आमतौर पर देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की तुलना में वर्षों चले इस ऐतिहासिक आंदोलन की गवाह रह चुकी जगहों की चर्चा विरले ही होती है. हालांकि, आज भी इनका एक-एक हिस्सा आजादी की कहानियों को सुनाता दिखता है. साथ ही, अपने दर्शकों को भी ये उन घटनाओं का दर्शक या कहें कि हिस्सा बना देती है, जिसकी वे खुद साक्षी रही हैं. ऐसी ही ऐतिहासिक जगहों में से एक है - इलाहाबाद, जिसका नामकरण अब प्रयागराज कर दिया है, में स्थित आनंद और स्वराज भवन. ये भवन उस मां की गर्भ की मानिंद दिखता है, जहां आजादी के आंदोलन को पाला-पोसा गया.
कन्हैया लाल नंदन की किताब ‘आनन्द भवन-स्वराज भवन’ की मानें तो ये इमारतें शेख फय्याज अली की जमीन पर बनाई गई हैं. उन्हें यह जमीन उत्तरी-पश्चिमी प्रांतीय सरकार द्वारा 1857 के विद्रोह के वक्त मदद के बदले दी गई थी और इसके दो-तीन साल के बाद ही उन्होंने यहां एक इमारत (आनंद भवन) का निर्माण करवाया था. इसके बाद कई मालिकों से होते हुए यह मोतीलाल नेहरू के हिस्से में आ गई. उन्होंने इसे सात अगस्त, 1899 को 20 हजार रुपये में खरीदा था. इसके 27 साल बाद मोतीलाल नेहरू ने आनंद भवन (इसे अब स्वराज भवन के नाम से जाना जाता है) कांग्रेस को दान में देने का फैसला किया. साथ ही, इसके साथ लगी जमीन पर नए आनंद भवन की नींव रखी गई. यह इमारत साल 1927 में बनकर तैयार हुई थी.

इस भवन के प्रवेश द्वार पर ही आपका सामना एक शिलाखंड से होता है. इसे ‘प्रहरी चट्टान’ नाम दिया गया है. इस पर पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्द अंकित है. उन्होंने चंद शब्दों में इस भवन के पूरे इतिहास को सामने रखने की कोशिश की है. नेहरू ने लिखा है, ‘यह भवन ईंट-पत्थर के ढांचे से कहीं अधिक है. इसका हमारे राष्ट्रीय संघर्ष से अंतरंग संबंध रहा है. इसकी चारदीवारी में महान निर्णय लिए गए और इसके अंदर महान घटनाएं घटीं.’ इसके आगे बढ़ने पर हमें सबसे पहले तुलसी का बिरवा दिखता है.

यहां संगम में विसर्जन से पहले जवाहरलाल नेहरू की अस्थियां रखी गई थी. इसके अलावा पूर्व प्रधानमंत्री और इस घर की बेटी इंदिरा गांधी की अस्थियों की राख को हिमालय के शिखरों पर बिखराए जाने और राजीव गांधी के अस्थियों का विसर्जन संगम में किए जाने के बाद सोनिया गांधी यहां आई थीं. इसके आगे जाने पर सबसे पहले इमारत में नेहरू परिवार की बैठक का कमरा दिखाई देता है.

इस कमरे में परिवार के सदस्य अपने अतिथियों और मित्रों से मिला करते थे. इनमें स्वतंत्रता सेनानी- सुभाष चंद्र बोस, खान अब्दुल गफ्फार खान, जेबी कृपलानी, लाल बहादुर शास्त्री और राम मनोहर लोहिया जैसे जाने-माने चेहरे थे. साथ ही, आजादी के बाद भी इस कमरे में नए भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों से जुड़े कई अहम फैसले लिए गए थे. यहां आज भी उस वक्त की चीजों को सहेजकर रखा गया है. भूतल पर ही पीछे की ओर एक बरामदा है. यहीं इंदिरा गांधी और फीरोज गांधी के विवाह का आयोजन हुआ था.

