इरफान खान साल 1988 में रिलीज हुई अपनी डेब्यू फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ में सिर्फ डेढ़ मिनट के लिए नजर आते हैं. उनका यह किरदार इतना छोटा है कि उस समय शायद ही किसी ने इस पर ध्यान दिया होगा. ऐसा इसलिए भी हुआ होगा कि अपनी जरा सी भूमिका में भी उन्होंने इतना नैचुरल अभिनय किया है कि कहानी के आगे बढ़ने से अलग कुछ महसूस ही नहीं होता. यहां तक कि आज भी अगर फिल्म में उनकी मौजूदगी की बात न मालूम हो तो शायद ही कोई 21 साल के इरफान को यहां पर पहचान सकेगा. कुल मिलाकर इस फिल्म के जरिए उनके पहली बार सिल्वर स्क्रीन पर उतरने का किस्सा कह पाना मुश्किल लगता है, लेकिन अब जब वे खुद से जुड़े किस्सों की भरमार छोड़कर दुनिया से जा चुके हैं तो उनसे पहली मुलाकात का वह किस्सा याद किया जा सकता है जो ‘हासिल’ के जरिए हुई थी.

फिल्मों में ठीक-ठाक ब्रेक मिलने के मामले में इरफान खान खराब किस्मत वाले कहे जा सकते हैं क्योंकि 1988 के बाद दोबारा उन्हें बड़े परदे पर आने का मौका करीब डेढ़ दशक बाद मिला. यह और बात है कि साल 2003 में तिग्मांशु धूलिया निर्देशित ‘हासिल’ तक पहुंचने के पहले वे टीवी पर अच्छा खासा नाम और शोहरत हासिल कर चुके थे.
उस पीढ़ी के लोग (खासकर महिलाएं) जिन्होंने इरफान को उनके टीवी वाले जमाने से देखा है, अक्सर यह कहते मिल जाते हैं कि ‘शायद इरफान को कभी बुढ़ापा नहीं आएगा. उन्हें ‘चंद्रकांता’ के वक्त से देख रहे हैं, ऐसा ही देख रहे हैं.’ वहीं उसके बाद वाली पीढ़ी, जिन्हें मिलेनियल्स कहा जाता है, ने इरफान को ‘हासिल’ वाले रणविजय सिंह के रूप में पहचाना. ‘हासिल’ के उनके इस बेमिसाल किरदार के लिए यह बात तो डंके की चोट पर कही जा सकती है कि बड़े परदे पर उन्हें सिर्फ और सिर्फ एक मौका मिलने की देर थी! इसके बाद जो हुआ, वह तमाम अवॉर्डों की फेहरिस्त में उनका नाम और हॉलीवुड तक के उनके सफर से पता चल जाता है.
‘हासिल’ पर आएं तो यह एक ऐसी फिल्म है जिसे सिनेमाघर में कम ही लोगों ने देखा और इसकी वजह फिल्म से किसी बड़े सितारे का नाम न जुड़ा होना माना जाता है. उस समय तिग्मांशु धूलिया ने भी इस फिल्म से बतौर निर्देशक डेब्यू ही किया था, जिमी शेरगिल ‘माचिस’ करने के बावजूद बतौर चॉकलेटी हीरो टाइपकास्ट होने लगे थे, वहीं ऋषिता भट्ट महज एक फिल्म पुरानी थीं. फिल्म में जाना-पहचाना नाम केवल आशुतोष राणा थे जो कि शुरुआती कुछ ही दृश्यों में ही नजर आने वाले थे. इसलिए जब फिल्म रिलीज हुई तो लोगों ने उसी शुक्रवार रिलीज होने वाली अनिल कपूर-ग्रेसी सिंह अभिनीत ‘अरमान’ को ज्यादा तरजीह दी. हालांकि बाद में ‘हासिल’ के साथ-साथ ‘अरमान’ भी फ्लॉप फिल्मों की ही कतार में शामिल हुई लेकिन इस फिल्म का वक्त शायद तब तक नहीं आया था. कुछेक साल बाद जब सीडी प्लेयर और लैपटॉप पर फिल्में देखने के चलन ने जोर पकड़ा तो ‘हासिल’ न सिर्फ जरूर देखी जाने वाली बल्कि बार-बार देखी जाने वाली फिल्म भी बन गई.
