12 अप्रैल, 1679 को बुधवार था जब औरंगज़ेब ने ज़ज़िया लागू किया था. कहते हैं कि उसी शाम को दिल्ली की ज़मीन एक भूंकप से हिल उठी. उसके सलाहकारों ने कहा कि यह हिंदुओं का श्राप है जो सल्तनत को तबाह कर देगा. उसे यह भी याद दिलाया गया कि उसके परदादा यानी बादशाह अकबर ने ज़ज़िया हटाकर हिंदू रियाया को बराबरी का दर्ज़ा दिया था.

पर औरंगजेब कब किसी की सुनता था! और अगर सुनता तो शायद आलमगीर न बनता. क्योंकि शाहजहां ने तो हिंदुस्तान की गद्दी उसके बड़े भाई दारा शिकोह के नाम की थी. पर उसने दारा शिकोह ही नहीं, अपने सभी भाइयों को मार तख़्ते ताज अपने नाम किया था. उसे तो अकबर और दारा दोनों ही पसंद नहीं थे.

ज़ज़िया ग़ैर मुस्लिमों और ज़कात मुसलमानों पर लागू होता था. इस कर की परंपरा मुग़लों से पहले आए मुसलमान शासकों ने लागू कर दी थी. अकबर ने 1579 में इसे पूरी तरह से ख़त्म किया और ठीक सौ साल बाद औरंगज़ेब ने इसे फिर लागू कर दिया. इतिहासकार दामोदर लाल गर्ग के ‘औरंगज़ेबनामा’ के मुताबिक़ उसने शासन के 15वें साल में आदेश जारी किया कि मुसलामानों के व्यापार को कर मुक्त रखा जाए और हिंदुओं से पांच फीसदी का कर वसूला जाये. बाद में इसमें संशोधन करके फ़रमान जारी किया गया कि मुसलमान व्यापारियों से ढाई फीसदी कर लिया जाए

ज़ज़िया लगाने के पीछे मज़हबी और आर्थिक कारण दोनों ही कहे जा सकते हैं. कोई शक नहीं कि औरंगजेब ने हिंदुओं के मंदिर गिरवाए. अरुण शौरी अपनी क़िताब ‘दी वर्ल्ड ऑफ़ फ़तवास’ में यदुनाथ सरकार की मआसिर-ए-आलमगीरी के हवाले से लिखते हैं कि रमज़ान के महीने में उसने मथुरा के मंदिरों को गिरवाकर उनके जवाहरातों को आगरा की मस्जिद में दफ़ना दिया और मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया. ऐसे कई क़िस्से दर्ज़ हुए हैं जब औरंगजेब ने मंदिरों को गिरवाया. पर कई बार चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर भी कहा गया है.

औरंगजेब की आर्थिक मज़बूरी यह कही जा सकती है कि उसकी लगातार लड़ती फौजों के लिए रक़म की ज़रूरत होती थी और व्यापार पर हिंदुओं का एकाधिकार था. औरंगज़ेब के काल में भारत की व्यापारिक स्थिति का हवाला शशि थरूर की क़िताब ‘एन इरा ऑफ़ डार्कनेस’ से मिलता है. थरूर लिखते हैं कि साल 1700 में औरंगजेब के खज़ाने में 10 करोड़ ब्रिटिश पौंड बतौर टैक्स जमा हुए थे और उसकी कुल आय थी 45 करोड़ पौंड जो उसके समकालीन ब्रिटिश राजा लुईस 15वें से दस गुना ज़्यादा थी. इन्हीं लड़ाइयों के चलते आख़िरकार मुग़लिया सल्तनत का अंत हुआ. इतने बड़े खज़ाने को लड़ाइयों में इस्तेमाल किया गया और बाकी उसके कर्मचारी खा गए.

औरंगजेब के जंगजू होने की आदत का इस बात से पता चलता है कि 21 जुलाई 1658 को जब वह गद्दीनशीं हुआ, तब न उसने सिक्के गढ़वाए और न ही अपने नाम का ख़ुतबा पढ़वाया. बस एक अदना सा जलसा करवाया और तुरंत ही दारा शिकोह की तलाश में निकल पड़ा. बाद में वह राजपूतों से दो-दो हाथ करने लगा. ब्रिटिश इतिहासकार बैम्बर गस्कोइग्ने लिखते हैं कि मुग़लों के इतिहास में सबसे नुकसानदायक अगर कोई फ़ैसला था तो वह औरंगज़ेब का राजपूतों से भिड़ना कहा जाएगा. यहां से शुरू हुए जंगों के सिलसले उसे मराठवाड़ा और फिर दक्कन ले गए जहां से वह वापस ही न आ सका.

