दिल्ली में पैदा हुए सैयद अहमद खान के वंश के तार एक तरफ पैगम्बर मोहम्मद से जाकर जुड़ते हैं और दूसरी तरफ, मुग़लों से. थोड़ा फ़ास्ट फॉरवर्ड करते हुए और उन्हें ग़ालिब के बगल से निकालते हुए हम 1857 पर आते हैं.
पहले अंग्रेज़ों की मजम्मत, फिर नालिश और बाद में मालिश
ईस्ट इंडिया कंपनी में बतौर क्लर्क नौकरी करते हुए सैयद अहमद खान ने 1857 के ग़दर पर अपनी किताब ‘असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिंद’ में सीधे-सीधे तौर पर अंग्रेजों को ज़िम्मेदार ठहराया था. यहां एक बात समझने की है. अंग्रेज़ों को लगता था बगावत की आग मुग़ल दरबार में ऊंचे ओहदों पर बैठे मुसलमानों ने लगाई है. सैयद ने अंग्रेजों पर हिंदुस्तानी संस्कृति की अनदेखी करते हुए रियासतों को हड़पने का इल्ज़ाम लगाया. उन्होंने यह भी कहा कि अंग्रेजों को अपने राजकाज में मुसलमानों की भर्ती करनी चाहिए जिससे ऐसे ‘उत्पात’ फिर न हों.

अंग्रेजों ने मुसलमानों को इसलिए ज़िम्मेदार माना था कि एक आईसीएस अफ़सर विलियम हंटर ने उन पर एक रिपोर्ट पेश की थी. रिपोर्ट के मुताबिक ग़दर इसलिए हुआ था कि इस्लाम किसी रानी या राजा की ताक़त को स्वीकार नहीं करता, लिहाज़ा, मुसलमान शासक रानी विक्टोरिया के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए. उधर, सैयद को इस बात का बेहद अफ़सोस रहा कि मुग़ल जो इस मुल्क पर शासन करने के लिए बने थे, वे एक रोज़ यूं बेगाने कर दिए गए. चुनांचे, अपनी किताब की एक प्रतिलिपि, यानी कॉपी उन्होंने बरतानिया सरकार को इंग्लैंड भेजी.
जैसी संभावना थी, वही हुआ. कुछ हुक्मरानों ने उन्हें लानत-मलामत भेजी और कुछ अफ़सरों ने उनकी बात को माना. पर जो भी हो, अंग्रेजों ने उनकी किताब को बैन नहीं किया और सैयद साहब ने इसे उनकी दरियादिली समझा. उन्होंने एक और किताब लिखी. इसमें उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की, के इस्लाम और ईसाई मज़हब एक दूसरे के बेहद नज़दीक हैं. वे अंग्रेजों के ज़ेहन से मुसलामानों के प्रति दुराग्रह को मिटाना चाहते थे.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना
इसमें कोई दोराय नहीं कि सैयद अहमद खान उस दौर के सबसे ज़हीन इंसानों में से एक थे. गणित, चिकित्सा और साहित्य कई विषयों में वे पारंगत थे. इस बात की गवाही मौलाना अबुल कलाम का वह भाषण है जो उन्होंने 20 फ़रवरी,1949 को एएमयू में दिया था. उन्होंने कहा था, ‘मैं मानता था, मानता हूं कि वे (सैयद अहमद) 19वीं शताब्दी के सबसे महान इंसानों में एक थे.’ उनका यह भी मानना था कि जो हैसियत बंगाल और हिंदुओं के बीच राजा राम मोहन रॉय की थी, वही कद सैयद अहमद खान का उत्तर भारत में और ख़ासकर मुसलमानों के बीच था. आज़ाद यहीं नहीं रुके. उन्होंने सैयद खान को भारतीय मुसलामानों के सामाजिक संघर्ष का झंडाबरदार बताया.
सैयद अहमद खान को लगने लगा था कि हिंदुस्तान के मुसलमानों की ख़राब हालत की वजह सिर्फ उनकी अशिक्षा नहीं बल्कि यह भी है कि उनके पास नए ज़माने की तालीम नहीं. लिहाज़ा, वे इस दिशा में कुछ विशेष करने की लगन के साथ जुट गए. उनकी इस लगन का हासिल यह हुआ कि जहां भी उनका तबादला होता, वहां वे स्कूल खोल देते. मुरादाबाद में उन्होंने पहले मदरसा खोला, पर जब उन्हें लगा कि अंग्रेजी और विज्ञान पढ़े बिना काम नहीं चलेगा तो उन्होंने मुस्लिम बच्चों को मॉडर्न एजुकेशन देने के लिए से स्कूलों की स्थापना की.
फिर उनका तबादला अलीगढ़ हो गया. वहां जाकर उन्होंने साइंटिफ़िक सोसाइटी ऑफ़ अलीगढ़ की स्थापना की. हिंदुस्तान भर के मुस्लिम विद्वान अलीगढ़ आकर मजलिसें करने लगे और शहर में अदबी माहौल पनपने लगा. उन्होंने ‘तहज़ीब-उल-अखलाक़’ एक जर्नल की स्थापना की. इसने मुस्लिम समाज पर ख़ासा असर डाला और यह जदीद (आधुनिक) उर्दू साहित्य की नींव बना. मौलाना आज़ाद ने कभी कहा था कि उर्दू शायरी का जन्म लाहौर में हुआ, पर अलीगढ़ में इसे पनपने का माहौल मिला. इससे हम समझ सकते हैं कि सैयद अहमद खान का योगदान कितना बड़ा है.
