उत्तर प्रदेश के बरेली से एक चिंताजनक ख़बर सामने आई है. इसके मुताबिक अभी बीते सप्ताह ही यहां के छावनी (कैंट) इलाके में स्थित सेना की घुड़साल के सात ‘पराक्रमी’ घोड़ों की मौत हो गई. जबकि 40 अन्य बीमार हो गए. इनमें से कुछ की हालत गंभीर है. ख़बरों के मुताबिक सेना की ओर से बताया गया कि इन घोड़ाें की मौत ध्वनि प्रदूषण से हुई है. इस लिहाज से यह चौंकाने वाली खबर है कि ध्वनि प्रदूषण से किसी भी जीव की मौत का यह मामला संभवत: देश में पहला ही है. हालांकि ध्वनि के प्रति घोड़ों की संवेदनशीलता को देखते हुए जानकार इस बात को पूरी तरह ख़ारिज़ भी नहीं करते. फिर भी कुछ सवाल हैं, जिनके ठीक-ठीक ज़वाब अब तक तो सामने नहीं आ पाए हैं.
मौत का कारण ध्वनि प्रदूषण ही या कोई बीमारी
बरेली में सेना की 883 एटी (एनीमल ट्रांसपोर्ट) बटालियन का मुख्यालय है. यहां सेना की बड़ी घुड़साल भी है. इसे ‘घोड़ा बटालियन’ भी कहा जाता है. यहां अच्छी-खासी संख्या में और जर्मनी की स्टार डस्ट जैसी उच्च नस्ल (इसे ‘थॉरो’ भी कहते हैं) के घोड़े बांधे जाते हैं. दुर्गम इलाकों और विपरीत परिस्थितियों में ये घोड़े ही सैनिकों की आवाज़ाही के काम आते हैं. इसीलिए इन्हें भी ‘पराक्रमी सैनिक’ की तरह आला दर्ज़े का प्रशिक्षण दिया जाता है. इतने मात्र से ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन घोड़ों की सेना के लिए कितनी अहमियत होती होगी. इसीलिए घोड़ाें की बीमारी और मौत से सेना का चिंतित होना भी लाज़िमी है.
लिहाज़ा जैसे ही घोड़ों की मौत की ख़बर आई, मुख्यालय की प्रशासनिक इकाई के कमांडेंट कर्नल पी रावत ने मीडिया में बयान जारी किया. इसमें कहा गया है, ‘घोड़ों का शोर व प्रदूषण से बीमार होना बेहद चिंताजनक है. यह देश की सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद घातक साबित हो सकता है.’ इसके साथ ही बताया गया कि छावनी इलाके से गुजरने वाले जो चार रास्ते आम जनता के लिए खोले गए हैं, उनमें सर्वाधिक यातायात घोड़ा बटालियन रोड पर ही रहता है. यहां से दिनभर में लगभग छह हजार से अधिक वाहनों की आवाज़ाही होती है. इससे सड़क के बमुश्किल 20 मीटर की दूरी पर स्थित घुड़साल में बंधे घोड़े बेचैन हो जाते हैं. उनकी नींद पर असर पड़ रहा है. वे चिड़चिड़े हो रहे हैं. वे न ठीक से खाते-पीते हैं, न उनका व्यायाम और प्रशिक्षण ही सही तरह से हो पा रहा है. इससे उनकी सेहत लगातार गिर रही है.
सेना की ओर से जारी की गई इस जानकारी में यूं तो कोई परेशानी नहीं लगती. यह कुछ हद तक सही भी हो सकती है क्योंकि घोड़े ध्वनि के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं. इस मामले में हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि घोड़ाें की सुनने की क्षमता इंसान से कहीं ज़्यादा होती है. वे न्यूनतम 14 हर्ट्ज़ से अधिकतम 25 किलोहर्टज़ तक की ध्वनि सुन सकते हैं. जबकि इंसान की सुनने की क्षमता 20 हर्ट्ज़ से अधिकतम 20 किलोहर्टज़ तक ही होती है. यही कारण है कि घोड़ों को भूकंप का अहसास जल्दी हो जाता है और पटाखों आदि की तेज आवाज़ पर वे तेजी से प्रतिक्रिया करते हैं. ऐसे में लगातार अपने आसपास होने वाले शोर-शराबे से उनकी बेचैनी स्वाभाविक है.
बरेली में ही स्थित भारतीय पशु चिकित्सा संस्थान (आईवीआरआई) के निदेशक आरके सिंह भी एक अख़बार को दी अपनी प्रतिक्रिया में कहते हैं, ‘शोर और प्रदूषण से घोड़ों में तनाव बढ़ सकता है. वे चिड़चिड़े और आक्रामक हो सकते हैं. तनाव की स्थिति पुरानी बीमारी को उभारती है. इससे मौत होने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता.’