अकबर की राजपूत नीति मुग़ल सल्तनत के लिए कारगर थी. अकबर को अहसास था कि राजपूताना को जीतना कठिन है. एक तो इसलिए राजपूत अच्छे लड़ाके थे और दूसरा यहां की भौगौलिक परिस्थितियां उन्हें मज़बूत बनाती थीं. लिहाज़ा, उन्होंने तकरीबन सभी राजपूत घरानों से संबंध बनाये. जहांगीर और शाहजहां भी लगभग इसी नीति पर चले.

मारवाड़ का राजा जसवंत सिंह औरंगजेब की सेना में बतौर सेनापति शामिल था. यूं तो जसवंत सिंह ने दारा शिकोह का साथ दिया था, पर फिर भी उसने जसवंत सिंह की दिलेरी को देखते हुए उसको बहाल रखा. जसवंत सिंह की मौत काबुल के पास एक लड़ाई में हुई थी. इतिहासकार बताते हैं कि जसवंत सिंह की मौत पर औरंगजेब ने कहा था, ‘आज कुफ्र का दरवाज़ा टूट गया.’ कुफ्र का दरवाज़ा टूटा कि नहीं, मालूम नहीं, पर हां, मुग़ल सल्तनत की बुनियादों में दरार पड़ गयी थी. यह 10 दिसंबर 1678 की बात है.

पुरानी अदावत के चलते औरंगजेब ने जसवंत सिंह के वारिस अजीत सिंह को राजा न मानते हुए जोधपुर पर चढ़ाई कर दी. इससे उदयपुर के राणा को खतरा था क्यूंकि मुग़ल सेना बहुत नज़दीक आ गयी थी. मेवाड़ के राणा और उसकी लड़ाई का अंजाम तो जल्द ही संधि में बदल गया, पर मारवाड़ के साथ उसकी अगले कई सालों तक झड़प होती रही जो 1709 में जाकर ख़त्म हुई. इसी दौरान उसका बेटा अकबर राजपूतों के साथ मिलकर उसके ख़िलाफ़ खड़ा हो गया. जैसे-तैसे उसने राजपूती विद्रोह को दबाया, पर अकबर भागकर गुजरात के रास्ते दक्कन पहुंच गया और 1681 में औरंगज़ेब उसके पीछे-पीछे. यहां उसने चौथाई सदी जंग में बिता दी! वह वापस दिल्ली ही नहीं गया.

दरअसल, औरंगजेब बादशाह कम, सेनापति ज़्यादा था. यकीनन वह बहादुर था. किस्सा है कि जवानी में एक बार वह हाथी के सामने अकेला पड़ गया था, पर अपनी दिलेरी और सूझबूझ से वह बच गया. अपने बेटे अकबर और राजपूतों के ख़िलाफ़ जब उसकी सेना कम पड़ गयी, तो उसने राजपूती खेमे में ऐसे ख़त भिजवा दिए जिनसे राजपूतों को लगा कि बाप-बेटे दोनों ही मिलकर उनका ख़ात्मा कर देंगे. वे भाग छूटे और औरंगज़ेब जंग जीत गया. ऐसा ही एक दूसरा किस्सा भी है. बताते हैं कि एक जंग में जब उसकी सेना में दुश्मनों ने अफ़रातफ़री मचा दी थी तो उस वक़्त वह मैदाने-जंग में नमाज़ पढ़ रहा था. इससे याद आता है कि फ्रांस का शासक नेपोलियन भी जंग के बीच कुछ पलों के लिए घोड़े पर बैठे-बैठे ही झपकी ले पाने की हिम्मत रखता था.

वापस चलते हैं. दक्कन जाने के रास्ते में, बीच में मराठवाड़ा था जो अभी तक शांत नहीं हुआ था. बीजापुर के सेनापति अफज़ल खां का पेट चीरकर शिवाजी ने उस वक़्त हिंदुस्तान में हंगामा मचा दिया था. शिवाजी की बढ़ती ताक़त और औरंगज़ेब की दक्कन को जीतने की चाह में टकराव होना तय था. उसने अपने मामा शाइस्ता खान को शिवाजी से लड़ने भेजा. वह तैयार था पर शिवाजी का हमला यूं होगा और इतनी जल्दी होगा, यह उसने नहीं सोचा था. एक छापामार हमले में शाइस्ता खान को शिवाजी ने लगभग मार ही दिया होता, लेकिन वह बच गया. उसे तीन उंगलियां गंवानी पड़ीं

