‘लोकतंत्र का मतलब है संवाद से चलने वाली सरकार, पर ये तभी कारगर है जब आप लोगों को बात करने से रोक सकें.’
यह बात कहने वाले क्लीमेंट रिचर्ड एटली 1928 में साइमन कमीशन के साथ भारत आये थे. तब उन्हें शायद ही मालूम रहा होगा कि नियति ने उनके लिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के निर्माण में एक अहम भूमिका तय कर दी है और समय आने पर उन्हें बस अपना किरदार निभाना होगा. 19 साल बाद उन्होंने अपना किरदार बख़ूबी निभाया भी और इतिहास में एक ऐसा पन्ना लिख छोड़ा जो आने वाली कई सदियों तक भारत में चर्चा का विषय रहेगा.
1954 में क्लीमेंट एटली ने बंगाल के गवर्नर को कहा था कि हिंदुस्तान को आज़ादी महात्मा गांधी की वजह से नहीं, सुभाष चंद्र बोस की वजह से मिली थी. आख़िर एटली के ऐसा कहने के पीछे क्या कारण थे और क्या वे जायज़ थे? आइए, इसकी पड़ताल करते हैं.
एटली पहली बार लेबर पार्टी के कनिष्ठ सांसद की हैसियत से साइमन कमीशन के साथ भारत आये थे. यहीं से उनका और हिंदुस्तान का नसीब एक दूसरे के साथ जुड़ गया. कमीशन में एक भी भारतीय नहीं था, ज़ाहिर था कि इसका बहिष्कार किया जाएगा और यही हुआ भी. पर कमीशन का इससे भी बुरा हाल अपने ही घर यानी इंग्लैंड में हुआ. विंस्टन चर्चिल और तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन की बहसों में इसके प्रस्ताव कहीं खो गए.
चर्चिल भारत की आजादी के ख़िलाफ़ थे. उनका कहना था कि महारानी ने उन्हें इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बनाया कि वे उनके साम्राज्य को डुबो दें. युद्ध के दौरान भारत के बंगाल प्रांत में भयंकर अकाल पड़ा. लार्ड इरविन ने चर्चिल को चिट्ठी लिखकर भूख से हो रही मौतों का ज़िक्र किया और भारत का अनाज मित्र राष्ट्रों की फ़ौजों को न भेजने की अपील की. चर्चिल का जवाब था, ‘गांधी क्यों नहीं मरा अब तक?’ अलेक्स वों तुन्ज़ेलमन ‘इंडियन समर’ में लिखती हैं, ‘चर्चिल को जब लगने लगा कि वे भारत की आजादी को रोक नहीं पाएंगे तो उन्होंने मुस्लिम लीग को बढ़ावा देकर विभाजन की प्रकिया की चाल चल दी.’
दूसरे विश्व युद्ध के बाद इंग्लैंड में चुनाव हुए. चर्चिल को उम्मीद थी और कयास भी यही लग रहे थे कि वही दोबारा प्रधानमंत्री बनेंगे. जनता ने यह कहते हुए उन्हें सिरे से ख़ारिज कर दिया कि उन्हें ‘वॉर प्राइम मिनिस्टर नहीं चाहिए’. लेबर पार्टी की जीत हुई और क्लीमेंट एटली प्रधानमंत्री बने.
चुनाव के परिणामों ने भारत पर भी असर डाला. एटली ने आते ही जिस बिल पर दस्तख़त किये वह था, ‘इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट’. यही वह समय भी था जब +लॉर्ड वेवेल के विकल्प की तलाश जारी थी. माउंटबेटन दक्षिण एशिया में मित्र राष्ट्रों की फौजों के सुप्रीम कमांडर रह चुके थे. जापान को हराने में उनकी भूमिका थी. वे पहले भी भारत आ चुके थे. शाही खानदान से ताल्लुक रखने के कारण वे यहां के राजाओं और नवाबों से राब्ता कायम कर सकते थे. सो माउंटबेटन वायसराय बनकर आये और साथ में एक प्लान भी लाए.
चर्चित किताब ‘माउंटबेेटेन एंड दी पार्टीशन ऑफ इंडिया’ खुद माउंटबेटेन ने ही बताया है कि उन्होंने एटली से बातचीत में इस पर जोर दिया कि भारत से निकलने का दिन निश्चित किया जाए. एटली ने 30 जून, 1948 तक का समय दिया. भारत का विभाजन हुआ. पाकिस्तान और हिंदुस्तान दुनिया के नक़्शे पर आ गए. नियति ने यह किरदार एटली के लिए रख छोड़ा था.
अब बात करते हैं एटली के उस बयान की जिसका जिक्र लेख के शुरुआती हिस्से में है. 1956 में एटली भारत आये थे. कुछ दिनों के लिए वे बंगाल के कार्यवाहक गवर्नर पीबी चक्रवर्ती के मेहमान बने. चक्रवर्ती ने एटली से भारत की आज़ादी के कारण पूछे तो एटली ने कहा कि भारतीय सैनिकों के विद्रोह और सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज के भारत में घुस जाने के डर ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया. चक्रवर्ती ने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘जब मैंने एटली से पूछा कि गांधी का कितना प्रभाव था उनके भारत से जाने के पीछे. एटली ने सांस भरकर कहा- बे..ह..द कम.’
