सिनेमा का एक कम-चर्चित जॉनर है, जिसका नाम भी शायद आपने कभी सुना नहीं होगा - बॉटल मूवीज! बोतलों से इसका कोई लेना-देना नहीं, बल्कि ‘बॉटल फिल्म’ कहकर उन फिल्मों को सम्बोधित किया जाता है जो कि पूरी की पूरी केवल एक जगह पर ही घटित होती हैं. जैसे बासु चटर्जी की ‘एक रुका हुआ फैसला’ (या मौलिक ‘12 एंग्री मैन’) केवल एक कमरे में घटित हुई थी. बहुचर्चित ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ बनाने के बाद डैनी बॉयल ने जो छोटी फिल्म बनाई थी वह ‘127 आवर्स’ (2010) चट्टानों के बीच की एक तंग लोकेशन पर शूट हुई थी. टॉम हार्डी की प्रशंसित ‘लॉक’ (2013) पूरी की पूरी एक कार में फिल्माई गई थी और एक सीन भी कार के बाहर का नहीं था.

जिन अल्फ्रेड हिचकॉक को तंग जगहों पर तनाव रचने का उस्ताद निर्देशक माना जाता है, उन्होंने भी द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर एक फिल्म ‘लाइफबोट’ (1944) बनाई थी, जो कि शुरू से लेकर आखिरी सीन तक समंदर के बीच विचरती एक नाव पर घटी थी. इस फिल्म में आपसी द्वेष लिए एक जर्मन नागरिक, अमेरिकी सैनिक, ब्रिटिश महिला, लेखक, उद्योगपति वगैरह एक नाव साझा करते हैं और राशन की सुरक्षा से लेकर तूफान तक का सामना साथ करते हैं. एक लोकेशन पर घटित होने वाली फिल्मों को जहां 21वीं सदी के तकनीकी रूप से सबल फिल्मकारों के अनुरूप ज्यादा माना जाता है, वहां हिचकॉक अपनी इस 70 साल पुरानी फिल्म के माध्यम से एक बार फिर बता देते हैं कि वे अपने समय से कितने आगे के फिल्म निर्देशक थे. (नहीं देखी तो इसी श्रेणी की उनकी रंगीन फिल्म ‘रियर विंडो’ (1954) भी देखिएगा)
केवल एक तंग जगह पर घटने वाली फिल्मों को क्लॉस्ट्रोफोबिक सिनेमा कहने का भी चलन है. ऐसी ‘ट्रैप्ड’ जैसी सर्वाइवल फिल्में एक जगह पर घटती हैं, लेकिन इनमें दूसरी लोकेशन के काफी दृश्य भी मौजूद रहते हैं. कभी ये खुले आकाश व खुले समंदर के बीच फंसी नाव में घटती हैं (जैसे ‘लाइफ ऑफ पाई’ और ‘ऑल इज लॉस्ट’) लेकिन फिर भी दम घोंटू (क्लॉस्ट्रोफोबिक) होती हैं. कभी अथाह अंतरिक्ष में घटने के बावजूद कुछ सिनेप्रेमी सैंड्रा बुलक के स्पेस में अकेले भटकने की कहानी ‘ग्रेविटी’ (2013) को भी इसी मिजाज वाले सिनेमा में गिनते हैं. एक मशहूर उदाहरण कॉलिन फेरल अभिनीत ‘फोन बूथ’ (2003) का भी है जिसकी पूरी कहानी एक सार्वजनिक फोन बूथ में फंसे नायक के इर्द-गिर्द घूमती है. इस फिल्म को चोरी से बॉलीवुड ने 2010 में ‘नॉक-आउट’ नाम से बनाया था और कंगना रनोट व इरफान खान का टैलेंट व्यर्थ किया था.
