देश के दूसरे राष्ट्रपति और जाने-माने दार्शनिक डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन से जुड़ा एक ऐसा विवाद भी है जो हर साल कई लोगों को उनकी याद में शिक्षक दिवस मनाए जाने पर सवाल खड़े करने का मौक़ा देता है. यह विवाद उनकी प्रसिद्ध किताब ‘भारतीय दर्शन’ के दूसरे भाग से जुड़ा है. दावा किया जाता है कि इस किताब के दूसरे भाग को राधाकृष्णन ने नहीं लिखा था, बल्कि उन्होंने जदुनाथ सिन्हा नाम के एक छात्र की थीसिस को चोरी करके किताब तैयार की थी. यह भी कहा जाता है कि जदुनाथ की किताब और राधाकृष्णन की किताब की विषय सामग्री में बिलकुल अंतर नहीं है. दोनों एक दूसरे से हूबहू मिलती हैं.

1920 के दशक में कोलकाता (जो तब कलकत्ता था) में ‘मॉडर्न रिव्यू’ नामक एक मासिक पत्रिका प्रकाशित होती थी. जनवरी 1929 के उसके प्रकाशन में जदुनाथ सिन्हा नाम के एक छात्र ने सनसनीख़ेज़ दावा किया. उन्होंने लिखा कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ‘साहित्यिक चोरी’ करते हुए उनकी थीसिस के प्रमुख हिस्से अपने बताकर प्रकाशित करवा लिए. उन्होंने आरोप लगाया कि राधाकृष्णन की किताब ‘भारतीय दर्शन - 2’ में उनकी थीसिस का इस्तेमाल किया गया है. फिर फ़रवरी, मार्च और अप्रैल के संस्करण में जदुनाथ ने अपने दावे के समर्थन में कई साक्ष्य पेश किए जिससे यह विवाद ज़्यादा बढ़ गया.
उधर, राधाकृष्णन ने जदुनाथ के दावों पर जवाबी पत्र लिखते हुए कहा कि चूंकि उनकी किताब और जदुनाथ की थीसिस का विषय एक ही था, इसलिए इत्तेफ़ाक़न दोनों की विषय सामग्री मिलती जुलती है. उनके ये जवाब पत्रिका के फ़रवरी और मार्च के संस्करण में प्रकाशित हुए थे. फिर अगस्त 1929 में जदुनाथ ने राधाकृष्णन पर केस कर दिया. जवाब में राधाकृष्णन ने जदुनाथ और पत्रिका के संपादक रामनाथ चट्टोपाध्याय दोनों के ख़िलाफ़ केस दर्ज करा दिया. बाद में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कोर्ट के बाहर दोनों पक्षों का समझौता कराया.
जदुनाथ सिन्हा और उनका दावा
जदुनाथ सिन्हा एक प्रतिष्ठित दर्शनशास्त्री और लेखक थे. उनका जन्म 24 अक्टूबर 1892 को पश्चिम बंगाल के कुरुमग्राम में हुआ था. उन्होंने दर्शनशास्त्र से बीए और एमए की डिग्री प्राप्त की थी. उनके बेटे प्रोफ़ेसर अजीत कुमार सिन्हा (रिटायर्ड) के मुताबिक़ जदुनाथ के शिक्षक उनकी काफ़ी प्रशंसा करते थे. कलकत्ता विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करते समय उन्हें फ़िलिप सैम्युल स्मिथ पुरस्कार और क्लिंट मेमोरियल पुरस्कार भी मिले थे. वे कलकत्ता के रिपोन कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए. तब तक उन्होंने एमए की डिग्री नहीं ली थी. आगे चल कर उन्होंने पीएचडी के लिए अपनी थीसिस ‘इंडियन साइकोलॉजी ऑफ़ परसेप्शन’ विश्वविद्यालय में जमा कराई थी. उसी के लिए 1922 में उन्हें प्रेमचंद रायचंद छात्रवृत्ति दी गई थी.
जदुनाथ ने अपनी बाक़ी की थीसिस 1925 तक जमा कराई थीं. जिन प्रोफ़सरों ने उनकी थीसिस देखीं उनमें डॉ राधाकृष्णन के अलावा दो अन्य प्रोफ़ेसर (बीएन सील और कृष्णचंद्र भट्टाचार्य) शामिल थे. अपनी थीसिस के लिए जदुनाथ को विश्वविद्यालय ने माउंट मेडल से सम्मानित किया था. लेकिन जदुनाथ की ये थीसिस पास होने में दो साल की देरी हुई थी. उससे पहले ही प्रोफ़ेसर राधाकृष्णन की किताब भारतीय दर्शन प्रकाशित हो गई थी.
ऑल इंडिया रेडियो न्यूज़ के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र यादव का दावा है कि राधाकृष्णन ने जानबूझकर थीसिस पास करने में देरी की और उसे अपने नाम से ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से छपवा लिया. उसके बाद जदुनाथ की थीसिस पास की गईं. उन्होंने जदुनाथ को श्रेय तक नहीं दिया. इसी को लेकर जदुनाथ ने 20 दिसंबर, 1928 को मॉडर्न रिव्यू पत्रिका के संपादक को पत्र लिखा था जो इसमें प्रकाशित हुआ.
आगे चल कर दोनों व्यक्तियों ने एक दूसरे पर मुक़दमा ठोका. राधाकृष्णन देश की प्रमुख हस्तियों में से एक थे इसलिए मामला बहुत हाई प्रोफ़ाइल हो गया था. उसे सुलझाने के लिए भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अहम भूमिका निभाई थी जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे. महेंद्र यादव बताते हैं कि उन्होंने अदालत के बाहर ही दोनों पक्षों में समझौता करा लिया. महेंद्र यादव की मानें तो इसके लिए जदुनाथ को 10,000 रुपये की रक़म देना तय किया गया था.

महेंद्र यादव दस्तावेज़ों के साथ और भी बहुत कुछ बताते हैं. वे लिखते हैं, ‘राधाकृष्णन की तो अंग्रेज़ी भी अच्छी नहीं थी, और संस्कृत तो बहुत ही कमज़ोर थी. ऐसे में क्या ख़ाक दर्शन पढ़ा होगा उन्होंने! कभी-कभार वे जो लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजा करते थे, संपादक उन्हें बेकार भाषा और सतही मानकर ख़ारिज कर दिया करते थे. जब केस की बात आई तो मॉडर्न रिव्यू को राधाकृष्णन ने पत्र लिखा. उसमें उन्होंने अपनी इन ख़ामियों का भी जिक्र किया है. राधाकृष्णन का ये पत्र साबित करता है कि थीसिस चोरी का केस कोर्ट में गया था. बाद में पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मध्यस्थता कराके कोर्ट के बाहर सेटलमेंट कराया. इसमें राधाकृष्णन के जदुनाथ को 10,000 रुपये देने की बात भी तय हुई.’ महेंद्र यादव ने यह बात राधाकृष्णन द्वारा मॉडर्न रिव्यू के संपादक को लिखे गए पत्र के आधार पर कही है.

बहरहाल, इस विवाद के कुछ सालों बाद 1934 में जदुनाथ को कलकत्ता विश्वविद्यालय ने सम्मानित किया था. उनकी दो किताबें - इंडियन साइकोलॉजी : परसेप्शन और इंडियन रिएलिज़म - लंदन में प्रकाशित हुईं. अपने पूरे जीवन में उन्होंने 40 से ज़्यादा किताबें लिखीं और बड़ी संख्या में उनके लेख अलग-अलग प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित किए गए.
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