बताया जाता है कि इस विवाह के लिए जवाहरलाल नेहरू ने अपने हाथों से निमंत्रण पत्र लिखे थे. इसमें उन्होंने लिखा था, ‘मेरी बेटी इन्दिरा की शादी फीरोज गांधी के साथ रामनवमी के दिन 26 मार्च, 1942 को सुबह नौ बजे आनन्द भवन में होगी. आप से प्रार्थना है कि आप इस काम में और इसके बाद दोपहर के खाने में शरीक हों.’ अपने विवाह के वक्त इंदिरा ने खादी की साड़ी पहन रखी थी. इसकी सबसे खास बात यह थी कि इसका सूत जवाहरलाल नेहरू ने अपने जेल के दिनों में काता था.

इस बरामदे के पास ही परिवार का भोजन कक्ष भी मौजूद है. इसमें कुल 12 लोगों की बैठने की व्यवस्था है. यहां की कुछ प्लेटों में ‘जे.एन.’ लिखा हुआ है. इनमें जवाहरलाल नेहरू खाना खाते थे. साथ ही, यहां उनकी नाश्ता करते हुए एक तस्वीर भी लगी हुई है. भोजन कक्ष में ही पानी गर्म करने के लिए बॉयलर लगाया गया था. इससे पूरे घर में गर्म पानी की जरूरत पूरी होती थी.

इन कमरों के साथ भूतल पर ही मोतीलाल नेहरू का कमरा और अध्ययन कक्ष मौजूद है. उनके कमरे में एक आराम कुर्सी रखी हुई है. इसके बारे में कहा जाता है कि जब अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों में वे चल-फिर नहीं सकते थे. लेकिन, कमरे से बाहर की दुनिया देखना चाहते थे तो पालकीनुमा इस कुर्सी के सहारे उन्हें बरामदे में लाया जाता था.

मोतीलाल नेहरू के कमरे के साथ लगा उनकी पत्नी स्वरूपरानी नेहरू का भी कमरा है. इसी कमरे के आगे वह बरामदा है, जहां उनकी पोती की शादी हुई थी. स्वरूपरानी देवी कश्मीरी परंपराओं और मान्यताओं को मानने वाली महिला थीं. उनके कमरे में स्वाध्याय और धर्म से जुड़ी चीजें दिखाई देती है. वे रामचरित मानस और हनुमान चालीसा का पाठ प्रतिदिन करती थीं. बताया जाता है कि जवाहरलाल नेहरू के महात्मा गांधी के संपर्क में आने के बाद स्वरूपरानी भी गांधीवादी हो गई थीं. और रोजाना चरखा चलाने लगी थीं.

स्वरूपरानी नेहरू के बारे में इंदिरा गांधी कहती थीं, ‘अपनी दादी को मैं डोल अम्मा कहती थी और उन्हें बहुत प्यार करती थी. और सबसे अधिक इसलिए कि वो मेरे माता-पिता और दादा से बिलकुल अलग थी. वो बड़ी नाजुक सी थी और मुझे भी बहुत प्यार करती थी.’ उनकी मौत आनंद भवन में ही साल 1938 में हुई थी.

इंदिरा गांधी आनंद भवन में पली-बढ़ी थीं लेकिन उनका जन्म स्वराज भवन में हुआ था. इस भवन के बारे में उनका कहना है कि पुराना आनंद भवन बच्चों के लिए बड़ा मजेदार खेलकूद भवन भी था.बच्चों के लिए लुका-छिपी खेलने, दौड़ने-भागने और दूसरे खेलों के लिए यह आदर्श जगह थी. इंदिरा गांधी के मुताबिक उन्हें इसका छज्जेदार छत काफी पसंद था और उन्हें इस घर को छोड़ने का अफसोस भी रहा था.

