इस कविता संग्रह की कविता ‘कौशिकी’ की कुछ पंक्तियां :

‘ये आपने क्या किया गौरी / आपने तो करोड़ों स्त्रियों के मन में / कुंठा घोलकर रख दी / आश्चर्य कि शम्भू के सामने / शक्तिहीना होकर रह गई शक्ति / गौरवर्ण प्राप्त करने को उद्यत / आपने एक बार भी / उन स्त्रियों के बारे में नहीं सोचा / जिनकी त्वचा का रंग / काले सर्प-सा डसता रहा उन्हें / सांवली काया की वजह से / जब शिव ने पहली बार आपको / काली-कलूटी कहकर सताया / आपको तब ही रुद्र से / कह देना चाहिए था / महादेव, विनोद में ही सही / आप मुझे काली कहकर / असंख्य स्त्रियों को / प्रताड़ित कर रहे हो / मगर आप तो शिव-कथन से / इतनी भयभीत हो गईं / कि आपने अपनी त्वचा ही / उतार फेंकी मेरे रूप में / ये पीड़ादायी है कि काया के पक्ष में / अडिग रहने के स्थान पर / कायान्तरण का मार्ग चुना आपने / आपने सोचा नहीं कि वस्त्र की तरह / अपनी सांवली त्वचा उतारकर / आपके अलावा संसार की / कोई स्त्री गौरी हो सकेगी कभी.’


कविता संग्रह : स्त्रीशतक

कवि : पवन करण

प्रकाशक : ज्ञानपीठ प्रकाशन

कीमत : 370 रुपये


महिलाओं से जुड़े बहुत से सवाल तब भी उतने ही गहरे, मारक और व्यापक थे जब उन पर कान नहीं धरा जाता था. अतीत के कुछ प्रमुख महिला पात्रों की चर्चा यह बताने के लिए तो अक्सर की जाती है कि हमारी प्राचीन सभ्यता में उनका कितना ऊंचा स्थान था. लेकिन हमारे धर्म, इतिहास, आख्यान या पुराण से जुड़े असंख्य स्त्री पात्रों की वेदना, उनके सवाल, टीस कभी हमारे सामने नहीं लाई गई. किसी भी शक्ल में नहीं. न तो उन स्त्री पात्रों पर आज तक स्त्रियों के नजरिये से कोई शोध हुआ है, न ही उन किताबों या पात्रों का पुनर्पाठ ही किसी ने किया है. पवन करण का यह अद्वितीय कविता संग्रह हमारे सामने धर्म, पुराण और आख्यान से जुड़े ऐसे ही 100 स्त्री पात्रों के दर्द, संत्रास, कचोट, परतंत्र व्यक्तित्व, सवाल और द्वंद्व को हमारे सामने बेहद सटीक और मार्मिक तरीके से लाने में सफल होता है.

पवन करण की कविताएं राजाओं की रानियों, बेटियों, पत्नियों, स्वर्ग की अपसराओं, गणिकाओं और वेश्याओं के भीतर के नासूर जैसे सवालों को आज सदियों बाद भी बड़ी मुस्तैदी से पकड़ती हैं. साथ ही वे उदाहरण-दर-उदाहरण उस दौर के पुरुषों, राजाओं और महर्षियों को भी अपराधी बना कटघरे में खड़ा करती जाती हैं. इन कविताओं का एक सशक्त पक्ष यह है कि स्त्रियों की वेदना और टीस में डूबकर ये इतनी विद्रोही हो जाती हैं कि देवताओं तक को उनकी औकात दिखाने से बाज नहीं आतीं! जैसे ‘पिंगला’ नामक बेहद सशक्त कविता में ‘पिंगला’ नाम की एक वेश्या विष्णु की शरण में जाकर कहती है -

‘मेरे पास जितने भी लोग आते / उनमें से अधिकांश भक्त होते तुम्हारे / जब वे मूल्य चुकाकर मेरी देह का / मुझे बरतते तुम्हारी बात जरूर करते / कहते कि उन पर कृपा है तुम्हारी / और ये भी कि उन पर तुम्हारी कृपा न होती / तो क्या वे मेरा मूल्य चुका पाते / उनमें से कुछ ने मुझसे ये भी कहा / कि हो सकता है मुझे पता न हो / और मुझ पर भी कृपा हो तुम्हारी /...मैंने अपने पर तुम्हारी कृपा को / बहुत कोशिश की ढूंढ़ने की, मगर वह / तुम्हारे कृपापात्री देहलोलुपों की भीड़ में / दिखाई नहीं दी मुझे कहीं / क्या मुझ पर तुम्हारी कृपा यों थी / कि तुम्हारी कृपा के चलते उनके लिये मैं / वेश्या थी एक, एक स्त्री के साथ / ऐसा दुभांत तुम ही कर सकते थे /...सबको लग रहा है कि मैं पापिनी / स्वर्ग अथवा मुक्ति की उम्मीद लिये / तुम्हारे पास आई हूं, मगर / ऐसी कोई चाह नहीं मेरे हृदय में / मैं नजदीकी नहीं चाहती तुम्हारी / अपनी दुर्दशा के जल में, मैं तो / तुम्हें तुम्हारा चेहरा आयी हूं दिखाने / देखो मेरा मूल्य चुकाकर मुझे भोगने आते / चेहरों से कितना मिलता है वह.’

