15 अगस्त, 1947 को जब देश आज़ाद हुआ तो इलाहाबाद स्थित एडेल्फी में रहने वाले हरिवंश राय बच्चन और उनका परिवार समझ नहीं पा रहा था कि वे आज़ादी की खुशियां मनाएं या उदास हों. तीन महीने पहले ही बच्चन की पत्नी तेजी दूसरे बेटे की मां बनी थीं. लेकिन उसी दौरान तेजी के कई रिश्तेदार पंजाब सूबे के पाकिस्तानी हिस्से से भागकर भारत में शरण ले रहे थे. तेजी एक सिख परिवार से आती थीं और उनका जन्म पंजाब के लायलपुर में हुआ था जो बंटवारे के दौरान पाकिस्तान का हिस्सा बननेवाला था. तेजी के बहन-बहनोई यानी अमिताभ-अजिताभ के मौसा-मौसी भी भारत भाग आए थे और इलाहाबाद में एडेल्फी स्थित उनके घर में शरण लिए हुए थे. अमिताभ पांच साल के थे. फिर भी उनको इतना याद है कि घर में गमगीन माहौल था और इसके बावजूद मन हल्का करने के लिए उस दिन एडेल्फी में भी तिरंगा झंडा लहराया गया था.
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अपनी आत्मकथा, ‘दशद्वार से सोपान तक’ में एडेल्फी के अपने घर को याद करते हुए बच्चन लिखते हैं- ‘एडेल्फी, जहां रहते हुए हमने प्रथम स्वाधीनता दिवस मनाया था जहां विभाजन के फलस्वरूप तेजी के कितने ही संबंधियों ने पंजाब से भागकर शरण ली थी; जहां महात्मा गांधी की हत्या का हृदय-विदारक समाचार हमने सुना था; और जहां मैंने उनके बलिदान से संबद्ध ‘सूत की माला’ और ‘खादी के फूल’ की रचना की थी.’
महात्मा गांधी की हत्या पर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविताओं पर हमने इसी मंच पर चर्चा की थी. ठीक उसी समय यानी 1948 में हरिवंश राय बच्चन भी अपनी तरह से उन्हें काव्यात्मक श्रद्धांजलि दे रहे थे. ‘सूत की माला’ काव्य-संग्रह जो जुलाई 1948 में छपा, उसके प्राक्कथन में बच्चन लिखते हैं- ‘कविता लिखना मेरे जीवन की एक विवशता है - कहना चाहिए कि अनेक विवशताओं में से एक है. और अपनी इस विवशता का अनुभव संभवतः कभी मैंने इतनी तीव्रता से नहीं किया जितनी बापू जी के बलिदान पर. बापू की हत्या के लगभग एक सप्ताह बाद मैंने लिखना आरंभ किया और प्रायः सौ दिनों में मैंने 204 कविताएं लिखीं. मेरे लिखने की प्रगति भी कभी इससे तेज नहीं रही.’
इस कविता-संग्रह की सबसे खास बात थी कि बच्चन ने इसे अपने जमादार (सफाईकर्मी) श्री जुमेराती जी को समर्पित किया था. गांधीजी अपने दिल्ली प्रवास में ज्यादातर भंगी बस्ती में ही रहते थे. और गांधी की इसी भावना को समझते हुए इससे अच्छा कुछ भी नहीं हो सकता है. बच्चन लिखते हैं - ‘यह सूत की माला मैंने - जैसा कि उचित भी था - बापू जी को समर्पित करने के लिए बनाई थी. परंतु किसी अज्ञात, प्रबल अंतःप्रेरणा के वशीभूत होकर मैं इसे अपने जमादार श्री जुमेराती को समर्पित करता हूं. भंगी बस्ती के संत की आत्मा संतुष्ट हो!’
हरिवंश राय बच्चन अपने परिजनों के साथ भारत-विभाजन की व्यावहारिक पीड़ा झेल ही रहे थे कि गांधीजी की हत्या का समाचार मिला. गांधीजी से अपने गहरे जुड़ाव के कारण इस नए दुःख ने उन्हें लगभग अवसाद की अवस्था में डाल दिया. नाथूराम गोडसे के प्रति बहुत क्षोभ उनके मन में पैदा हुआ. बच्चन ने अपनी एक कविता में लिखा:
नत्थू खैरे ने गांधी का कर अंत दिया,
क्या कहा, सिंह को शिशु मेढक ने लील लिया...