सैयद अहमद खान ने अंग्रेज़ी की कई किताबों का उर्दू और फ़ारसी में तर्जुमा करवाया. इस्लाम की कुरीतियों पर छेनी चलाई. वे काफ़िर कहलाये गए. उनके सिर पर फ़तवा जारी हुआ. इन सबकी फ़िक्र किये बगैर वे सिर्फ़ एक ही बात बोलते, ‘जो चाहे मुझे नाम दो, कोई परवाह नहीं, अपनी औलादों पर रहम खाओ, स्कूल भेजो. वरना पछताओगे.’
वे इस कदर जुनूनी हो गए थे कि मुसलमान बच्चों स्कूलों के निर्माण के लिए पैसा इकट्ठा करने की खातिर उन्हें नाटक करना या ग़ज़ल गाना भी गवारा था. वे मुसलमानों से अक्सर कहा करते कि दुनिया को इस्लाम के बजाय अपना चेहरा दिखाओ, यह दिखाओ कि तुम कितने तहज़ीब-याफ़्ता, पढ़े-लिखे और सहिष्णु हो.
1875 में उन्होंने मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की. यही बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कहलाया. सैयद अहमद खान इसे कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की तर्ज़ पर आगे ले जाना चाहते थे पर फिर उन्हें सिर्फ एक कॉलेज से ही संतुष्ट होना पड़ा.
हिंदू मुस्लिम बंटवारे के पैरोकार
सैयद अहमद खान को लगता था कि मुसलमान हिंदुओं से हर लिहाज़ से बेहतर हैं. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब हिंदी और उर्दू के बीच वर्चस्व की लड़ाई छिड़ी तो उन्होंने हिंदी को ज़ाहिलों की ज़ुबान बताया. दूसरी तरफ मदन मोहन मालवीय जैसे दिग्गज लोग उर्दू को विदेशी ज़ुबान मानते थे. दोनों ही तरफ़ के लोग भूल गए कि ज़ुबानें महज़बों की नहीं इलाक़ों की होती हैं. अगर देखा जाए, हिंदी-उर्दू के वर्चस्व की लड़ाई थोथे राष्ट्रवाद का पहला परिणाम थी.
सैयद अहमद खान ने एक मर्तबा कहा था कि जब हिंदुस्तान से अंग्रेज़ मय साज़ो-सामान रुख़सत हो जायेंगे तब यह मान लेना कि सिंहासन पर हिंदू और मुसलमान एक साथ काबिज़ होंगे, महज़ लफ्फाज़ी है. उन्होंने यह भी कहा था कि दोनों का संघर्ष तब तक ख़त्म नहीं होगा, जब तक कोई एक दूसरे पर जीत न पा ले. शायद यहीं द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की बात हो जाती है. पर वहीं खुशवंत सिंह जैसे भी लोग थे जो यह मानते थे कि भारत के बंटवारे की नींव लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने रखी थी.
मौलाना आज़ाद ने एक बार अपने भाषण में सैयद अहमद खान के राजनीतिक ख़यालात को हिंदुस्तान के लिए सबसे बड़ी ग़लती की उपमा दी थी. उन्होंने कहा था कि शिक्षा और सामाजिक कार्यों की आड़ में सैयद अहमद खान ने जो राजनैतिक एजेंडा चलाया उसके लिए वे उन्हें कभी माफ़ नहीं कर सकते. मौलाना आजाद को लगता था कि सैयद अहमद खान के विचारों ने भारतीय मुसलामानों के एक धड़े को ग़लत दिशा में सोचने पर उकसा दिया और जिसका परिणाम बंटवारा था.
यह बात सही है. मोहम्मद अली जिन्ना ने जब आजादी के वक्त बंटवारे की दलील दी थी. तो यहीं कहा था कि हिंदू और मुसलमान न पहले साथ रहे हैं और न आगे रह पाएंगे. सो जिस अलीगढ़ मूवमेंट के ज़रिये सैयद अहमद खान ने देश में मुसलमानों के उत्थान के काम किये थे, वहीं से इंडियन मुस्लिम लीग का जन्म हुआ था. बाकी इतिहास है.
कभी-कभी कुछ बनने में कुछ बिगड़ने की तामीर भी छिपी होती है. इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करने वाले एओ ह्यूम ने क्या कभी सोचा था कि उनके द्वारा बनाई गयी पार्टी भारत को अंग्रेज़ों से दूर कर देगी?
इस पर ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि विलियम हंटर की रिपोर्ट ही भारत के बंटवारे की जड़ बनी थी. सैयद अहमद खान ने इस रिपोर्ट पर यकीन कर लिया था. यहां एक बात और कहने की है और वह यह कि इससे कुछ साल पहले जॉन स्ट्रेची ने ‘इंडिया’ नाम के शीर्षक से एक क़िताब लिखी थी. इसमें भारत को एक देश न कहते हुए इसे कई देशों का महाद्वीप कहा गया था. मुसलमानों के बारे में स्ट्रेची ने लिखा था कि ये लोग विदेशी हैं, हिंदुओं से बिलकुल मेल नहीं रखते और अंग्रेजों के दोस्त हो सकते हैं. जिन्ना जैसे नेता शायद इसीलिए मानते थे कि जब तक अंग्रेज़ भारत में रहें, मुसलमानों के लिए बेहतर होगा. हक़ीक़त तो यह है कि अंग्रेजों के दोस्त न तो हिंदू थे और न ही मुसलमान.
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