तापमान गिरने के साथ ही देश की राजधानी दिल्ली और इसके आस-पास के इलाकों में प्रदूषण बढ़ने लगा है. यह हर साल का किस्सा है. अक्टूबर आते ही हवा में घुली नमी तमाम वजहों से पैदा होने वाली धूल और धुएं के साथ मिलने लगती है और इस इलाके में धुंध की चादर तान देती है. इसी दरम्यान उत्तर भारत, विशेष तौर पर पंजाब और हरियाणा के किसानों का धान की पराली (धान की फसल के अवशेष) जलाना मानो कोढ़ में खाज बन जाता है. इसका नतीजा यह होता है कि तीन-चार महीने तक दिल्ली गैस चैंबर बनी रहती है.

सरकारों ने पराली जलाने पर प्रतिबंध लगा रखा है. उनका कहना है कि किसान पराली को जलाने के बजाय इसे दूसरे तरीकों से निस्तारित करें. यही नहीं, पराली जलाने पर 15 हजार रु तक के जुर्माने का भी प्रावधान है.

सरकार और दूसरे कई जानकारों को लगता है कि पराली की समस्या से निपटने में ‘सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (सुपर-एसएमएस), चॉपर और रोटावेटर’ जैसी मशीनें कारगर साबित हो सकती हैं. ये मशीनें धान की पराली को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट देती हैं. इसके बाद रोटावेटर मशीनों से उसे खेत में ही फैला दिया जाता है ताकि वह मिट्टी में मिल जाए. सरकार ने इन मशीनों का प्रयोग करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना भी शुरू कर दिया है. इन मशीनों के इस्तेमाल से पराली जलाने की समस्या कुछ हद तक निपट गई है.

लेकिन इन मशीनों ने किसानों की समस्याएं भी बढ़ा दी हैं. पंजाब में इन मशीनों का प्रयोग कर रहे कई छोटे किसानों की मानें तो ये मशीनें उनके लिए बिल्कुल भी कारगर नहीं हैं. वे इसके कारण भी बताते हैं. धान की फसल कटने के लगभग एक महीने के अंदर गेहूं की फसल की बुवाई शुरू हो जाती है. किसान बताते हैं कि सुपर-एसएमएस मशीन से काटकर खेतों में फैलाए गए पराली के छोटे-छोटे टुकड़े इस दौरान मिट्टी में नहीं मिल पाते. कई रिपोर्टों के मुताबिक किसानों का कहना है कि खेत में पराली की मौजूदगी चूहों को दावत देती है जो खेत में बोए गए गेहूं के बीजों को चट कर जाते हैं. दूसरी तरफ, अगर किसान पराली के सड़कर मिट्टी में मिलने के लिए और इंतजार करें तो बुवाई का समय बीत जाएगा.

किसानों के सामने एक समस्या इन मशीनों को खरीदने की भी है. सरकार इनके इस्तेमाल के लिए किसानों पर दबाव तो बना रही है लेकिन, जानकारों के मुताबिक ये मशीनें काफी महंगी हैं. यदि कोई किसान सरकार की ओर से मिलने वाली सब्सिडी पर भी इन्हें खरीदता है तो उसे कम से कम तीन लाख रुपये खर्च करने ही होंगे. यह खर्च सिर्फ यहीं पर खत्म नहीं होता. बताया जाता है कि ये मशीनें काफी ज्यादा हॉर्स पावर (बीएचपी) वाली हैं, ऐसे में इन्हें चलाने के लिए 60 से 80 हॉर्स पावर वाले ट्रैक्टर की जरूरत है. बाजार में इन ट्रैक्टरों की कीमत करीब 10 लाख रुपये है. जाहिर है, इनका किराया भी बनिस्बत ज्यादा होगा. चलाने के अलावा इन मशीनों की देखभाल भी काफी खर्चीली है. किसान बताते हैं कि अगर इन्हें किराये पर भी लिया जाए तो पहले तो ये आसानी से उपलब्ध नहीं हैं, और अगर उपलब्ध भी हो जाएं तो उन्हें छह से सात घंटे के इस्तेमाल के लिए करीब सात से आठ हजार रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं.

उधर, इन मशीनों को खरीद चुके कई किसान परेशान हैं. कइयों का कहना है कि सरकार ने उनसे सब्सिडी का वादा तो किया लेकिन, यह सब्सिडी उन्हें समय से नहीं मिल रही है. जानकारों के मुताबिक बीते कुछ समय के दौरान इन मशीनों की कीमतें भी बढ़ी हैं. पहले जहां सुपर-एसएमएस मशीन की कीमत 70 से 80 हजार रुपये थी, अब वह एकाएक बढ़ कर डेढ़ लाख रुपये तक हो गई है. इसी तरह से दूसरी मशीनों के दामों में भी बढ़ोत्तरी हुई है. कीमतें मशीनों की ही नहीं, डीजल और पेट्रोल की भी बढ़ी हैं जिसके चलते इन मशीनों का प्रयोग किसानों के लिए उपयोगी कम और बोझ ज्यादा साबित हो रहा है.

जाहिर है किसान परेशान हैं. वे चाहते हैं कि पराली का निस्तारण ऐसे तरीकों से किया जाए जिससे पर्यावरण को नुकसान न हो, लेकिन इसके लिए ऐसी मशीनों को खरीदने के लिए उन्हें बाध्य न किया जाए जो साल में सिर्फ एक हफ्ते से ज्यादा उनके काम नहीं आने वालीं. फिलहाल जो स्थिति है वह उनके लिए दोहरी मार जैसी है.