उत्तर प्रदेश की छात्र राजनीति पर आधारित ‘हासिल’ के कल्ट फिल्म बन जाने की एक बड़ी वजह इरफान हैं. अपने एंट्री सीन से ही वे इस कदर प्रभावित कर देते हैं कि फिर उनके अभिनय के मोहपाश से निकल पाना नामुमकिन हो जाता है. अपने पहले सीन में वे कुछ लोगों से बचकर बदहवास भाग रहे होते हैं. ज़ीने और खिड़कियों से कूदते और लंबे गलियारों में भागते इरफान खुली-खुली आंखों और अधखुले मुंह के साथ, हांफते हुए पहली बार नजर आते हैं. इस एक दृश्य में दूर-दूर तक कोई बनावट नज़र नहीं आती और इसके बाद ठेठ इलाहाबादी लहज़े में उन्हें संवाद बोलते हुए देखकर ही आपके मन में किसी इलाहाबादी लड़के की स्पष्ट छवि बन जाती है.
ढाई घंटे लंबी इस फिल्म में ज्यादातर वक्त छात्र राजनीति की गंदगी और हिंसा देखने को मिलती है और यह एक्शन या संवादों से ज्यादा इरफान के चेहरे पर नजर आती है. क्लाइमैक्स में जिमी शेरगिल के ‘हमने तुमको अपना भाई माना’ के उलाहने का जवाब जब इरफान ‘अबे हमने कहा था बे’ कहकर देते हैं तो कई बार सुनने के बाद भी खिसियाहट वाली हंसी छूट ही जाती है. इसके अलावा कुर्सी से बंधकर गुस्से में चिल्लाने का दृश्य हो या ‘नेताजी प्रणाम’ कहकर आशुतोष राणा के किरदार को गोली मारने का, या फिर गंगा किनारे बैठकर अपने गुंडे लुक के लिए अपनी आंखों को दोष देने वाला संवाद हो, इरफान बार-बार बगैर पलकें झपकाए देखने लायक हैं. इन दृश्यों की क्लिप्स का यूट्यूब पर पॉपुलर होना इस बात की गवाही देता है.
रणविजय सिंह बनकर अपने हावभावों को हल्कापन देने के लिए वे जिस गहराई से अभिनय करते हैं, वही दर्शकों के लिए उनके अभिनय को सोने के मोल तौलने पर मजबूर करता है. इस फिल्म में इरफान की परफॉर्मेंस के कसीदे आज भी तमाम ब्लॉग्स और सोशल मीडिया पर लिखे-पढ़े जाते रहते हैं और यह करने वाले कोई फिल्म क्रिटिक नहीं बल्कि आम लोग हैं. उस समय के हिसाब से देखें तो इरफान अपनी पहली फिल्म से बॉलीवुड को कोई नए तरह का सुपरस्टार या मोगैम्बो जैसा कोई विलेन देने का वादा करते नज़र नहीं आए थे. वैसे कहा जाए तो वे अभिनय करते हुए भी नज़र नहीं आते और बस इसीलिए उन्होंने तब जो भी कहा वह लोगों की जुबान पर चढ़ता गया और अब यह बोलचाल का हिस्सा बन चुका है. यह तय है कि उस समय जिन लोगों ने हासिल को सिनेमाघर में देखा होगा उन्हें एक्टर नहीं केवल रणविजय सिंह ही याद रह गया होगा. यही बात इरफान को इरफान का कद देती थी.
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