राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच चल रही जबरदस्त खींचतान के बीच इस चर्चा ने भी जोर पकड़ लिया है कि ‘राजस्थान का मूल निवासी ही यहां का मुख्यमंत्री बनना चाहिए.’ यह मांग पायलट विरोधी गुट की तरफ़ से उठाई गई है. लेकिन यह पहली बार नहीं है जब सचिन पायलट को राजस्थान से बाहर का व्यक्ति बताकर उन्हें घेरने की कोशिश की गई है. 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भी यह चर्चा जमकर उछली थी. तब टिकट कटने से नाराज़ राजस्थान कांग्रेस की नेता स्पर्धा चौधरी और उनके समर्थकों ने तो दिल्ली में पायलट की गाड़ी का घेराव करके उनके ग़ैर-राजस्थानी होने के नारे तक लगा दिए थे. यह घटना पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के घर के बाहर ही घटी थी.

सवाल है कि क्यों सचिन पायलट को उसी राजस्थान में बाहरी बताया जाता है जहां वे एक कद्दावर नेता के तौर पर स्थापित हैं और कुछ समय पहले तक देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे. असल में इस सवाल का जवाब सचिन पायलट के पिता और कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे राजेश पायलट से जुड़ता है. बताया जाता है कि वे उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से ताल्लुक रखते थे.

बात 1980 के लोकसभा चुनावों की है जब भारतीय वायुसेना में कार्यरत राजेश पायलट उर्फ़ राजेश्वर प्रसाद बिधूड़ी ने सक्रिय राजनीति में आने का फैसला लिया था. उस समय वायुसेना ने उनका इस्तीफा नामंजूर कर दिया था लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रूद्दीन अली अहमद के हस्तक्षेप के बाद राजनीति में आने का उनका रास्ता साफ हो गया. राजेश पायलट की पत्नी रमा पायलट इस बारे में एक पुराने साक्षात्कार में बताती हैं कि ‘इस्तीफ़े के बाद राजेश ने इंदिरा गांधी के सामने जाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के ख़िलाफ़ बागपत से चुनाव लड़ने की इच्छा ज़ाहिर की. लेकिन श्रीमती गांधी ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह दी.’

कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की इस प्रतिक्रिया के बाद भी राजेश पायलट ने इसके लिए प्रयास करना नहीं छोड़ा. रमा पायलट के मुताबिक ‘एक दिन संजय गांधी की तरफ से उनके पति के लिए एक फोन कॉल आया. इसमें उनसे मिलने का फरमान था. मुलाकात में राजेश को बताया गया कि उन्हें भरतपुर से चुनाव लड़ना है. हम लोगों ने भरतपुर का नाम नहीं सुना था. लेकिन उनसे पूछने की हमारी हिम्मत ही नहीं पड़ी. ख़ैर, पता चला कि भरतपुर, राजस्थान में है.’

भरतपुर के एक वरिष्ठ राजनीति विश्लेषक की मानें तो जब राजेश्वर प्रसाद बिधूड़ी यहां ऐन मौके पर पर्चा भरने आए तो जिला कांग्रेस के लोगों ने उन्हें पहचनाने से ही इन्कार कर दिया. कार्यकर्ताओं का कहना था कि हाईकमान की तरफ से किसी पायलट के आने की बात कही गई थी, बिधूड़ी की नहीं. जिला कांग्रेस से जुड़े सूत्रों के मुताबिक कार्यकर्ताओं की इस प्रतिक्रिया के पीछे तत्कालीन कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष जगन्नाथ पहाड़िया का भी इशारा था ताकि इस आपाधापी में नामांकन का समय गुज़र जाए. दरअसल पहाड़िया की मंशा अपनी पत्नी को भरतपुर से चुनाव लड़वाने की थी.

रमा पायलट के शब्दों में ‘इन्होंने बहुत समझाने की कोशिश की कि वो ही पायलट हैं, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं सुनी. तभी संजय गांधी का इनके पास फ़ोन आया कि कचहरी जाकर तुरंत अपना नाम राजेश्वर प्रसाद से बदलवा कर राजेश पायलट करवाओ. तब उन्होंने कचहरी में हलफ़नामा देकर अपना नाम बदलवाया. फिर संजय गांधी ने स्थानीय नेताओं से कहा कि ये जो शख़्स आपके यहां पर्चा दाख़िल करने आए हैं, यही राजेश पायलट हैं.’

ज़ाहिर तौर पर न सिर्फ भरतपुर बल्कि पूरे राजस्थान ने राजेश्वर प्रसाद को अपना लिया था. आगे चलकर उन्होंने भरतपुर के बाद दौसा जिले को अपनी कर्मभूमि के तौर पर चुना तो सचिन पायलट अजमेर से जीतकर सबसे कम उम्र के सांसद बनने में सफल हुए. इस बार पायलट टोंक विधानसभा से जीते और राजस्थान के उपमुख्यमंत्री बने. यही नहीं, 2003 के विधानसभा चुनाव में रमा पायलट ने पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को उन्हीं के गढ़ झालरापाटन में जाकर चुनौती दी थी.

लेकिन यह बात आपको दिलचस्प लग सकती है कि ख़ुद को ग़ैर-राजस्थानी बताए जाने पर असहज हो जाने वाले सचिन पायलट ने पिछले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को राजस्थान से बाहर का बताते हुए उन पर बड़ा हमला बोला था. राजे ग्वालियर के पूर्व राजघराने से ताल्लुक रखती हैं और उनकी शादी 1972 में धौलपुर (राजस्थान) के पूर्व राजघराने के इकलौते वारिस हेमंत सिंह से हुई थी. लेकिन यह रिश्ता एक साल भी नहीं टिक पाया और दोनों के बीच तलाक़ हो गया. 30 साल तक चली लंबी कानूनी लड़ाई के बाद 2007 में धौलपुर महल सहित हेमंत सिंह की जायदाद का बड़ा हिस्सा वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह के अधिकार में आ गया. लेकिन हेमंत सिंह से रिश्ता ख़त्म होने के बाद शायद धौलपुर के लोग राजे को स्वीकार नहीं कर पाए. शायद यही कारण था कि 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में राजे को धौलपुर सीट पर बनवारी लाल शर्मा के हाथों शिकस्त का सामना करना पड़ा.

विश्लेषकों की मानें तो यह ऐसा मोड़ था जब राजस्थान ने वसुंधरा राजे के लिए अपने दरवाज़े बंद कर लिए थे. लेकिन तब भाजपा के कद्दावर नेता भैरों सिंह शेखावत ने डावांडोल होते राजे के राजनैतिक कैरियर की डोर को थाम लिया और विधायक प्रेमसिंह सिंघवी जैसे करीबियों की मदद से राजे के पैर मध्यप्रदेश से सटे झालावाड़ में जमवाए. बाकी इतिहास है.