गुजरात के गिर क्षेत्र में पाए जाने वाले शेरों (एशियाई सिंह) की मौत का मामला ठंडा नहींं पड़ रहा है. अभी 29 नवंबर को ही अमरेली जिले की सीमा पर स्थित तुलसीश्याम वन क्षेत्र में एक शेरनी की शव मिला है. जूनागढ़ वन्यजीव परिक्षेत्र के मुख्य वन संरक्षक डीटी वासवड़ा ने इसकी पुष्टि की है. इसके साथ ही सितंबर से अब तक गिर में किसी न किसी कारण से मौत का शिकार हुए शेरों की तादाद 30 हो चुकी है.

वासवड़ा के मुताबिक, ‘जिस शेरनी का शव मिला है कि उसकी उम्र नौ से 12 साल के बीच थी. प्रारंभिक तौर पर ऐसा लगता है कि उसकी मौत प्राकृतिक कारणों से हुई है. हालांकि सही कारणों का पता पोस्टमॉर्टम के बाद चल सकेगा. शव को पोस्टमॉर्टम के लिए भेजा गया है.’ एनडीटीवी की एक रिपोर्ट के मुताबिक इससे पहले 29 अन्य शेरों की मौत भी हो चुकी है. इनमें कई तो छोटे शावक भी थे. इनमें से 23 शेरों की मौत तो सितंबर-अक्टूबर के तीन सप्ताह के भीतर ही हो चुकी थी. तब इस पर काफ़ी हंगामा भी हुआ था. हालांकि उसके बाद हंगामा तो काफ़ी हद तक शांत हो गया लेकिन शेरों की मौत का सिलसिला जारी है.

क्या कोई ‘सुपरबग’ भी शेरों का शिकार कर रहा है?

गिर के शेरों की मौत के अब तक कई कारण सामने आए हैं. इनमें निमोनिया की बीमारी, कैनाइन डिस्टेंंपर वायरस (सीडीवी) और प्रोटोज़ोआ (विषाणु) का संक्रमण तथा आपसी संघर्ष तक शामिल हैं. इसी फ़ेहरिश्त में एक कारण उत्तर प्रदेश के बरेली स्थित भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) की जांच से जुड़ा है. इसके मुताबिक गिर के शेरों की मौत का कारण ‘सुपरबग’ का हमला है.

सत्याग्रह को मिली जानकारी के अनुसार मरे शेरों के नमूने जांच के लिए आईवीआरआई भी भेजे गए थे. संस्थान के वन्य जीव विभाग के प्रमुख डॉ एके शर्मा ने इसकी पुष्टि की है. उन्होंने सत्याग्रह को बताया, ‘हमने यहां दो स्तरों पर नमूनों की जांच की. पहला- वन्य जीव विभाग से, दूसरी- महामारी विज्ञान विभाग से, ताकि पूरे और पुख़्ता नतीज़े सामने आ सकें. इन जांचों में शेरो की मौत के दो कारण सामने आए हैं. एक- सीडीवी का संक्रमण और दूसरा- सुपरबग का हमला.

संस्थान के महामारी विज्ञान विभाग के प्रमुख डॉक्टर बीआर सिंह ने भी इसकी पुष्टि की है. डॉ सिंह ने बताया, ‘गिर के मरे हुए शेरों के नमूनों में सुपरबग- क्लैबसिएला निमोनी पाया गया है. निमोनिया जैसी बीमारी इस सुपरबग के संक्रमण के प्रमुख लक्षणों में शामिल है. इसमें भी चिंताजनक बात ये है कि इस सुपरबग पर सामान्य एंटीबायोटिक का कोई असर नहीं होता.’ बताते चलें कि गुजरात के अधिकारियों ने भी यह माना है कि गिर के कई शेरों की मौत निमोनिया जैसी बीमारी व संक्रमण से हो रही है.

घने जंगलों तक सुपरबग पहुंचा कैसे?

डॉ सिंह का मानना है कि शेरों में यह ‘सुपरबग’ जंगल के ही संक्रमित जानवरों से पहुंचा हो सकता है. ऐसा जानवर जो जंगल से गुजरने वाली प्रदूषित नदियों का पानी पीकर संक्रमित हुआ हो और जिसका बाद में शेर ने शिकार किया हो. यहां बताते चलें कि गिर के वन क्षेत्र से क़रीब सात नदियां- शत्रुंजी, हिरन, शिंगोडा, मछुंद्री, रावल, आदि निकलती हैं. शहरों-कस्बों के सीवर, कचरे, औद्योगिक कचरे, अस्पतालों के अपशिष्ट आदि से इन नदियों का पानी प्रदूषित-संक्रमित होने की संभावना भी रहती है. ऐसे में इस पानी को पीने से जानवरों के संक्रमित होने की आशंका बनती है.

यहीं ग़ौर करने की बात यह भी है कि गिर अभयारण्य गुजरात के सबसे बड़े पर्यटन केंद्राें में है. इसके आसपास होटलाें, रिज़ॉर्ट के साथ अस्पताल आदि भी खूब हैं. इसीलिए डॉक्टर सिंह जैसे विशेषज्ञों की बात को ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता. इसके साथ ही डॉक्टर सिंह एक बात पर और ज़ोर देते हैं. उनके मुताबिक, ‘शेरों में सीडीवी की पुष्टि पहले ही हो चुकी है. इसके संक्रमण से रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाती हे. तिस पर अगर किसी सुपरबग या अन्य संक्रमण का हमला हो जाए तो मौत निश्चित है.’