वहीं, इस घर में इंदिरा गांधी की यादें महात्मा गांधी के साथ भी जुड़ी रहीं. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के वक्त महात्मा गांधी इस 12 कमरे वाले भवन के अतिथिगृह में ठहरा करते थे. इस कमरे में गांधीजी के साथ इंदिरा की तस्वीर लगी हुई है. इस कमरे को पहली नजर में देखते हुए ही कोई भी आम इंसान महात्मा गांधी के सादगीपूर्ण जीवन का अनुभव कर सकता है. इस कमरे में एक चौकी पर सामान्य सी चादर बिछी हुई है. साथ ही, उनके तीन बंदरों की प्रतिमा भी यहां मौजूद है.

महात्मा गांधी के आदर्शों और उनके व्यक्तित्व की छाप भी आनंद भवन के सदस्यों पर खूब पड़ी. हमने ऊपर जवाहरलाल नेहरू की मां स्वरूपरानी नेहरू के बारे में ऐसा ही जिक्र किया है. इसी हवाले से महात्मा गांधी के बारे में नेहरू ने एक जगह कहा था, ‘हममें से कुछ लोग उनके अंतरंग संपर्क में आएं और उनके प्रबल और स्नेहपूर्ण व्यक्तित्व का प्रभाव हम पर हुआ. हमें उनकी बहुत याद आती है, क्योंकि वे हमारे जीवन का अंग बन गए थे.’

महात्मा गांधी के कक्ष के साथ ही पहली मंजिल पर कांग्रेस कार्यकारिणी का कमरा भी लगा हुआ है. इस कमरे में आजादी के आंदोलन के दौरान कई अहम फैसले लिए गए थे. इस कमरे में ही साल 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल को अध्यक्ष बनाने का फैसला लिया गया था. वहीं, इसी कमरे से सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) और व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करने का फैसला लिया गया. बताया जाता है कि जब कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक के लिए देशभर के नेताओं का जुटान इस कमरे में होता था तो इस कमरे से सोफे और कुर्सियां हटा दी जाती थी. इस भवन में सामने की ओर से ढेर सारी किताबें रखी हुई हैं.

आनंद भवन की पहली मंजिल पर स्थित इस कमरे के साथ जवाहरलाल नेहरू के अध्ययन कक्ष में भी काफी सारी किताबें रखी हुई हैं. उनके कमरे में एक कुर्सी और मेज है. साथ ही, पलंग के बगल में फर्श पर एक ऊनी कालीन भी है. इसे साल 1936 के लखनऊ अधिवेशन के मौके पर वहां के बुनकरों ने नेहरू जी को भेंट किया था. इसी कालीन पर एक जोड़ी खड़ाऊं भी रखी गई हैं. बताया जाता है कि उन्हें एक वक्त खड़ाऊं पहनने का बहुत शौक हो गया था.

इस कमरे के बगल में जवाहरलाल नेहरू का एक और कमरा है. इसमें बरामदे से देखने पर शीर्षासन करते नेहरू की तस्वीर पर सबसे पहले नजर ठहरती है. साथ ही, इस कमरे में कई बड़ी शख्सियतों की तस्वीरें भी दिखती हैं. इनमें मशहूर वैज्ञानिक आइंस्टीन, लेखक जार्ज बर्नाड शॉ के साथ-साथ रबींद्रनाथ टैगोर की भी तस्वीरें हैं.

आनंद भवन के बारे में जवाहरलाल नेहरू ने 21 जून, 1954 को अपनी वसीयत में लिखा है, ‘यह घर हमारे लिए और अन्य बहुत से लोगों के लिए उस सब कुछ का प्रतीक बन गया है, जिसे हम जीवन में मूल्यवान मानते हैं. यह एक ईंट और कंक्रीट की इमारत और एक निजी संपत्ति से बहुत मूल्यवान है. यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम से बहुत घनिष्ठता से जुड़ा है और इसकी दीवारों के अंदर महान घटनाएं घटी हैं. और बहुत महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए हैं.’
फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर हमसे जुड़ें | सत्याग्रह एप डाउनलोड करें
Respond to this article with a post
Share your perspective on this article with a post on ScrollStack, and send it to your followers.