कुछ अंजान इंडी फिल्में खासतौर पर अपनी संरचना में बेहद क्लॉस्ट्रोफोबिकमानी जाती हैं. 1997 में ‘क्यूब’ नाम की एक बेहद विचित्र फिल्म कनाडा में बनी, जिसे कि अब कल्ट कहलाने का रुतबा हासिल है. इसमें रंग-बिरंगे क्यूब्स के अंदर कुछ अजनबी लोग कैद हुए और हर क्यूब में दूसरे कई क्यूब्स तक जाने के रास्ते मौजूद थे. कुछ क्यूब में पहुंचते ही आदमी मर जाता था और सभी को मिलकर इन दम घोंटू क्यूब्स से बाहर निकलने की जद्दोजहद करनी थी.
इसी तरह 2009 में आई ‘एक्जाम’ नामक ब्रिटिश फिल्म में आठ लोग एक कमरे में बंद होकर एक्जाम देने बैठते हैं और आखिर में सिर्फ एक ही उस कमरे से जिंदा वापस निकल पाता है. 2010 की अमेरिकी फिल्म ‘फ्रोजन’ में तीन दोस्त एक बर्फीले पहाड़ पर बनी रोप-वे के एक झूले में फंसे रह जाते हैं और इस दौरान हिमपात की वजह से आसपास का इलाका सुनसान हो जाता है और बिजली बंद कर दी जाती है. छोटी-सी कहानी लगती यह सर्वाइवल फिल्म बेहद दिलचस्प अंदाज में जिंदगी और मौत से लड़ने की कहानी दिखाती है.
2005 में हॉरर का हाथ पकड़कर ‘द डिसेंट’ नामक एक ब्रिटिश फिल्म प्रदर्शित हुई जिसमें आपस में जुड़ी तंग गुफाओं में छह लड़कियां फंस जाती हैं और अंधेरे में रहने वाले बेहद खौफनाक लिजलिजे प्राणी उन्हें खाने की फिराक में रहते हैं (कसम से, उस फिल्म को देखने वाले की घिग्घी बंधना तय है). 2007 में इसी तरह की एक और हॉरर क्लॉस्ट्रोफोबिक फिल्म देखने को मिली जिसका नाम ‘[रेक]’ (REC) था. इस स्पेनिश फिल्म में पहले तो एक बिल्डिंग में चंद लोग फंसे मिलते हैं और खूब खून-खराबा होता है, लेकिन फिर एक अंधकार में डूबे फ्लैट में जाकर फिल्म का आखिरी हिस्सा घटता है जहां केवल नाइट विजन कैमरा की मदद से कलाकार एक-दूसरे को, और एक खौफनाक शख्स को देखकर सहमते हैं. यह भी काफी डरावनी व क्लॉस्ट्रोफोबिक फिल्म थी.
2010 में आई मनोज नाइट श्यामलन की लिखी ‘डेविल’ भी कम निराली नहीं है जो कि एक लिफ्ट में फंसे कुछ लोगों के बीच घटती है और श्यामलन मार्का स्टाइल में खतरनाक ट्विस्ट हमारी नजर करती है.
लेकिन, ये सारी ही फिल्में तंग लोकेशन की बात आने पर ‘बरीड’ का मुकाबला नहीं कर सकतीं! इसीलिए भी इन मुख्तलिफ फिल्मों के नाम यहां लेने जरूरी थे ताकि समझा जा सके कि नाव, फोन बूथ, लिफ्ट, गुफा, रोप-वे के एक झूले और कमरे जैसी बेहद तंग जगहों में पूरी की पूरी फिल्म के घटित होने के बावजूद एक फिल्म हाल के समय में ऐसी आई है जिसने इस एक निराली विशेषता में सभी को पीछे छोड़ दिया है. 2010 में आई ‘बरीड’ छह फीट जमीन के अंदर दफन एक ताबूत के अंदर घटती है और डेढ़ घंटे तक केवल और केवल, और एक और केवल, उस ताबूत में ही घटती है!