आगे किसी अन्य कविता में वे इसी तरह लिखते हैं:
नाथू ने भेदा बापू जी का वक्षस्थल,
हो गई करोड़ों की छाती इससे घायल
यदि कोटि बार वह जी-जीकरके मर सकता,
तो कोटि मृत्यु का दंड भोगता वह राक्षस।
इसी संग्रह में बच्चन आगे फिर से लिखते हैं:
तू सोच जरा तूने यह क्या कर डाला है,
तू उसे खा गया जिसने तुझको पाला है,
ठानी कैसे अंतर में ऐसी हठ तूने,
बापू का बधकर तू अपना हत्यारा है।
लेकिन बच्चन को मालूम है कि यह हत्या किसी व्यक्ति ने नहीं बल्कि एक संगठित विचारधारा ने की है. इसलिए वह इसी संग्रह में आगे लिखते हैं:
जिस क्रूर नराधम ने बापू की हत्या की,
उसको केवल पागल-दीवाना मत समझो,
वह नहीं अकेला इसका उत्तरदायी है,
है एक प्रेरणा उसके पीछे प्रबल कुटिल...
इसलिए वे हिंदू महासभा और आरएसएस की ओर इंगित करते हुए लिखते हैं:
छापा पड़ता हर सभा-संघ के दफ़्तर पर, हो रही तलाशी स्वयंसेवकों के घर-घर,
सब पुलिस सुराग लगाने में यह तत्पर है, किसने, कब, कैसे, कहां मदद की कातिल की...
यदि घृणा तुम्हारे मन के अंदर बसती है, यदि धर्म तुम्हारा फ़िरका-पंथ-परस्ती है,
तो तुमसे खतरे में भारत की हस्ती है, लो आज तलाशी सब अपने-अपने दिल की...
कवि का क्षोभ इतना गहरा जाता है कि वह कहता है कि गांधी को मुखाग्नि देने के लिए वही आग लाओ जिससे तुम दंगाइयों एक-दूसरे का घर जलाए हैं. गांधीजी पर ही अपने दूसरे कविता संग्रह ‘खादी के फूल’ में हरिवंश राय बच्चन लिखते हैं:
जिससे तुमने घर-घर में आग लगाई, जिससे तुमने नगरों की पांत जलाई,
लाओ वह लूकी सत्यानाशी, घाती, तब हम अपने बापू की चिता जलाएं...
वे जलें, बनीं रह जाए फिरकेबंदी, वे जलें मगर हो आग न उसकी मंदी,
तो तुम सब जाओ, अपने को धिक्कारो, गांधी जी ने बेमतलब प्राण गंवाए...
गांधी की हत्या के बाद बच्चन इतने दुखी थे कि वे चालीस दिन तक राजघाट की ओर न जा सके. और जब चालीस दिन बाद वे वहां गए, तब उन्होंने लिखा-
बापू की हत्या के चालीस दिन बाद गया
मैं दिल्ली को, देखने गया उस थल को भी
जिसपर बापू जी गोली खाकर सोख गए,
जो रंग उठा उनके लोहू की लाली से...
आगे वे लिखते हैं:
चालिस दिन, चालिस रातें अबतक बीत चुकीं,
फिर भी इस पथ पर घनी उदासी छाई है,
पग-पग जैसे उस दिन की याद संजोए है
कण-कण जैसे उस दिन की सुधि में भीगा है...
गांधीजी ने प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम’ को बच्चन ने पहली बार शास्त्रीय संगीत के प्रख्यात साधक विष्णु दिगंबर पलुस्कर जी के मुख से सुना था. और फिर जब वे गांधीजी के आश्रम गए तो वहां की प्रार्थना में गांधीजी के मुख से इस भजन को सुनकर भाव-विभोर हो गए. गांधीजी के आश्रम में रहनेवाली रेहाना तैयब जी ने कुरान की आयतों को राग भैरवी में पिरोया था. उनसे मिलकर भी हरिवंश राय बच्चन बहुत प्रभावित हुए थे. लेकिन जब गांधी जी हत्या हुई तो इस भजन का दुखद स्वरूप उनकी कविता में प्रस्फुटित हुआ. उन्होंने लिखा:
रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम!
