राजस्थान में मतदाताओं ने लगातार पांचवीं बार भी सत्ता बदलने की अपनी प्रवृत्ति को बरकरार रखा है. इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 200 में से 100 सीट हासिल करने के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन गई है. हालांकि वह बहुमत के जादुई आंकड़ें से एक सीट दूर रह गई. लेकिन यह तय है कि प्रदेश में अगली सरकार कांग्रेस की होगी. वहीं, सत्ताधारी भाजपा 73 सीटों के आसपास सिमटती दिख रही है.

लेकिन नतीजों से पहले जिस तरह रुझानों के घटने-बढ़ने का दौर चला उसे देखकर यहां बड़ा सवाल उठता है कि क्या यह वही जीत थी जिसकी उम्मीद कांग्रेस पाले हुए थी या फिर कांग्रेस, भाजपा को वही शिकस्त देने में सफल रही जिसके कयास जोर-शोर से लगाए जा गए थे? इस सवाल पर तमाम विश्लेषकों के जवाब को एक शब्द में समेटे तो ‘नहीं’.

दरअसल यह चुनाव ‘सेंटिमेंट’ और ‘मैनेजमेंट’ के बीच माना जा रहा था. एक तरफ कांग्रेस राजस्थान में भाजपा के खिलाफ मौजूद जबरदस्त आक्रोश के भरोसे बैठी थी तो भाजपा की उम्मीद अपने चुनावी प्रंबधन पर टिकी थी. नतीजे बताते हैं कि चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन कई मायनों में बेहतर कहा जा सकता है.

साल की शुरुआत में अलवर और अजमेर लोकसभा सीटों के साथ मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद से ही विधानसभा चुनाव में पार्टी द्वारा 150 का आंकड़ा पार करने के कयास लगाए जाने लगे थे. इसके कुछ ही महीनों बाद प्रदेशाध्यक्ष पद को लेकर चली मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और भाजपा हाईकमान की रस्साकशी ने भी पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल को खासा प्रभावित किया था. साथ ही लहसुन और मूंग की खरीद में भारी अव्यवस्था, खाद आवंटन में पुलिस बल प्रयोग, किसान आत्महत्या और सरकारी कर्मचारियों के विरोध की वजह से उपजी नाराजगी से भी सरकार चारों तरफ से घिरी हुई थी.

इसके अलावा राजधानी जयपुर समेत कई जिलों में भाजपा का पारंपरिक माना जाने वाला शहरी वोटर भी पार्टी से छिटका है. जानकार इसके लिए नोटबंदी, जीएसटी और गैस-पेट्रोल-डीज़ल के दामों में बढ़ोतरी के चलते केंद्र सरकार के प्रति रोष को बड़ा कारण मानते हैं. लेकिन इस सबके बावजूद पिछले एक महीने में जबरदस्त वापसी कर भाजपा अपनी लाज बचाने में सफल रही है. इसके लिए पार्टी की तरफ से अंतिम दिनों में किए गए आक्रामक प्रचार को प्रमुख श्रेय दिया जा रहा है.

वहीं, तमाम हालात के पक्ष में होने के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन अपेक्षाकृत लचर रहा है. वरिष्ठ पत्रकार श्रीपाल शक्तावत इस बारे में कहते हैं, ‘भाजपा को एंटीइंकबेंसी ने हराया, लेकिन कांग्रेस ने भी सेल्फ गोल करने में कसर नहीं छोड़ी थी.’ यहां उनका इशारा प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख नेताओं की आपसी तनातनी की तरफ है.

इसकी ताजा बानगी के तौर पर पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति (सीईसी) की अंतिम दौर की बैठकों को देखा जा सकता है. जब टिकट बंटवारे को लेकर प्रदेश संगठन के प्रमुख नेताओं के बीच अदावत की ख़बरों ने जमकर सुर्ख़ियां बटोरी थीं. इस दौरान पार्टी प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट और विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी के बीच नोक-झोंक इतनी बढ़ गई कि पायलट ने अपनी बात न माने जाने पर राजनीति ही छोड़ देने की बात कह दी. वहीं, डूडी ने भी बीकानेर से कन्हैयालाल झंवर का टिकट कट जाने पर चुनाव न लड़ने की घोषणा कर पार्टी पर खूब दबाव बनाया था. बता दें कि अपने क्षेत्र के समीकरण साधने के लिए ही डूडी ने भाजपा नेता झंवर को कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करवाई थी. हालांकि डूडी और झंवर दोनों ही यह चुनाव जीतने में नाकाम रहे हैं.

स्थानीय जानकारों का कहना है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता होने के बावजूद डूडी जिस तरह संगठन की मुख़ालफत पर उतर आए उसने क्षेत्र के मतदाताओं और कार्यकर्ताओं का उनसे जुड़ाव कम किया. हालांकि कुछ विश्लेषक डूडी की हार के पीछे कुछ अन्य आशंकाएं भी जता रहे हैं. इसके अलावा अपने-अपने खेमों को मजबूत करने के लिए भी संगठन के बड़े नेता, कई दिग्गजों तक के टिकट काटने से भी नहीं चूके. संयम लोढ़ा (सिरोही), पूर्व राज्यपाल कमला बेनीवाल के बेटे आलोक बेनीवाल (शाहपुरा) और नाथूराम सिनोदिया (किशनगढ़) जैसे करीब दो दर्जन नेताओं के नाम इस सूची में शामिल हैं.

इसके अलावा कांग्रेस ने तय किया था कि दो बार से ज्यादा बार हारने वाले नेताओं को इस बार मौका नहीं दिया जाएगा. लेकिन पूर्व प्रदेशाध्यक्ष बीडी कल्ला और पूर्व मंत्री हरि सिंह जैसे नेताओं के मामले में पार्टी ने अपने ही नियम को दरकिनार कर दिया. इस बात से भी कई इलाकों में टिकट की उम्मीद पाले जो कार्यकर्ता जमीन पर मेहनत कर रहे थे वे नाराज़ हो गए. इनमें से अधिकतर ने बाग़ी होकर अपने और अपने आस-पास के क्षेत्र में कांग्रेस को बड़ा नुकसान पहुंचाया. सत्याग्रह से हुई बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार अवधेश आकोदिया भी जीत के फासले को कम करने में कांग्रेस के टिकट वितरण में हुई गड़बड़ियों को प्रमुख कारण बताते हैं.

प्रदेश कांग्रेस के नेताओं की यह सिरफुटौव्वल शीर्ष स्तर तक न सिमट कर जिले व तहसील तक भी पहुंच गई थी. चुनाव प्रचार के लिए तय किए गए ‘मेरा बूथ, मेरा गौरव’ कार्यक्रम के आयोजन स्थल स्थानीय नेताओं के लिए अखाड़े बन गए जहां गाली-गलौज से लेकर जूते-चप्पल तक चले. वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ इस बारे में हमें बताते हैं, ‘लोगों के आक्रोश को भुनाकर कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. खुद में ही उलझी कांग्रेस के लिए यह बात बड़ी चुनौती बन सकती है कि कई सीटों पर भाजपा से नाराज मतदाताओं ने उसके बजाय निर्दलीयों या छोटे दलों पर भरोसा जताया है.’