआर – केस नंबर 04/2018 - में शामिल था. लेकिन बीते महीनों में पुलिस ने न सिर्फ अपनी जांच का दायरा बढ़ाया, बल्कि कानूनी शिकंजा और कसने की कोशिश भी की है. गाडलिंग की वकील सुजैन अब्राहिम बताती हैं कि अप्रैल में छापामारी के बाद आरोपितों के खिलाफ एक और अपराध दर्ज किया गया है. इनके खिलाफ आपराधिक धोखाधड़ी से संबंधित धारा 120(बी) भी लगा दी गई है.
वहीं मई में गैरकानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून के तहत इनके खिलाफ और संगीन अपराध दर्ज किए गए हैं. यह आतंकवाद निरोधक कानून पुलिस को अधिकार देता है कि वह अदालत में बिना आरोपपत्र दाखिल किए ही आरोपितों को छह महीने तक हिरासत में रख सकती है.
एक सितंबर को पुलिस ने पांचों कार्यकर्ताओं के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करने के लिए 90 दिन का वक्त मांगा था. इसके लिए जब आरोपितों को अदालत लाया गया तो उन्हें पहले से कोई नोटिस नहीं दिया गया था, इसका मतलब है कि बचाव पक्ष के वकीलों को मुकदमे की तैयारी का कोई वक्त ही नहीं मिला. इन वकीलों में शामिल राहुल देशमुख बताते हैं, ‘उन्हें (आरोपित सामाजिक कार्यकर्ताओं को) अदालत में पहुंचने के बाद वैन में ही नोटिस दिया गया था.’ राहुल को कोर्ट में अचानक जुटी भीड़ के जरिए ही पता चल पाया था कि आरोपितों को वहां लाया गया है.
पत्र
इन कार्यकर्ताओं के खिलाफ सबसे ज्यादा चौंकाने वाला आरोप आठ जून को जनता के सामने आया. उस दिन रिपब्लिक टीवी की एक हेडलाइन कुछ यूं मुनादी कर रही थी, ‘प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश का खुलासा करने वाला माओवादियों का लिखा एक पत्र बरामद.’
सात जून को पुणे पुलिस के डिप्टी कमिश्नर रवींद्र कदम ने पत्रकारों से बात करते हुए बताया था कि रोना विल्सन के लैपटॉप से कई दस्तावेज बरामद हुए थे. रिपब्लिक टीवी के मुताबिक यह पत्र भी इन्हीं दस्तावेजों में शामिल था.
रिपब्लिक टीवी का दावा था कि यह पत्र ‘कॉमरेड प्रकाश’ को संबोधित किया गया था और इसमें पत्र लिखने वाले ने अपना नाम सिर्फ ‘आर’ दर्ज किया है. इस पत्र का लेखक मोदी के नेतृत्व में भाजपा को मिल रही चुनावी सफलता से बहुत खिन्न था और आशंका जता रहा था कि इससे ‘पार्टी’ यानी कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) को खतरा हो सकता है.
इसके बाद पत्र लेखक राजीव गांधी की तर्ज पर हमले की संभावना पर विचार करने की बात कहता है. इस हवाले से यहां लिखा गया है, ‘यह सुनने में आत्मघाती लगता है और इस बात की बहुत संभावना है कि हम असफल हो जाएं, लेकिन हमें लगता है कि पार्टी की पीबी/सीसी (पोलित ब्यूरो/सेट्रल कमेटी) को इस प्रस्ताव पर विचार करना चाहिए.’
यह पत्र मीडिया में लीक किया गया था, लेकिन ताज्जुब की बात है कि इसे अदालत में जमा नहीं कराया गया. वहीं सरकारी वकील ने आरोपितों की जमानत याचिका का विरोध करते हुए इसे अदालत में सबके सामने पढ़कर भी सुनाया था.
सुरक्षा विशेषज्ञ इस पत्र की विश्वसनीयता पर सीधे-सीधे सवाल उठाते हैं. इंस्टिट्यूट ऑफ कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट के कार्यकारी निदेशक अजय साहनी कहते हैं, ‘कोई भी जो माओवादियों द्वारा अपनाए जाने वाले संवाद-संचार के तौर-तरीकों को जानता है, तुरंत ही इस पत्र को फर्जी बताकर खारिज कर देगा.’