शायद सिनेमा के इतिहास में इससे तंग व छोटी लोकेशन पर कोई फिल्म अपनी पूरी अवधि के लिए न तो शूट हुई होगी, न पूरी कहानी ‘वहीं’ घटी होगी! यह अविश्वसनीय ‘बॉटल’ व ‘क्लॉस्ट्रोफोबिक’ सिनेमा है क्योंकि सिर्फ इसका विचार बहुमूल्य नहीं है – कि वो पूरी की पूरी दम घोंटू ताबूत में घटित होगी – बल्कि उसका क्रियान्वयन भी उतना ही लाजवाब है. सिनेमा के क्षेत्र में इस तरह के विचारोत्तेजक विचार अक्सर पैरों में काई की तरह चिपक जाते हैं और पटकथा के फीचर फिल्म की अवधि का प्राप्त होते ही फिल्म फिसलने लगती है. लेकिन स्पेनिश निर्देशक रोड्रिगो कॉर्टेज ने ऐसे रिस्की विचार पर पल-पल चौंकाने, सांसें धौंकनी-सी धड़काने वाली ऐसी बेहतरीन फिल्म बनाने में सफलता पाई जो कि हमें सिर्फ एक लोकेशन, एक किरदार और उसके पास मौजूद कुछ सामान के सहारे डेढ़ घंटे तक लगातार मोहपाश में बांधे रखती है.
इराक में काम करने वाला अमेरिकी ट्रक ड्राइवर जब फिल्म शुरू होने पर जागता है तो अपने आप को एक ताबूत में बंद पाता है. जमीन के छह फीट अंदर दफन इस ताबूत में लगातार कम होते ऑक्सीजन के बीच उसके पास एक फोन होता है – जिसकी बैटरी खत्म होने की कगार पर जल्द ही पहुंच जाती है – और साथ होते हैं एक पेन, पेंसिल, जलती-बुझती टॉर्च व लाइटर. तनाव की लगातार मौजूदगी की वजह से फिल्म देखते हुए आपको हिचकॉक की बरबस याद आती है और सस्पेंस के उस मास्टर की ही तरह ‘बरीड’ भी हैरतअंगेज ट्विस्ट्स एंड टर्न्स की मदद लेकर आपको आखिर तक बांधे रखने में अथाह सफल रहती है.
साथ ही पटकथा से लेकर लाइटिंग, कैमरा एंगल व इसके नायक रायन रेनॉल्ड्स के अभिनय के आप मुरीद होते चलते हैं. क्योंकि ये सभी चीजें सिर्फ एक लोकेशन से बंधी होने के बावजूद गजब की रोचकता फिल्म को देने में सफल रहती हैं और निराले-निराले कैमरा एंगल्स के अलावा फिल्म लाइटिंग से भी खूब खेलती है.
धुप्प अंधेरे में फिल्म के पास रोशनी की इकलौती व्यवस्था नायक के पास मौजूद सामान होता है जिसमें से टॉर्च जलने पर सफेद रोशनी नजर आती है तो लाइटर जलने पर पीली रोशनी. फोन की रोशनी का रंग भी अलग रखा जाता है और नियॉन लाइट की रोशनी का भी. फिर रायन रेनॉल्ड्स ढेर सारे एक्सप्रेशन्स से खुद को अभिव्यक्त करते हैं और कभी भी उनके अभिनय में दोहराव या हिंदी फिल्म एक्टरों की तरह ‘वन-नोट’ होना महसूस नहीं होता. फिल्म में फोन भी एक किरदार की तरह उपयोग किया जाता है और नायक उस फोन के सहारे कई बार मदद के लिए लोगों तक पहुंचने की जो कोशिशें करता है उससे फिल्म को गजब की अर्जेंसी मिलती है.
कहने का मतलब है कि एक तंग लोकेशन पर केवल एक पात्र के साथ फिल्म बनाना कभी भी ‘बरीड’ की मजबूरी नहीं बनता. फिल्ममेकिंग की नायाब तरकीबों से यह फिल्म हर फ्रेम में रोचकता का समावेश करने में सफल रहती है.
‘बरीड’ दमघोंटू वातावरण रचने में भी बेहद सफल सिद्ध होती है. क्लॉस्ट्रोफोबिया ऐसी चीज है जिसका विचार ही सैकड़ों की सांसें सरपट दौड़ा देता है. कई लोगों को लिफ्ट में बंद होने से डर लगता है तो कई रात में सोते समय अपने कमरे का दरवाजा तक बंद नहीं कर पाते. फिर जमीन के अंदर ताबूत में जिंदा दफन होना तो ऐसा दु:स्वप्न है जो फिल्मों में देखना भी मुश्किल काम है. ‘बरीड’ ठीक इसी इंसानी कमी को पकड़ती है और बेहद सुघड़ता से आपको वही चीज दिखाती है जिससे आप सबसे ज्यादा डरते हैं!