आलमगीर यूं हार मानने वालों में से नहीं था. उसने जयपुर के बुज़ुर्ग राजपूत सेनापति जयसिंह को शिवाजी के ख़िलाफ़ लड़ने भेज दिया. जयसिंह के पास तजुर्बा और हौसला दोनों ही ख़ूब थे. इस बार शिवाजी की छापामार लड़ाई के ख़िलाफ़ मुग़लिया सैनिक जीत गए. जयसिंह ने शिवाजी को औरंगज़ेब के सामने हाज़िर होने और जीते हुए किले वापस करने की शर्त रखी.

तब शिवाजी ने मेवाड़ के राणा को बादशाह द्वारा उसके दरबार में न आने की छूट का हवाला दिया. जयसिंह ने इंकार दिया. इस घटना से आप उस वक़्त के राजपूती प्रभाव का अंदाज़ा लगा सकते हैं. शिवाजी को आना पड़ा, वे कैद हुए, फिर भाग छूटे और बचते-बचाते साधुओं का वेश धरके मथुरा, ओड़िशा और फिर महाराष्ट्र पहुंचे. शिवाजी ने मुग़लों को काफ़ी नुकसान पहुंचाया. बाद के मराठे औरंगज़ेब को ख़ास चुनौती नहीं दे पाए.

1689 तक औरंगजेब ने मुग़ल सल्तनत की सीमाओं को वहां तक पहुंचा दिया जहां तक अकबर भी न ले सका था. पर यह समस्या भी थी. जैसे ही मुग़ल किसी इलाक़े को जीतकर आगे बढ़ते, मराठे और राजपूत पुराने इलाके वापस छीन लेते.

दक्कन जीतने के चक्कर में औरंगजेब सल्तनत पर पकड़ कमज़ोर होने लग गयी. उसकी अनुपस्थिति में दिल्ली के आसपास जाट विद्रोह करने लगे. प्रशासन में घूसखोरी बढ़ गयी. लगातार लड़ते-लड़ते औरंगजेब भी थक गया था. अब उसे यह सब बेमानी लगता था. अपने तीसरे बेटे आज़म को ख़त लिखा जिसमें उसने खुद को अभागा बताया. सोचिये, हिंदुस्तान का बादशाह, 49 साल तक जिसने सल्तनत संभाली, वह खुद को अब अभागा मान रहा था. उसने अपने सारे काबिल वंशज मरवा दिए थे और अब वह महसूस करने लगा था कि उसके बाद मुग़ल सल्तनत का अंत निश्चित है.

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 1707, को जब औरंगजेब ने आख़िरी सांस ली तो उसके पास लगभग पांच रुपये थे जो उसने टोपियां सिलकर कमाए थे. उसकी वसीयत के मुताबिक़ सिर्फ वही उसके दफ़नाने में ख़र्च करने थे. इस लिहाज से देखा जाये तो वह दरवेश था. उसने सरकारी खज़ाने को कभी हाथ नहीं लगाया. अपना खर्च ख़ुद उठाया. न इतिहास लिखवाया, न मकबरे बनवाए. शादी-ब्याहों के जलसे बंद करवाए और शराब और भांग पर पाबंदी लगाई. उसने कहीं मंदिर गिरवाए तो उनके बनने के लिए ज़मीनें भी दीं. एलेक्स रदरफ़ोर्ड ने औरंगजेब के जीवन पर लिखे उपन्यास ‘ट्रेटर्स इन द शैडोज’ में लिखा है कि उसके प्रशासन में जितने हिंदू थे उतने अकबर के काल में भी नहीं थे. कुछ मुसलमान दरबारियों को इस बात से एतराज किया तो उसने कहा, ‘प्रशासन में मज़हब का कोई मतलब नहीं होता, जो काबिल है वही रहेगा.’

पर दूसरा सच यह भी है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई औरंगजेब के काल में बढ़ी. यदुनाथ सरकार के मुताबिक़ उसके काल में शिवाजी ने जो कर दिखया उससे आने वाले हिंदुस्तान को प्रेरणा मिली. चर्चित लेखक बैम्बर गोइस्कोग्ने का मानना है कि शिवाजी के चलते राष्ट्रीयता की भावना का जो उभार हुआ वही गांधी काल में हिंदुस्तान की आजादी के रूप में बदला.