किन पापों से हमने देखा गांधी जी का ऐसा अंत,
महाभयंकर इस दुष्कृति का आगे होगा क्या परिणाम! रघुपति राघव राजा...
भारतीय संस्कृति ने पूजे सब दिन अपने साधक संत,
हाय, हमारे युग ने कैसे धारण कर ली यह गति वाम!
क्षुब्ध धरा है, क्षुब्ध गगन है, क्षुब्ध दिशा, विक्षुब्ध दिगंत, लगा समय को ही विष-दंत,
इस अघटन घटना से सबको खाना, सोना काम हराम! रघुपति राघव राजा....
छोड़ नीर का तन बापू की आत्मा ने पर फड़काए,
आओ कर लें कंपित कर से, उनको अंतिम बार प्रणाम! रघुपति राघव...
अपराधी की निर्दयता पर भी तो बापू मुसकाए,
आओ मांग क्षमा लें हम भी उनके पद्-पद्मों को थाम। रघुपति राघव...
बापू के प्रिय पद-भजनों को, आओ सब मिलकर गाएं,
उनके शव के पास बैठकर करें रामधुन यह अविराम। रघुपति राघव....
1933 की गर्मियों में हरिवंश राय बच्चन ने उमर खैयाम की रुबाइयत का हिंदी में अनुवाद किया. इसके ठीक अगले साल यानी 1934 में 27 वर्षीय जवान कवि बच्चन की ‘मधुशाला’ प्रकाशित हुई और चारों तरफ उनकी ख्याति फैलने लगी. उसी दौरान गांधीजी की कोई सभा होनेवाली थी और बच्चन भी उसमें शरीक होनेवाले थे. किसी ने गांधीजी से शिकायत कर दी कि जिस सम्मेलन के आप सभापति हों, उसमें मदिरा का गुणगान किया जाए, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है. कहा जाता है कि इसके बाद गांधीजी ने कवि बच्चन को बुलाया और उनके मुंह से ही दो रुबाइयां सुनीं. रुबाइयां सुनकर गांधीजी ने आश्वस्त होते हुए कहा, ‘इसमें तो मदिरा का गुणगान नहीं है.’
अपने आखिरी कविता-संग्रह ‘जाल समेटा’ तक आते-आते बच्चन अपनी ‘अकविताओं’ में एकदम निर्मोही स्वर में सामाजिक विसंगतियों को अभिव्यक्त कर रहे थे. गांधी तब भी उनकी स्मृति में एकदम ताज़ा थे.
इस संग्रह में ‘दिल्ली की मुसीबत’ शीर्षक से एक कविता में बच्चन लिखते हैं:
‘दिल्ली भी क्या अजीब शहर है।
यहां जब मर्त्य मरता है विशेषकर नेता
तब कहते हैं, वह अमर हो गया
जैसे कविता मरी तो अ-कविता हो गई
बापू जी मरे तो इसने नारा लगाया।
बापू जी अमर हो गए,
अमर हो गए,
तो उनकी स्मृति को अमर करने के लिए
एक स्मृति
एक यादगार।
दिल्ली भी क्या मजाकिया शहर है
जो था एक नंग रंक,
राजसी ठाट से निकाला गया उसकी लाश का जुलूस,
जिसके पास न थी फूटी कौड़ी, फूटा दाना
उसके नाम पर खोल दिया गया खजाना
(गांधी स्मारक निधि)
जिसका था फकीरी ठाट,
उसकी समाधि का नाम है राजघाट’
यह लिखा था गांधी के मरने पर फूट-फूट कर रोनेवाले बच्चन ने. गांधीजी के 150वें साल में और बच्चन के 111वें साल में गांधीजी और बच्चन को एक साथ याद करने के लिए बच्चन की इन कविताओं को पढ़ना एक साथ भावोत्तेजक और विचारोत्तेजक हो सकता है.
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