इन दिनों गाली के रूप में अंग्रेज़ी का एक लफ्ज़ खूब चलता है. यह लफ़्ज है ‘लिबटार्ड’. इसका निशाना वे लोग होते हैं जिनके विचारों में सर्वधर्म समभाव और खुलापन होता है. उदार यानी लिबरल लोगों की पूरी जमात, जिसमें रोमिला थापर, रामचंद्र गुहा, कुछ चुनिंदा पत्रकार और राजनैतिक व्यक्ति शामिल हैं, को इस शब्द से संबोधित करना शगल बन गया है. भाई, कीजिए. कोई रोके, तो बताना. पर, आज हम एक ऐसे शख्स का ज़िक्र कर रहे हैं, जो यकीनन सबसे पहले ‘लिबटार्ड’ कहे जा सकते हैं. उनका नाम है तेज बहादुर सप्रू.

शुरुआती ज़िंदगी

तेज बहादुर सप्रू घोर धर्म निरपेक्ष थे. इतने कि 1941 में जब पहली मतगणना (सेन्सस) हुई तो उन्होंने अपनी जाति बताने से इंकार कर दिया. मशहूर शायर इकबाल को उन्होंने कहा था, ‘इक़बाल तुम अच्छे शायर तो हो, पर बढ़िया राजनैतिक नहीं. चुनांचे, शायरी पर ही टिके रहो’. इक़बाल ने भी पलटकर कहा, ‘तेज, कोई बात नहीं. राजनीति तुम संभालो, शायरी मैं संभालता हूं. दोनों बातें घर ही में रह जायेंगी. आख़िर, हम दोनों सप्रू खानदानों से जो हैं’.

आपको बता दिया जाए कि इक़बाल सप्रू गोत्र के कश्मीरी पंडित थे. बस फ़र्क इतना भर ही है कि इकबाल के पूर्वज इस्लाम क़ुबूल कर लाहौर की जानिब निकल गए और हमारे आज के किरदार के दादा, पहले दिल्ली आये और फिर अलीगढ़ जा बसे. वहीं आज के दिन,1875 को तेज बहादुर का जन्म हुआ. 20 साल का होते-होते उन्होंने अंग्रेज़ी में एमए और कानून पढ़ लिया.

राजनैतिक सफ़र

तेज बहादुर सप्रू की वकालत ख़ूब चली. इतनी कि मत पूछिए. उस दौर के राजे-महाराजे उन्हें बतौर वकील बुलाते थे. वकालत करते-करते तेज बहादुर होम रूल मूवमेंट से जुड़ गए. एनी बेसेंट उन्हें किसी रोमन दार्शनिक का हिंदू अवतार कहती थीं. उस दौर के जाने-माने ब्रिटिश अर्थशास्त्री हैराल्ड जोसफ़ लास्की की नज़र में सप्रू उदारवाद के इतिहास के सबसे प्रखर विचारकों में गिने जाने वाले जॉन स्टुअर्ट मिल का दूसरा संस्करण थे. इससे आप इस ‘लिबटार्ड’ की बुद्धिमता का अंदाज़ा लगा सकते हैं.

कांग्रेस नेता पंडित बिशन नारायण डार का तेज बहादुर सप्रू पर सबसे ज़्यादा असर था. वे गोपाल कृष्ण गोखले और महादेव गोविन्द रानाडे के आभामंडल से भी अभिभूत थे. नरम दल की फ़िलॉसफ़ी उन्हें अपने विचारों से मेल खाती हुई लगती थी. होम रूल का समर्थन करते हुए, 1916 में लखनऊ कांग्रेस के अधिवेशन में तेज बहादुर सप्रू ने हंगामाखेज़ भाषण दिया था. उनका कहना था, ‘जो भी सुधार अब तक हुए हैं, और जो भविष्य में होंगे वो भी कमतर ही रहेंगे. ये लोगों की उम्मीद के मुताबिक़ नहीं हैं. आत्मसम्मान का तकाज़ा है कि हमें (यानी भारतीयों को) राजनीति के क्षेत्र में बच्चा न समझा जाये और किसी भी सम्मानित देश के नागरिकों की तरह, हमें भी अपने भविष्य का निर्माण करने दिया जाए.’