फिल्म किसी भी तरह का ‘कट अवे’ और ‘कट इन्स’ एडीटिंग के दौरान उपयोग नहीं करती. अगर फोन के दूसरी तरफ नायक की पत्नी रो रही है तो आपको पत्नी का चेहरा नहीं रायन रेनॉल्ड्स का ही चेहरा लगातार नजर आता है. अपने अपहरणकर्ता से लेकर जान बचाने की उम्मीद देने वाले से भी बात करते वक्त कैमरा केवल और केवल ताबूत और रायन पर ही टिका रहता है. ऐसा आजकल के सिनेमा में होता नहीं है, क्योंकि दर्शकों को इमोशन महसूस कराने के लिए फिल्म संस्थानों में पढ़ाया जाता है कि किसी एक चेहरे पर ज्यादा देर रुकना नहीं चाहिए, और नाटकीयता का समावेश करने के लिए कैमरे को एक चेहरे से दूसरे चेहरे की तरफ जल्द से जल्द मोड़ देना चाहिए.
‘बरीड’ ऐसा बिलकुल न करके सिनेमा की इस यूनिवर्सल थ्योरी को ठेंगा दिखाती है और लाजवाब अंदाज में दिखाती है. लेकिन ऐसा करके यह रिस्क भी लेती है कि अपनी कहानी का पूरा दरोमदार अपने नायक की अभिनय क्षमता पर डाल देती है. अंग्रेजी भाषा में बनी इस स्पेनी फिल्म की शूटिंग बार्सिलोना, स्पेन में 17 दिनों के दरमियान हुई थी और तब तक उसके मुख्य नायक व इकलौते पात्र रायन रेनॉल्ड्स के जीवन में ‘डेडपूल’ (2016) जैसी धमाकेदार फिल्म नहीं आई थी और न ही वे हद मशहूर हुए थे. ‘बरीड’ के तुरंत बाद ही उनकी महा-चूरन ‘ग्रीन लैंटर्न’ (2011) रिलीज हुई थी और उससे पहले भी उनकी फिल्में कोई खास असर नहीं छोड़ती थीं. लेकिन ‘बरीड’ में रायन रेनॉल्ड्स ने अद्भुत अभिनय किया था! एक तंग जगह में लेटा हुआ अभिनेता किस तरह अभिनय का शिखर छू सकता है यह दिखाया था. विभिन्न भाव-भंगिमाओं से लेकर ताबूत में बंद होने की घुटन तक को जिस अंदाज में उन्होंने अभिव्यक्त किया था वो ‘बरीड’ के शरीर को आत्मा देने वाला अभिनय कहलाया जाएगा.
बहुत दिलचस्प है कि फिल्म की शूटिंग के दौरान भी रायन रेनॉल्ड्स ने लकड़ी के एक ताबूत में घुसकर ही ज्यादातर सीन शूट किए थे, और निर्देशक द्वारा घुटन भरा वास्तविक माहौल तैयार कर पाने की वजह से भी उनका अभिनय इस कदर निखर कर आया था. ‘बरीड’ के बनने के दौरान की प्रकिया का जो वीडियो नीचे दिया जा रहा है उसे जरूर देखिएगा, ताकि समझा जा सके कि हॉलीवुड फिल्मों में असंभव को संभव होता देख हम हर बार कह तो देते हैं कि ‘स्पेशल इफेक्ट्स का कमाल होगा’, लेकिन ऐसा हर बार सच नहीं होता है. कई बार इंसान का अदम्य साहस अविश्वसनीय सिनेमा रचने में सबसे ज्यादा मददगार सिद्ध होता है. (इस मेकिंग-वीडियो को फिल्म देखने के बाद देखें तो बेहतर.)
(‘बरीड’ को आप नेटफ्लिक्स पर भी देख सकते हैं)
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