यह बात कुछ हद तक सही है. 1946 में भारत में हालात बद से बदतर हो गए थे. भारतीय सैनिकों और अंग्रेज़ सैनिकों के बीच द्वेष बढ़ने लगा था. ब्रिटेन के सिविल और सैनिक अधिकारी घर वापसी चाहते थे. रॉयल एयर फ़ोर्स के अंग्रेज अफ़सरों ने विद्रोह कर दिया था.
उधर ब्रिटिश नेवी में भारतीयों ने भी असंतोष के स्वर ऊंचे कर दिए थे. सैनिकों ने युद्ध पोतों पर ‘भारत छोड़ो’, ‘विद्रोह करो’ और ‘गोरे हरामियों को मार दो’ जैसे नारे लिख दिए. ‘तलवार’, ‘सतलुज’, ‘यमुना’ जैसे युद्ध पोतों पर तैनात भारतीय नाविकों ने काम और भूख हड़ताल कर दी. युद्ध पोत ‘नर्मदा’ की तोपों के मुंह ‘बॉम्बे याट (नौका) क्लब की ओर मोड़ दिए गए और फायरिंग होने लगी.
लेकिन यह इतना बड़ा कारण नहीं था जिसकी वजह से अंग्रेज भारत छोड़ते. इसके पहले भी ऐसे कई विद्रोहों को वे कुचल चुके थे. बात कुछ और ही थी. 1935 के बाद इंग्लैंड ने तय कर लिया था कि उसे उपनिवेशवाद को ख़त्म करना होगा. जानकारों के मुताबिक इसका कारण यह था कि इंग्लैंड में लोकतांत्रिक सरकार थी और लोगों ने उपनिवेशवाद की नैतिकता पर सवाल उठाने शुरू कर दिये थे.
1935 के बाद इंग्लैंड ने एक भी अंग्रेज़ आईसीएस अफ़सर भारत नहीं भेजा. जो थे, उन्हीं से काम चलाया जा रहा था या फिर भारतीय मूल के अफ़सर नियुक्त किये जा रहे थे. यही स्थिति सैनिक अफ़सरों के मामले में भी. अगर इंग्लैंड को भारत पर शासन जारी रखना होता तो वह ऐसा नहीं करता. और फिर जिन वारदातों का ऊपर ज़िक्र हुआ है, उन सभी को अंग्रेजों ने आसानी से कुचल दिया था. इससे ज़ाहिर है कि उनके भारत छोड़ने के पीछे कारण भारतीय सैनिकों का विद्रोह नहीं हो सकता.
दूसरा कारण, नेता जी सुभाष चंद बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज का दिया गया है. आज़ाद हिंद फ़ौज में ज़्यादातर वे भारतीय सैनिक थे जिन्हें जापान की सेना ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा युद्ध में बंदी बनाया था. सुभाष चंद्र बोस जापान से मिल गए थे. उन्होंने ये सैनिक लेकर अपनी फ़ौज बनायी थी.
जापान ने जब बर्मा की लड़ाई शुरू की तो इंग्लैंड में बैठे नेताओं की नींदें उड़ गयीं. जापान एक तानाशाी शासन के तहत जी रहा था. अगर जापान भारत जीत जाता तो देश तानाशाही के तले आ जाता. मित्र राष्टों को यह क़ुबूल नहीं था. इतिहास के इसी मोड़ पर माउंटबेटेन ने जापान को युद्ध में हराकर सिंगापुर में आत्मसमर्पण करवाया था.
इसके बाद आज़ाद हिंद फ़ौज पूरब से हमला बोलकर भारत में घुस आई थी और उसने भारतीय सेना से दो-दो हाथ भी किये. पर कुछ ही दिनों में अभावों और मुकम्मल रणनीति न होने की वजह से उसे ब्रिटिश भारतीय फौज के सामने हथियार डालने पड़े थे. इससे ज़ाहिर होता है कि यह भी कोई कारण नहीं था जिससे अंग्रेज़ डरकर भारत छोड़ते. बाद में जब बंगाल के नोआखाली में दंगे हुए तो आज़ाद हिंद फ़ौज के कप्तान शाहनवाज़ खान गांधी के साथ वहां लोगों के दिलों पर मरहम लगा रहे थे. अभिनेता शाहरुख़ खान इन्हीं के वंशज हैं.
एटली अंग्रेजों के जाने के पीछे गांधी के प्रभाव को नकारते हैं. सवाल उठता है कि गांधी का असर नहीं था तो क्यों चर्चिल उनके मरने की दुआ मांग रहे थे. वे गांधी को अधनंगा फ़क़ीर कहकर मज़ाक उड़ाया करते. गांधी ने पूना के आगा खान पैलेस में अनशन किया था और उनकी तबीयत बिगड़ गयी थी. जनरल स्मट्स (दक्षिण अफ्रीका का वह पुलिस अफसर जिसे गांधी ने सत्याग्रह के दम पर उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था) ने ख़त लिखकर चर्चिल को कहा था, ‘कुछ भी हो जाए, गांधी को मरने नहीं देना, और ज़रूरत पड़े तो जबरन इंजेक्शन लगाकर ग्लूकोज दे देना. माउंटबेेटेन ने एक बार कहा था, ‘आप गांधी की तुलना चर्चिल या रूज़वेल्ट से नहीं कर सकते. भारतीयों के लिए वे ईसा या मुहम्मद के समान हैं.’
बहुत संभव है, एटली, जिन्होंने विश्व युद्ध के दौरान चर्चिल के सहायक के रूप में काम किया था, उनसे प्रभावित हो गए हों. वरना आज कौन नहीं जानता कि गांधी का प्रभाव भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व पर पड़ा है.
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