इस सब के बावजूद तेज बहादुर सप्रू यही मानते थे कि भारत की उन्नति ब्रिटिश कामनवेल्थ के दायरे में रहकर ही संभव है. 1930 में जब महात्मा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस में हल्की सी आक्रामकता दिखाई देने लगी तो उन्होंने पार्टी छोड़कर इंडियन लिबरल पार्टी से नाता जोड़ लिया.

गांधी से मिलना

‘बिल्डर्स ऑफ़ मॉडर्न इंडिया’ श्रृंखला के लेखक एसके बोस लिखते हैं कि महात्मा गांधी और तेज बहादुर सप्रू अलहदा शख्सियत के मालिक थे और कई मौकों पर सप्रू ने गांधी की ज़बरदस्त आलोचना भी की थी. उन्हें गांधी का असहयोग आंदोलन तार्किक नहीं लगता था. पर जब वे गिरफ़्तार हुए तो सप्रू ने उन्हें रिहा करने की पुरज़ोर अपील की.

‘गांधी-इरविन पैक्ट’ भारतीय आज़ादी के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ कहा जाता है. इसमें सप्रू का अहम योगदान है. दरअसल, गांधी के लार्ड इरविन के साथ समझौते और दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में शिरकत करने के लिए गांधी को मनाने में सप्रू का बड़ा योगदान था.

भारत छोड़ो आंदोलन में जब गांधी और अन्य कांग्रेस नेता धर लिए गए तो देश में राजनैतिक शून्य पैदा हो गया. इससे निपटने के लिए और ख़ासकर गांधी को रिहा करने के लिए, सप्रू सरकार से भिड़ गए. हिन्दू-मुस्लिम मुद्दे पर जब गांधी की जिन्ना के साथ वार्ता होनी थी तो उन्होंने गांधी को पत्र लिखकर कहा, ‘मुझे कोई शक नहीं है कि ये मसला आपके हाथों में महफूज़ है और मैं इस मुलाक़ात के सफल होने की दुआ करता हूं.’

अफ़सोस! यह मुलाक़ात कामयाब न हुई. इसके बाद तेज बहादुर सप्रू ने महात्मा गांधी को एक और ख़त लिखकर कहा, ‘इसके विफल होने में आपका कोई हाथ नहीं है और यह भी तय नहीं है कि हर बार ऐसा ही अंजाम होगा. आपका उद्देश्य महान है और पूरे नज़रिए पर आपकी सोच सही है.’ उन्होंने गांधी को उपवास के लिए भी यह कहते हुए मना किया कि इस समय उनकी की अच्छी सेहत देश के लिए सबसे ज़रूरी है.

गांधी के अध्यात्म के विचार से सप्रू सहमत नहीं थे पर हिन्दू-मुस्लिम एकता के उनके विचार के वे सबसे बड़े समर्थक थे. गाँधी की तरह ही उनका भी मानना था इस मसले के देर से हल के मायने देर से आजादी मिलना है.

उर्दू और फ़ारसी प्रेम

पी राजेश्वर राव ‘द ग्रेट इंडियन पेट्रियटस’ में लिखते हैं, ‘सप्रू की नज़र में बढ़िया खाना वो था जो मुस्लिम तरीक़े से हिंदू रसोई में बनाया जाए और जिसे पाश्चात्य तरीक़े से परोसा जाए! सप्रू और एमआर जायकर गहरे दोस्त थे. जायकर हिंदू जबकि सप्रू इस्लामी संस्कृति के पैरोकार माने जाते थे.’