इसके अलावा रिपब्लिक टीवी पर एक और पत्र की जमकर चर्चा हुई थी. इसे सुधा भारद्वाज द्वारा लिखा बताया जा रहा था. आईआईटी, कानपुर से पढ़ाई करने वालीं सुधा श्रमिक कार्यकर्ता हैं और बतौर मानवाधिकार वकील बीते तीस सालों से छत्तीसगढ़ में काम कर रही हैं. इस पत्र में माओवादी गतिविधियों के जिक्र के साथ पूरे भारत में ‘कश्मीर जैसे हालात’ पैदा करने की बात कही गई थी.
16 जुलाई को सुधा भारद्वाज ने उनके खिलाफ झूठे और अपमानजनक आरोप लगाने के लिए रिपब्लिक टीवी को नोटिस भेजा है.
इन दोनों पत्रों में कई जगह पर अरुण फरेरा, वरनॉन गोन्साल्वेज, गौतम नवलखा के साथ-साथ दूसरे मानवाधिकार वकीलों और कार्यकर्ताओं का उनके पहले नाम के साथ जिक्र है.
बाद में घटनाक्रम जिस तरह से आगे बढ़ा, वह बताता है कि यह पत्र एक तरह की चेतावनी थे.
फासीवाद विरोधी मंच
28 अगस्त की सुबह पुणे पुलिस की टीमों ने देश के छह शहरों – दिल्ली, फरीदाबाद, रांची, हैदराबाद, मुंबई और गोवा - में सामाजिक कार्यक्रतीओं के घरों पर छापा मारा. इसमें पांच लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. इनमें से चार – भारद्वाज, नवलखा, फरेरा और गोंजाल्वेज - का जिक्र लीक किये गये पत्रों में था. गिरफ्तार किये गये पांचवें व्यक्ति थे लेखक औऱ कवि वारवरा राव जो हैदराबाद में रहते हैं.
इस मामल में जो सर्च वारंट पेश किये गये थे वे विश्रामबाग थाने में तुषार दामगडे द्वारा दर्ज कराये गये केस - संख्या 04/2018 - का हिस्सा थे. लेकिन भारद्वाज, नवलखा और राव के मुताबिक ये सभी दस्तावेज सिर्फ मराठी में थे जिन्हें वे नहीं समझ सकते थे. इससे पहले कि इन तीनों को गिरफ्तार किया जाता ये लोग दिल्ली हाई कोर्ट में चले गये जिसने इनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी और पुणे पुलिस से इन्हें घर में नजरबंद रखने को कहा. अगले दिन दिल्ली हाई कोर्ट ने दस्तावेज मराठी में होने और पुणे पुलिस द्वारा गोतम नवलखा की गिरफ्तारी के गवाह महाराष्ट्र से लेकर आने पर भी सवाल उठाये.

29 अगस्त को लगभग इसी समय राव, फरेरा और गोंसाल्वेज को पुणे में अदालत के सामने पेश किया गया. यहां उन्हें हिरासत में लेने के पक्ष में सरकारी वकील उज्जवला प्रकाश का कहना था कि ये सभी एक फासीवाद विरोधी मंच का हिस्सा थे जो सरकार को उखाड़ फेंकना चाहता था. उनके इस दावे का बाद में काफी मजाक उड़ाया गया.
‘मुझे नहीं लगता कि सरकारी वकील को सही तरह से निर्देश दिये गये थे’ मुंबई के एक वकील युग चौधरी कहते हैं, ‘फासीवाद विरोधी होना गलत कैसे है? बल्कि ये तो अच्छी बात है. क्या सरकार फासीवाद का विरोध करने वालों को यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि अधिनियम) के तहत गिरफ्तार करके ये मान रही है कि वह फासीवादी सरकार है?’
सरकारी वकील ने ऐसे और भी कई दावे किये जो अभियोजन की पुलिस रिमांड की एप्लीकेशन में नहीं थे. स्क्रोल के साथ एक साक्षात्कार में सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी ने उनके इन सभी दावों पर कई सवाल उठाये.