सुपरबग का हमला पहली बार नहीं, लेकिन राज्य का रवैया अब भी वही

सत्याग्रह से बातचीत में डॉक्टर सिंह बताते हैं, ‘दो साल पहले (2015-16) भी गिर से मरे हुए शेरों के नमूने आए थे. तब भी पता चला था कि उनकी मौत इसी क्लैबसिएला निमोनी सुपरबग से हुई.’ ऐसे में सवाल फिर वही जो हर बार उठते हैं. गुजरात सरकार दुनिया के इस दुर्लभ सिंहवंश (एशियाई शेर दुनियाभर में सिर्फ गिर में ही पाए जाते हैं) की संरक्षा और सुरक्षा के लिए क्या कर रही है? इस दिशा में उसकी गंभीरता अक़्सर सवालों के दायरे में क्यों आती है?

ये सवाल इसलिए भी उठते हैं कि पर्यावरण विशेषज्ञ कई सालों से लगातार यह ज़रूरत बता रहे हैं कि गिर अभयारण्य में अब उसकी क्षमता से अधिक शेर हो चुके हैं. इसलिए उनमें से एक ठीक-ठाक संख्या में सिंहवंश को किसी दूसरी जगह पुनर्वासित किया जाना चाहिए. मध्य प्रदेश के कूनो-पालपुर में एशियाई सिंहों की बसाहट के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर के स्थितियां अनुकूल बनाई गई हैं. लेकिन गुजरात सालों-साल से अपनी इस ज़िद पर अड़ा है कि गिर के शेरों का कहीं और पुनर्वास नहीं किया जाएगा.

गुजरात के मुख्यमंंत्री विजय रूपाणी बीते अक्टूबर में ही साफ कह चुके हैं, ‘गिर का एक भी शेर गुजरात के बाहर नहीं भेजा जाएगा. उनकी दवा-दारू यहीं की जाएगी, गिर में ही.’ लगभग उसी समय राज्य के वन एवं पर्यावरण मंत्री गनपत वसावा ने बताया था, ‘जल्द की बरदा-डूंगर अभयारण्य एशियाई शेरों की दूसरी बसाहट होगी.’ इसके बाद ताज़ा ख़बर ये आई है कि गुजरात सरकार ने अभी 20 नवंबर को ही एशियाई शेरों की सुरक्षा-संरक्षा के लिए 351 करोड़ रुपए का विशेष पैकेज मंज़ूर किया है. इसके तहत सिंहों के लिए आधुनिक उपकरणों से युक्त विशेष अस्पताल बनाए जाएंगे. एंबुलेंसों का इंतज़ाम किया जाएगा. निगरानी के लिए पूरे इलाके में क्लाेज़ सर्किट टेलीविज़न कैमरे लगाए जाएंगे. उनके लिए इसी तरह की अन्य मूलभूत सुविधाएं विकसित की जाएंगी.

लेकिन क्या इतने से हालात सुधरेंगे?

हालांकि गुजरात सरकार के इन प्रयासों से हालात में सुधार होगा, इसकी संभावना कम ही दिखती है. इसी विषय पर सत्याग्रह की पिछली रपट में जानकारों के हवाले से यह साफ किया गया था कि एशियाई शेरों के जीवन को सबसे बड़ा ख़तरा उनकी बढ़ती आबादी है. वह भी एक निश्चित और सीमित जगह पर ही. यह ‘एक टोकनी में सभी अंडे’ रखने जैसी स्थिति ही ख़तरनाक है.

पर्यावरण और वन्य जीव संरक्षण क्षेत्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक रवि चेल्लम कहते हैं, ‘चूंकि सभी एशियाई सिंह एक ही जगह सीमित हैं. इसलिए उनकी आबादी को कई स्वाभाविक ख़तरे पैदा हो रहे हैं, बने हुए हैं. जैसे कि जंगल की आग, विपरीत मौसम की भीषण परिस्थितियां (बाढ़-सूखा आदि) और उनमें ज़रूरी-ग़ैरज़रूरी आपसी संसर्ग और विषाणु आदि से संक्रामक बीमारियों का डर.’

इन तमाम परिस्थितियों का परिणाम बताते हैं, वन्य जीव संरक्षण के क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय अजय दुबे. सत्याग्रह की सहयोगी वेबसाइट स्क्रोल से बातचीत में वे कहते हैं, ‘सितंबर में ही गुजरात के वन एवं पर्यावरण मंत्री ने विधानसभा में माना है कि 2016 से 2017 के बीच विभिन्न कारणों से 182 शेरों की मौत हुई है. इनमें से 32 शेर अप्राकृतिक मौत मरे हैं.’ और इस पर बीते तीन महीने में मारे गए सिंहों का आंकड़ा भी जोड़ें तो 2016 के बाद से यह संख्या अब तक 212 के आसपास पहुंच जाती है.

यानी चिंताजनक संदेश और भविष्य का संकेत दोनों साफ है कि जब तक एशियाई सिंहों का कहीं और पुनर्वास नहीं होता, उनके लिए ‘सुपरबग और सीडीवी’ जैसे ख़तरे बने रहने वाले हैं.