इससे जुड़ा एक बेहद दिलचस्प क़िस्सा है. हैदराबाद कोर्ट में और जिन्ना एक दूसरे के ख़िलाफ़ पैरवी कर रहे थे. सप्रू के दोस्त डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के हवाले से इस वाकये को एसके बोस ने अपनी किताब में यूं लिखा है : ‘जिन्ना ने मामले की पेशकश में एक फ़ारसी ग्रंथ के अंश का हवाला दिया. सुनवाई करने वाले हाई कोर्ट जज ने जब उसका भावार्थ पूछा तो जिन्ना चक्कर खा गए. ऐसे में, सप्रू आगे आये और उन्होंने उस फ़ारसी ग्रंथ के अंश का अनुवाद अंग्रेज़ी में करके कोर्ट को सुनाया. जिन्ना पानी मांगते रह गए. अगले दिन एक अख़बार की सुर्ख़ी थी - मौलाना सप्रू ने फ़ारसी ग्रंथ का पंडित जिन्ना के लिए अनुवाद किया!’

भारतीय संविधान और सप्रू कमेटी की सिफ़ारिशें

तेज बहादुर सप्रू कानूनविद थे और भारतीय संविधान में उनका बहुत बड़ा योगदान है. भारतीय संविधान के सबसे बड़े जानकारों में से एक ग्रैनविल ऑस्टिन ने अपनी किताब ‘दा इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन-कार्नर स्टोन ऑफ़ ए नेशन’ में लिखा है, ‘अधिकारों पर सबसे मौलिक रिपोर्ट अगर कोई पेश हुई तो वो ‘सप्रू रिपोर्ट’ थी. रिपोर्ट ने अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और अधिकारों की पुरज़ोर बात करते हुए इसे भावी सरकार की ज़िम्मेदारी कहा.’ सप्रू रिपोर्ट में कहा गया था कि संविधान के आदेशानुसार सरकार समाज के दो विभिन्न समूहों के बीच राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक स्वतंत्रता को समान रूप से लागू करे.

ऑस्टिन लिखते हैं कि तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता वाली कमेटी ने सामाजिक और राजनैतिक समानता पर ज़ोर देने के लिहाज़ से आर्थिक मसलों को इससे अलग रखा. ऑस्टिन के मुताबिक़ सप्रू रिपोर्ट 1919 और 1935 के ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट’ में विभिन्न समुदायों को अलग प्रतिनिधित्व की बात करने की वजह से बढ़ी सामाजिक खाई को कम करने का प्रयास करती है.

कुछ दिलचस्प क़िस्से

एक बार पटना हाई कोर्ट में बहस के दौरान तेज बहादुर सप्रू जज महोदय की ‘बुद्धिमता’ और क़ानूनी अनभिज्ञता पर हैरान थे. जज से मुख़ातिब होते हुए उन्होंने कहा ‘माई लार्ड, कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो माने कि जज को कानून की जानकारी होनी चाहिए.’

उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी शानदार था जो शायद उन्हें विरसे में अपने पिता से मिला था. पी राजेश्वर लिखते हैं कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मलिक फीरोज़ खान नून की तीन बीवियां थीं जिनमें दो मुसलमान और एक ऑस्ट्रियाई थी. अब मसला उठा कि कौन सी ‘लेडी नून’ कही जाएगी. सप्रू ने मज़ाकिया अंदाज़ में इसका हल करते हुए कहा- पहली बीवी फ़ॉरनून (सुबह) होगी, दूसरी लेडी नून कहलाई जाएगी, और तीसरी आफ्टरनून.’

तेज़ बहादुर सप्रू ताउम्र महिलाओं की सोहबत से डरते रहे. वे 35 उम्र में विदुर हो गए थे. फिर उन्होंने फिर शादी नहीं की. क़िस्साकोताह (संक्षेप) है कि आज जिस संविधान के तहत भारत में सभी समुदायों को जीने के समान अधिकार प्राप्त हैं, वे कानूनविद तेज बहादुर सप्रू सरीखों की देन कहे जा सकते हैं. अब फ़ैसला आपको करना है कि देश को ऐसे ‘लिबटार्ड’ चाहिए कि नहीं.