नवरात्र चल रहा है. चारों तरफ दुर्गापूजा की धूम है. हिन्दू कैलेंडर के अनुसार नवरात्र की षष्ठी से लेकर विजयदशमी तक दुर्गोत्सव (दुर्गा पूजा) मनाया जाता है. इस दौरान देश में विभिन्न स्थानों पर भव्य पंडाल सजाकर उसमें देवी दुर्गा की मूर्ति स्थापना की जाती है. पूजा के आखिरी दिन मूर्ति को जल में विसर्जित कर दिया जाता है.

वैसे तो पूरे देश में अलग-अलग राज्यों में मनाई जाने वाली दुर्गा पूजा का अपना महत्व है. लेकिन इन सभी पूजाओं में भी पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है. बंगाली हिंदुओं के लिए दुर्गा पूजा से बड़ा कोई त्योहार नहीं है. हर साल बंगाल की दुर्गा पूजा पंडालों की भव्यता के चलते सुर्खियों में रहती है. लेकिन इस साल यह एक और खास वजह से भी चर्चा का विषय बनी हुई है.

यह कारण है उत्तरी कोलकाता के एक इलाके अहिरीटोला का पूजा पंडाल. यह पंडाल एशिया में देह व्यापार के सबसे बड़े बाजार सोनागाछी में रहने वाली महिलाओं को समर्पित है. पंडाल और इस तक जाने वाली गली में बनी अलग-अलग तस्वीरें देह व्यापार में फंसी महिला के जीवन और उसके संघर्ष की कथा कहती हैं. इसे बनाने वाली युवकवृंद दुर्गा पूजा समिति के मुखिया उत्तम साहा हिंदुस्तान टाइम्स से बातचीत में कहते हैं, ‘बतौर इंसान हम यह नहीं समझ पाते कि ये महिलाएं भी किसी की मां और बहन हैं. वे नफरत और यातना की पात्र नहीं हैं.’

वैसे बंगाल में देह व्यापार करने वाली महिलाओं से दुर्गा पूजा का अभिन्न नाता रहा है. पूजा के दौरान इन महिलाओं का महत्व एक नया रूप ले लेता है. उन्हें उनके पेशे से अलग केवल एक इंसान के तौर पर देखा जाने लगता है. इसका एक बहुत बड़ा कारण है दुर्गा पूजा के दौरान बनाई जाने वाली मूर्तियों में उनका योगदान. पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार देवी की मूर्ति बनाने में गोमूत्र, गोबर, लकड़ी, जूट के ढांचे, सिंदूर, धान के छिलके, पवित्र नदियों की मिट्टी, विशेष वनस्पतियां और जल के साथ निषिद्धो पाली की रज ली जाती है. निषिद्धो पाली का मतलब होता है वर्जित क्षेत्र और रज यानी मिट्टी. यहां वर्जित क्षेत्र का तात्पर्य उन इलाकों से है जहां वेश्यावृति होती है. ऐसी मान्यता है कि जब तक वेश्यालय के बाहर पड़ी मिट्टी को मूर्ति के सृजन के लिए इस्तेमाल न किया जाए तब तक वह मूर्ति अधूरी ही रहती है. इसलिए हर वर्ष दुर्गा पूजा के दौरान सोनागाछी से उठाई गई मिट्टी का उपयोग दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए किया जाता है.

मूर्ति सृजन में निषिद्धो पाली की रज क्यों?

ऐसे में यह सवाल उठना जायज़ है कि जब हिंदू संस्कृति में वेश्यावृत्ति को अधार्मिक माना जाता है और देह व्यापार करने वालों को घृणा की नजर से देखा जाता है. तो इतने पवित्र अनुष्ठान में उनके घर के सामने पड़ी मिट्टी का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है. इसका जवाब मिलता है वहां प्रचलित पौराणिक तथा लोक कथाओं में.

किस्सा है कि बहुत पहले एक वेश्या, देवी दुर्गा की बहुत बड़ी उपासक हुआ करती थी. लेकिन वेश्या होने के कारण समाज में उसे सम्मान प्राप्त नहीं था. समाज से बहिष्कृत उस वेश्या को तरह-तरह की यातनाओं का सामना करना पड़ता था. मान्यता है कि अपनी भक्त को इसी तिरस्कार से बचाने के लिए दुर्गा ने स्वयं आदेश देकर उसके आंगन की मिट्टी से अपनी मूर्ति स्थापित करवाने की परंपरा शुरू करवाई थी. साथ ही, देवी ने उसे वरदान भी दिया था कि उसके यहां की मिट्टी के उपयोग के बिना प्रतिमाएं पूरी नहीं होंगी. जानकारों के मुताबिक शारदा तिलकम, महामंत्र महार्णव, मंत्रमहोदधि आदि ग्रंथों में इसकी पुष्टि की गई है.

इसके अलावा इस मिट्टी के इस्तेमाल के पीछे एक और धारणा भी है. माना जाता है कि जब कोई व्यक्ति किसी वेश्यालय के अंदर जाता है तो वह अपनी सारी पवित्रता वेश्यालय की चौखट के बाहर ही छोड़ देता है और इसलिए चौखट के बाहर की मिट्टी पवित्र हो जाती है. यह इस बाबत शायद सबसे प्रचलित और लोकप्रिय धारणा है. हालांकि इसे हमेशा ही पुरुष प्रधान समाज द्वारा नारी के अपमान के तौर पर देखा जाता रहा है. उधर, कुछ लोग इस प्रक्रिया को एक समाज सुधार आंदोलन के रूप में भी देखते हैं. इन लोगों का मानना है कि मूर्तियों के निर्माण में वेश्‍यालय की मिट्टी के इस्तेमाल का मकसद उस पितृसत्तामक समाज के मानस को कचोटना भी है जिसकी वजह से महिलाओं को नर्क में धकेलने वाला यह कारोबार चलता है.