आजकल संवैधानिक संस्थाएं और सरकार महिलाओं के अधिकारों के प्रति खासी सजग दिखाई देती हैं. लेकिन 2018 में पुरुषों और अल्पसंख्यकों को ध्यान में रखकर भी ऐसे कई फैसले किए गए जो आगे उनके सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन को काफी गहराई से प्रभावित करेंगे.

1. व्यभिचार असंवैधानिक

पांच अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार कानून पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इसे असंवैधानिक करार दिया. अदालत ने इससे जुड़ी धारा 497 को रद्द करते हुए कहा कि महिलाओं और पुरुषों के साथ असमान व्यवहार करने वाला कोई भी प्रावधान संवैधानिक नहीं है. 1860 में बने इस कानून में प्रावधान था कि पुरुष यदि किसी विवाहित महिला से यौन संबंध बनाता है तो उस महिला का पति उस पुरुष पर मुकदमा कर सकता था. इसके लिए दोषी व्यक्ति को पांच साल की सजा या जुर्माना या फिर दोनों हो सकते थे. अविवाहित, तलाकशुदा, परित्यक्ता या विधवा के साथ संबंध बनाने वाले शादीशुदा पुरुष को व्यभिचार कानून के तहत दोषी नहीं माना जाता था. यही नहीं, इस कानून के आधार पर विवाहेतर संबंध बनाने वाला सिर्फ पुरुष ही सजा का भागी होता था, महिला नहीं.

संविधान पीठ ने अपने निर्णय में इस कानून को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया. उसने कहा कि आईपीसी की धारा 497, संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हुए नागरिकों को मानवीय गरिमा और महिलाओं को समाज में बराबरी के अधिकार से वंचित कर रही है. सुप्रीम कोर्ट का यह भी कहना था कि जिस काम में दोनों पक्षों की समान भूमिका है, कानून उसमें महिला और पुरुष में भेदभाव नहीं कर सकता.

2. प्रेम में सेक्स बलात्कार नहीं

इसी साल बॉम्बे हाई कोर्ट की गोवा खंडपीठ ने अपने एक फैसले में कहा कि दो लोगों के बीच ‘गहरे प्रेम’ के चलते बने शारीरिक संबंधों को बलात्कार नहीं माना जा सकता. कोर्ट ने कहा कि अगर ‘गहरे प्रेम संबंध’ के सबूत मौजूद हों तो तथ्यों की ‘गलत व्याख्या’ के आधार पर पुरुष को बलात्कार का दोषी नहीं ठहराया जा सकता. उसने 2013 के एक मामले में निचली अदालत द्वारा दिए गए आदेश को खारिज करते हुए यह बात कही. निचली अदालत ने एक व्यक्ति को एक महिला से शादी का वादा कर उससे बलात्कार करने का दोषी ठहराया था. बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फैसला सीधे तौर पर उन पुरुषों/लड़कों को राहत देने वाला है, जो लड़कियों द्वारा परिवार के दबाव के चलते प्रेम संबंधों को बलात्कार कहने के कारण फंस जाते थे.

बलात्कार के झूठे केसों का पता लगाना काफी मुश्किल है लेकिन, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे मामलों की संख्या बढ़ रही है. 2012 में हुए निर्भया कांड के बाद बलात्कार के मामलों की रिपोर्टिंग में काफी तेजी से वृद्धि देखी गई थी. लेकिन एक सर्वे को आधार बनाकर दिल्ली महिला आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि 2013 में दिल्ली में बलात्कार के लगभग 53 प्रतिशत झूठे केस दर्ज किये गए.

3. समलैंगिकता अपराध नहीं

इसी साल एक अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया. आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध माना गया था, जिसके लिए आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती थी. शीर्ष अदालत ने कहा कि अंतरंगता और निजता किसी की भी व्यक्तिगत पसंद होती है. उसके मुताबिक दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंध को अपराध मानना एक तरह की मनमानी है जो पूरी तरह गलत है. अदालत ने कहा कि धारा 377 संविधान के समानता के अधिकार का हनन करती है.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं. एलजीबीटी यानी लेस्बियन, गे, बाईसेक्शुअल, और ट्रांसजेंडर समूह से अलग भी कुछ लोगों ने इस फैसले का समर्थन किया. वहीं इसका विरोध करने वालों का मानना था, कि इससे विवाह और परिवार संस्था पर बुरा असर पड़ेगा और समाज में नैतिकता का स्तर भी गिर जाएगा. इन लोगों का कहना था कि समलैंगिकता एक मानसिक बीमारी है जिसका इलाज किया जाना चाहिए.

दूसरी तरफ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि समलैंगिकता कोई मानसिक रोग नहीं है, बल्कि कुछ लोग जन्म से ही समलिंगी संबंधों के प्रति आकर्षित होते हैं. उनके मुताबिक ऐसे संबंध न सिर्फ इंसानों बल्कि जानवरों में भी पाए जाते हैं. वहीं समाजशास्त्रियों का मानना है कि अदालत के इस फैसले का विवाह और परिवार संस्था पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है. ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनी सेक्शुअलिटी सिर्फ इसलिए नहीं बदल लेगा कि अदालत ने समलिंगी संबंधों को मान्यता दे दी है.

4. यौन शोषण से लड़कों को बचाने के लिये पॉक्सो एक्ट में संशोधन का निर्णय

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने यौन शोषण के शिकार लड़कों को न्याय दिलाने के लिए, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण कानून यानी पॉक्सो एक्ट में संशोधन करने का निर्णय किया. मंत्रालय ने फिल्म निर्माता इंसिया दरीवाला द्वारा दायर की गई एक जनहित याचिका का जवाब देते हुए यह जानकारी दी थी. उनका कहना था कि भारत में लड़कों के यौन शोषण की सच्चाई को हमेशा से नजरअंदाज किया जाता रहा है. मंत्रालय ने यौन शोषण के शिकार लड़कों पर एक देशव्यापी शोध कराने की भी बात कही, जो कि अपनी तरह का पहला अध्ययन होगा.

इस मामले में महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी का कहना था, ‘बाल यौन शोषण का सबसे अधिक नजरअंदाज किया जाने वाला वर्ग पीड़ित लड़कों का है. बचपन में यौन शोषण का शिकार होने वाले लड़के जीवन भर गुमसुम रहते हैं, क्योंकि इसके पीछे कई भ्रांतियां और शर्म हैं. इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए कानून को लैंगिक निष्पक्ष बनाने की जरूरत है.’

भारत में आज भी बाल यौन अपराध को अक्सर ही सिर्फ लड़कियों के संदर्भ में देखा जाता है. इस कारण छोटे लड़कों और किशोरों के यौन शोषण संबंधी कोई ताजा स्पष्ट आंकड़े भी नहीं हैं. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने संयुक्त राष्ट्र बालकोष की मदद से 2007 में एक शोध कराया था. इसमें सामने आया था कि लगभग 53 फीसदी लड़के और 47 फीसदी लड़कियां यौन शोषण के शिकार होते हैं.