इससे पहले कि पुणे कोर्ट इस मामले में कोई फैसला दे पाता, पांच लोगों की एक याचिका पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने छह सितंबर तक इन सभी को इनके घरों में ही नजरबंद रखने का आदेश दिया. ऐसा करते समय कोर्ट का कहना था कि ‘असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व होता है.’
पेरिस कनेक्शन
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी, गिरफ्तारियों की आलोचना और कोर्ट में पेश किये गये सबूतों पर तमाम विशेषज्ञों द्वारा सवाल उठाये जाने के बाद भी महाराष्ट्र पुलिस अपने इस दावे से टस से मस नहीं हुई कि गिरफ्तार किये गये कार्यकर्ता एक बड़ी माओवादी साजिश का हिस्सा थे.
शुक्रवार को, महाराष्ट्र के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून औऱ व्यवस्था) परमवीर सिंह ने एक प्रेस वार्ता आयोजित कर इस मामले से जुड़ी और जानकारियां दीं. ‘इस सबके पीछे माओवादी संगठनों की भारत सरकार को गिराने की एक बड़ी साजिश थी जिसके लिए हथियार रूस और चीन से लाये गये थे’ उनका कहना था, ‘गिरफ्तार किये गये आरोपितों ने इस साजिश में सक्रिय और अहम रोल अदा किया था.’
सिंह का कहना था कि इस भयानक साजिश को न केवल भारत बल्कि विदेश में भी रचा गया था. ‘गिरफ्तार किये गये आरोपितो ने (इसके लिए) पेरिस में भी मुलाकातें की थीं’ उन्होंने कहा, ‘और धन का इंतजाम वहीं से किया जा रहा था.’
परमवीर सिंह ने उन कई पत्रों के ऐसे हिस्सों को पढ़ा कि अगर उन पर विश्वास किया जाए तो वे इस साजिश के बारे में बेहद स्पष्ट तरीके से बताते हैं. प्रकाश द्वारा कॉमरेड आनंद को संबोधित एक पत्र में लिखा है, ‘अक्सर होने वाले विरोध प्रदर्शनों और अराजकता का नतीजा यह होगा कि कानून और व्यवस्था चौपट हो जाएगी और आने वाले समय में इसका महत्वपूर्ण राजनीतिक नतीजा देखने को मिलेगा. कृपया अमेरिका और फ्रांस में रहने वाले हमारे मित्रों के साथ समन्वय बनायें.’
सिंह ने उस पत्र के हिस्से को भी पढ़ा जिसे रिपब्लिक टीवी ने सार्वजनिक किया था. इसके बारे में उन्होंने दावा किया कि इसे रोना विल्सन ने कॉमरेड प्रकाश के लिए लिखा था. ‘मुझे आशा है कि अब तक आपको मीटिंग और एम-4 और उसके 40 लाख राउंड्स के लिए आठ करोड़ की जरूरत की जानकारी मिल गई होगी.’ सिंह का कहना था कि पत्र में एम-4 का मतलब ग्रेनेड लॉन्चर था.
लेकिन सरकारी वकील और पुलिस द्वारा किये गये ये सभी नाटकीय दावे कोर्ट के रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं हैं. अपने वकील द्लारा रिलीज किये गये एक पत्र में सुधा भारद्वाज ने इन्हें ‘पूरी तरह से मनगढ़ंत’ बताया है.
देश के जाने-माने सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी इसकी सख्त आलोचना करते हुए कहते हैं, ‘ये साफ है कि इनमें से कोई भी आरोप साबित नहीं होगा. लेकिन वे ऐसा करना चाहते भी नहीं हैं. ये मामला खिंचता रहेगा और इस तरह से आरोपितों को अपने-आप सजा मिलती रहेगी. हमारा न्याय तंत्र बहुत धीमा है और वह ऐसा दिखाता है मानो उसने अभियोजन की बेवकूफियों की तरह ध्यान ही नहीं दिया है. (इन वजहों से) आरोपित या तो जेल में सड़ते रहेंगे या फिर जमानत पर भी सालों तक न्यायिक प्रक्रिया में उलझकर परेशान होते रहेंगे. (इसका) बस केवल यही मकसद है.’
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