लेकिन मसला यहीं तक होता तो एक बात थी. घोड़ों की मौत की ख़बर सामने आने के बाद ‘सत्याग्रह’ ने अपने स्तर पर इसकी पड़ताल की. इसमें मालूम हुआ कि घोड़ों की मौत का मामला सार्वजनिक होने के बाद से रक्षा मंत्रालय तक के कान खड़े हो गए हैं. मामले की जांच के आदेश दे दिए गए हैं. जांच में यह बिंदु भी शामिल किया गया है कि घोड़ों की मौत का कारण सिर्फ़ ध्वनि प्रदूषण ही है या कोई बीमारी या संक्रमण भी हो सकता है. इस बाबत सत्याग्रह से बातचीत में छावनी इलाके के प्रशासनिक कमांडेंट कर्नल पी अमित ने बताया, ‘चिकित्सकों ने अभी यह पुष्टि नहीं की है कि घोड़ों की मौत ध्वनि प्रदूषण से ही हुई है. उन्होंने सिर्फ इसे संभावित कारण बताया है. उनकी मौत के कारणों में लोगों की अधिक आवाज़ाही की वज़ह से हुआ कोई संक्रमण भी हो सकता है. हालांकि इसकी भी पुष्टि नहीं हुई है.’
यहीं से सवाल उठता है कि जब कोई वज़ह अब तक पुष्ट ही नहीं हुई है तो ध्वनि प्रदूषण से मौत की बात किस आधार पर की गई? या संक्रमण को भी लोगों की आवाज़ाही (घोड़ा बटालियन वाले रास्ते से) से जोड़ने की कोशिश क्यों हाे रही है? क्योंकि संक्रमण तो किसी अन्य कारण से भी हो सकता है, जो पोस्टमॉर्टम से ही पता चलेगा? और पोस्टमॉर्टम से पहले ही इस तरह की बातें क्यों सामने लाई गईं?
क्या छावनी इलाकों को आम जनता के लिए खोलने-बंद करने का कोई मसला भी हो सकता है?
हालांकि सेना के घोड़ाें की मौत निश्चित ही चिंताजनक है. लेकिन उसे जिस तरह सार्वजनिक किया गया उससे यह मामला छावनी इलाकों को आम जनता के लिए खोलने-बंद करने के मसले से भी जुड़ा लगता है. यहां बताते चलें कि इसी साल जुलाई तक ऐसी ख़बरें लगातार आ रही थीं कि सरकार और सेना के बीच छावनी इलाकों को आम जनता की आवाज़ाही के लिए खोलने पर गतिरोध बना हुआ है. केंद्र सरकार (रक्षा मंत्रालय) के स्पष्ट निर्देश के बावज़ूद छावनी इलाकों की सड़कों को जनता के लिए खोलने को सेना राजी नहीं थी.
इंडिया टुडे ने अपनी एक ख़बर में बताया था कि जुलाई तक भी सेना ने अपनी दक्षिण और पश्चिमी कमानों से लगे छावनी इलाकों की 17 सड़कें नहीं खोली थीं. बल्कि उस समय 70 अन्य सड़कों को बंद करने का ही आग्रह किया था. सेना से जुड़े परिवारों ने सुरक्षा संबंधी चिंताएं जताई थीं. वहीं तमाम सांसदों ने पार्टी लाइन से अलग जाकर रक्षा मंत्रालय को पत्र लिखकर इन चिंताओं को ख़ारिज़ किया था. साथ ही मंत्रालय से आग्रह किया था कि जनता की सुविधा को देखते हुए छावनी इलाकों की सड़कें आम आवाज़ाही के लिए खोली जाएं.
यहां बताते चलें कि छावनी इलाके सैन्य इलाकाें से अलग होते हैं. सैन्य इलाकों में जहां सिर्फ सेना और सैन्य परिवार ही रहते हैं. वहीं उनसे लगने वाले छावनी इलाकों में सैन्य के साथ आम नागरिकों के परिवार भी निवास करते हैं. हालांकि यह इलाका पूरी तरह होता सेना के नियंत्रण में ही है. एक जानकारी के मुताबिक देशभर में 62 छावनी इलाके हैं. यहां लगभग 50 लाख की सैन्य और आम आबादी रहती है. इसी संदर्भ में एक ख़बर यह भी आई थी कि सेना सभी छावनियों को ख़त्म कर उन्हें पूरी तरह सैन्य इलाकों में तब्दील करने की तैयारी कर रही है. यानी उन्हें आम नागरिकों की पहुंच से मुक्त करने की मंशा रखती है.
सो, यही वह कारण भी है जिसकी वज़ह से सेना के घोड़ों की मौत का मामला सिर्फ़ उतना नहीं लगता, जितना वह दिख रहा है. इसमें कुछ और भी कड़ियां हो सकती हैं, जो शायद आगे समय के साथ सामने आएं.
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