यह कविता संग्रह उन पौराणिक स्त्री पात्रों का पुनर्पाठ करता है, जिन्हें स्त्री के नजरिये से आज तक कभी देखा-सुना या पढ़ा- गुना नहीं गया. यहां कवि हर एक नक्काशीदार चौखट वाली अट्टालिका को शक की नजर से देखता है और चुपचाप उन अंधेरे कोनों में घुसकर वहां की महिलाओं के सदियों से बंदी बनाए गए सपनों, दम तोड़ती इच्छाओं, दिमाग भन्ना देने वाले द्वंदों को खोज निकालता है. पृथ्वी के पहले राजा ‘पृथु’ की पत्नी ‘अर्ची’ के सती होने के समय के दौरान उसकी मानसिक स्थिति का बेहद मार्मिक वर्णन करते हुए पवन लिखते हैं –

‘इस समय कोई नहीं हमारे बीच / एक ओर तुम्हारी चिता है / और दूसरी तरफ मैं, मगर रीत यही है / प्रथा, हाथ पकड़कर मेरा / मुझे आग की तरफ खींच रही है / मन में आ रहा है कि मैं उसका / हाथ झटक दूं, मगर मैं बचकर / किस-किस को समझाऊंगी / कि अक्सर मुझे आग से / बचाने वाले की चिता की आग में / कैसे जल सकती थी मैं.’

‘पुत्रवती भव’ और ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’ जैसे विषैले आर्शीवाद ने कितनी मांओं के मादा भ्रूणों की उपेक्षा और हत्या की है, यह आज तक कोई नहीं जानता. न पिता जानते और मानते हैं कि अपने उत्तराधिकारी की अंधी चाहत में वे अपनी कितनी बेटियों की हत्या के दोषी हैं! न भाई जानते हैं कि उनके स्वागत में कितनी बहनों को होम किया गया है! सिर्फ मांए हैं जो ऐसे तमाम दहकते पलों की गवाह हैं. ऐसे ही एक बेहद मार्मिक कविता है ‘सौत्रामणि’ (द्रोपदी की मां). इसमें सौत्रामणि के मन की उस वक्त की गहरी टीस को कवि ने दर्ज किया है, जब पुत्र पाप्ति के लिए यज्ञ किया जा रहा था. कवि लिखता है –

‘पुत्र काम्येष्टि के यज्ञ में पढ़े जा रहे मन्त्र / लातों के प्रहार बनकर / बरस रहे थे मेरे गर्भाशय पर / अग्निकुंड से उठती गंध / विषैली थी मेरे लिये / यज्ञ में यरूतुरंग (बलि में चढ़ाया जानेवाला घोड़ा) की तरह / चढ़ाई जा रही थी मेरी कोख की बलि /...आहुति से पुत्र चाहता राज्य / पहले ही कर चुका था मेरी कोख के / शिखंडी होने की घोषणा / एक तरफ यज्ञकुंड दहक रहा था / दूसरी तरफ मेरी कोख / एक तरफ अग्नि में / समिधा झोंकी जा रही थी / तो दूसरी तरफ अपनी ही गर्भाग्नि में / झोंका जा रहा था मुझे / याज्ञसेनी बस इस बात को / तुम जान सकीं कि जिस आग से / तुमने जन्म लिया / वह हमेशा जलाती रही मुझे.’

पवन करण महल की सबसे पुरानी और सहृदय सेविका की तरह सभी महिला पात्रों के रंगमहल में घुसकर, उनके माथे और बालों को सहलाते हुए सारे राज चुटकियों में खोल लेते हैं. मन के ऐसे गहनतम राज भी जो कि उनके माता-पिता और सखियों को भी शायद न पता हों. इस संग्रह की एक सबसे बड़ी कमी यह लगती है कि यहां जिन पौराणिक महिला पात्रों के बारे में या किसी खास घटना के बारे में कविता लिखी गई है, उनके बारे में शायद ज्यादातर पाठकों को पर्याप्त जानकारी न हो. हालांकि सभी पात्रों के संक्षिप्त परिचय यहां दिए गए हैं. लेकिन यदि वे घटनाएं, संदर्भ या उन महिला पात्रों का जीवन परिचय भी यहां दिया जाता तो पाठक कविताओं के तीव्र भावों और बेहतर तरीके से महसूस कर पाते.

मेरी जो भी सीमित जानकारी है, उसके हिसाब से धार्मिक-पौराणिक-मिथकीय स्त्री पात्रों पर इतने आधुनिक, मानवीय और स्त्री-संवेदी नजरिए से अभी तक संभवतः कविताएं नहीं लिखी गई हैं. इन स्त्री पात्रों की हताशा, पीड़ा, आक्रोश, सवाल, द्वंद, चीत्कार और वेदना से उपजे सवाल पुरुषों के दंभ और खोखले अभिमान पर चोट करके पूरे समाज को जबरदस्त अपराधबोध में डालते हैं. वहीं कवि का यह सराहनीय प्रयास खुद की (पुरुष साहित्य वर्ग) की प्रासंगिकता बचाए रखने की अंतिम कोशिश भी नजर आती है. ऐसा इसलिए, क्योंकि उन्हीं की एक पात्र कहती है –

‘अपनी कथाओं में आखिर / कितनी स्त्रियों का वध करेंगे आप / कथाओं में वधित स्त्रियां / जिस दिन खुद को बांचना / शुरू कर देंगी, कथाएं बांचना / छोड़ देंगी तुम्हारी’

कुल मिलाकर यह स्त्री-विमर्श की बेहद सशक्त कविताओं का एक दुर्लभ और संग्रहणीय कविता संग्रह है. पवन करण एक बार फिर अपने स्त्री-मन से चौंकाते हैं, चमत्कृत करते हैं, अभिभूत करते हैं, निशब्द करते हैं!