प्रसिद्ध मराठी लेखक पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे ने लिखा था कि हम महात्मा गांधी के रास्ते पर नहीं चल पाते इसलिए जिस रास्ते पर चलते हैं उसका नाम महात्मा गांधी मार्ग रख देते हैं. आजकल जगहों के नाम बदलने की जो मुहिम चल रही है, उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. राम के आदर्शों का हम पालन नहीं कर सकते, हम किसी क़िस्म की मर्यादा मन, आचरण और वाणी में नहीं बरत सकते, न हमारे राजपुरुष अपने राज करने की शैली को कण मात्र रामराज्य के मुताबिक ढाल सकते हैं. इसलिए वे जिले का नाम अयोध्या रख देते हैं.

न हम अरबों रुपये बहाकर गंगा की सफ़ाई कर पाए हैं, न यमुना की गंदगी को थोड़ा बहुत भी कम कर पाए हैं, न ही हम ऐतिहासिक शहर इलाहाबाद को एक सुंदर शहर बना पाए हैं. इसलिए हम संगम के किनारे बसे शहर का नाम प्रयाग रखकर पवित्रता का नक़ली बोध पैदा करने की कोशिश करते हैं.

हाल में खबर आई कि उत्तर प्रदेश सरकार अब आगरा जिले का नाम बदलकर अग्रवन करने की तैयारी में है. इस मामले में जिले के अंबेडकर विश्वविद्यालय से नाम बदलने के प्रस्ताव पर साक्ष्य मांगे गए हैं. अब इस पर विश्वविद्यालय का इतिहास विभाग मंथन कर रहा है. इतिहास के जानकारों के मुताबिक आगरा का नाम अग्रवन हुआ करता था. खबरों की मानें तो शासन अब ये साक्ष्य तलाशने की कोशिश कर रहा है कि अग्रवन का नाम आगरा किन परिस्थितियों में किया गया.

प्रतीकात्मक काम अक्सर वास्तविक काम न कर पाने की अक्षमता या विफलता को ढांकने की कोशिश से पैदा होते हैं. सरदार पटेल की विशाल मूर्ति सरकारी पैसे से बनवाना आसान है, सरदार पटेल की दृढ़ता, सच्चाई और विनम्रता को थोड़ा बहुत भी जीवन में उतारना मुश्किल है. गंगा को साफ़ करने के लिए लगन और मेहनत से लगातार काम करने की जरूरत है, गंगा की पूजा करना उसका आसान विकल्प है. उसी तरह जैसे देश की भलाई के लिए त्याग करना मुश्किल है, क्रिकेट मैच में तिरंगा लहराकर देशभक्त बनना उसका सस्ता और आसान विकल्प है. जो काम आम लोग व्हाट्सएप पर मैसेज फ़ॉरवर्ड कर के करते हैं वह सरकार जगहों के नाम बदल कर या मूर्तियां लगाकर करती है. इसमें कुछ करने का भ्रम भी पैदा हो जाता है और कुछ करना भी नहीं पड़ता.

ऐसा नहीं है कि प्रतीकों की या पहचान की राजनीति व्यर्थ है. प्रतीक कभी कभी बहुत बड़े बदलाव को पैदा करते हैं. लेकिन प्रतीक तभी सार्थक होते हैं जब वे समाज के वंचित, दमित समूहों के प्रतिरोध के कारक बनते हैं और उनकी पीड़ा या उनके साहस को अभिव्यक्ति देते हैं. इसलिए दलितों या पश्चिम में अश्वेत लोगों की राजनीति में प्रतीकों का महत्व सार्थक और सकारात्मक होता है. गांधी जी का दांडी में नमक बनाना एक प्रतीकात्मक काम था, लेकिन उसने भारत की आज़ादी के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई.

प्रतीकों का महत्व उसके समय और स्थान के संदर्भ से भी तय होता है. आज़ादी के पहले तिरंगा लेकर सड़क पर निकलना एक साहसपूर्वक प्रतिरोध था लेकिन यहां भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट मैच में तिरंगा लहराने वाला उतना बडा देशभक्त नहीं हो जाता. आज़ादी के पहले ‘वंदेमातरम’ का नारा लगाने का अर्थ जो था वह इक्कीसवीं सदी के आज़ाद भारत में ‘वंदेमातरम’ कहने का नहीं हो सकता, बल्कि बिल्कुल अलग भी हो सकता है. जिस विचारधारा या संगठन के लोग आज़ादी के पहले या ठीक बाद की कठिन परिस्थिति में सरदार पटेल के साथ नहीं खड़े हुए, वे इक्कीसवीं सदी के पटेल की आसमान से ऊंची मूर्ति बना दें, उससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता.

नाम बदलने का सिलसिला वास्तव में परिस्थिति न बदल पाने में विफलता या सच्चा बदलाव लाने का सामर्थ्य न होने की स्वीकृति है. यह करने वाले लोग न इतिहास के साथ न्याय करते हैं न ही वर्तमान के साथ. जिन जगहों के नाम बदले जा रहे हैं या बदलने की मांग हो रही है, उनके नए नामों के पीछे कोई ऐतिहासिक सच्चाई नहीं है. न ही इलाहाबाद का नाम कभी प्रयाग था न अहमदाबाद का नाम कर्णावती. और नाम बदलने से इन शहरों की वास्तविकता पर कोई असर नहीं होना है. बल्कि अगर राजनेताओं को यह लगेगा कि नाम बदलना राजनैतिक रूप से ज्यादा फ़ायदेमंद है तो वे शहरों को सुधारने की बजाय उनके नाम बदलने पर ही ध्यान देंगे. वैसे भी तथाकथित ‘स्मार्ट सिटी’ योजनाओं का क्या हुआ, यह ठीक से पता नहीं है.

अगर समाज के दबे-कुचले या अल्पसंख्यक समूह पहचान की राजनीति पर ज़ोर दें तो यह समझ में आता है क्योंकि उनकी असुरक्षा की भावना को समझा जा सकता है. लेकिन किसी समाज के विशाल बहुसंख्यक हिस्से को असुरक्षा और पहचान की राजनीति आकर्षित करने लगे तो इससे यह समझा जा सकता है कि उस समाज और उस राजनीति दोनों में कुछ बड़ा खोट है. हिंदू धर्म और संस्कृति इस देश में न कभी ख़तरे में थी न है. अगर मध्ययुग में मुस्लिम और बाद में ईसाइयों के आने के बाद भी वह संस्कृति फली-फूली तो आधुनिक काल में उसे क्या ख़तरा हो सकता है ?

आज़ादी के कई दशकों बाद तक पाकिस्तान भारत की अपेक्षा समृद्ध देश था और उसकी विकास दर भारत से लगातार ज्यादा रही. अस्सी के दशक में जिया उल हक़ की इस्लामीकरण की मुहिम के बाद से पाकिस्तान का आर्थिक विकास फिसलता चला गया और आज वह दिवालिया हालत में है. हिंदू पहचान की राजनीति हमें भी ऐसी ही रपटीली राह पर ले जा सकती है , अलबत्ता हम इस रपटीली राह का नाम विकास रख सकते हैं.