कुछ समय पहले चर्चित स्वास्थ्य पत्रिका द लैंसेट में एक रिपोर्ट छपी. एक शोध पर आधारित इस रिपोर्ट के अनुसार 1990 में दुनिया भर में महिला आत्महत्या के कुल मामलों में 25.3 फीसदी भारत से थे जबकि 2016 में यह आंकड़ा बढ़कर 37 फीसदी हो गया. यानी दुनिया भर में जितनी महिलाओं ने आत्महत्या की उनमें से करीब 37 फीसदी भारत से थीं. और भी आसान तरह से कहें तो दुनिया में आत्महत्या करने वाली हर पांच महिलाओं में से करीब दो भारतीय हैं.

यह आंकड़ा तब और भी चिंताजनक लगने लगता है जब हम इस तथ्य पर गौर करते हैं कि दुनिया की आबादी में भारत की हिस्सेदारी करीब 18 फीसदी ही है. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि 2016 में भारत में महिलाओं की आत्महत्या दर, वैश्विक महिला आत्महत्या की दर से लगभग दो फीसदी ज्यादा थी. इसके अलावा विभिन्न राज्यों में पुरुष आत्महत्या दर में जहां छह गुने तक का फर्क है, वहीं महिला आत्महत्या के मामले में यह आंकड़ा 10 गुना है.

लैंसेट के इस शोध की मानें तो तमिलनाड़ु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, आंध्र-प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में प्रति एक लाख महिलाओं पर 18 महिलाएं आत्महत्या करती हैं. ये आंकड़े तो तब हैं जब भारत में महिला आत्महत्या के सभी मामलों की तो रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती. 2016 में पूरी दुनिया में सिर्फ तीन ही देश थे, जहां महिला आत्महत्या दर इन राज्यों से भी ज्यादा थी.

आमतौर पर महिलाओं को बहुत जीवट और जिजीविषा से भरपूर माना जाता है. फिर क्या वजह है कि वे इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेती हैं. लैंसेट का शोध इसके कई कारण बताता है.

बाल विवाह

2018 के शुरू में यूनिसेफ की एक रिपोर्ट आई थी. उसके अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा बाल विवाह भारत में होते हैं. एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग डेढ़ अरब लड़कियों की शादी 18 साल से पहले ही हो जाती है. यह तो तब है जबकि भारत में बाल विवाह प्रबंधित है और पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने को भी बलात्कार ही माना है.

बाल विवाह को लेकर अब भी कई इलाकों में समाज और परिवार का रवैया इतना सख्त है कि अक्सर ही जल्दी शादी न करने चाहने वाली लड़कियां भी इससे बच नहीं पाती. वे यह भी जानती हैं कि जब बाल विवाह न करने की बात पर ही उन्हें किसी ने सहयोग नहीं किया, तो फिर अब किसी विकट स्थिति में कौन ही उनका साथ देगा. ऐसे में भावनात्मक और मानसिक रूप से उनके टूटने की संभवना सबसे ज्यादा होती है.

घरेलू हिंसा

महिला स्वास्थ्य और लैंगिक संवेदना पर काम करने वाले एक ग़ैर सरकारी संगठन पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की प्रबंध निदेशक पूनम मुटरेजा का कहना है, ‘हमारी संस्था द्वारा कराए गए एक शोध में सामने आया है कि लगभग 62 प्रतिशत महिलाएं खुद ही मानती हैं कि पति द्वारा उनकी पिटाई जायज है और यह पतियों का हक है.’ इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि घरेलू हिंसा को लेकर न सिर्फ समाज की, बल्कि स्वयं महिलाओं की मानसिकता कितनी भयावह है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 15 से 49 साल के आयु वर्ग में 29 फीसदी महिलाओं ने पतियों द्वारा हिंसा की बात मानी थी. तीन प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने गर्भवती होते हुए हिंसा झेली. ज्यादातर महिलाएं खुद भी घरेलू हिंसा को अपने जीवन का सहज, स्वाभाविक हिस्सा मानती हैं. इस कारण जब वे ऐसी हिंसा का सामना करती हैं तो अक्सर ही इस बारे में किसी से शिकायत नहीं करती. इसका प्रभाव यह पड़ता है कि पति की ऐसी हिंसक गतिविधियां बढ़ती ही जाती हैं, और बर्दाश्त से बाहर होने पर महिलाएं चुपचाप खुद को मौत के मुंह में धकेल देती हैं.

यौन हिंसा

इस शोध में यह भी सामने आया है कि घरेलू हिंसा के साथ यौन हिंसा का भी महिला आत्महत्या से सीधा संबंध है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में कुल होने वाली महिला आत्महत्याओं में 28 फीसदी यौन दुर्व्यवहार के कारण होती हैं. यौन दुर्व्यवहार में लड़कियों के साथ बाल विवाह के भीतर होने वाली जबरदस्ती से लेकर सार्वजनिक जीवन में होने वाले यौन दुर्व्यवहार तक शामिल हैं. सार्वजनिक जीवन में होने वाली यौन उत्पीड़न की घटनाएं भी लड़कियों को आत्महत्या की तरफ धकेलती हैं. अक्सर वे अंदर ही अंदर यह सोचकर घुलती रहती हैं कि अगर इसके खिलाफ कुछ किया तो समाज में उनकी बदनामी होगी.

अन्य कारण

शिक्षा के कम स्तर को भी इस शोध में महिलाओं की आत्महत्या का अहम कारण माना गया है क्योंकि कम पढ़ी-लिखी होने के कारण उनमें आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं होती. ऐसे में ससुराल वालों द्वारा प्रताड़ित होने, मायके द्वारा साथ न दिए जाने और खुद का कोई आर्थिक सहारा न होने पर महिलाएं अति तनाव की स्थिति में आत्महत्या की स्थिति में पहुंच जाती हैं. इन सबके आलावा मानसिक अवसाद, धोखाधड़ी, साईबर अपराध, वैवाहिक संबंधों में दरार और विवाहेत्तर संबंध जैसे कारण भी महिलाओं को आत्महत्या की तरफ धकेलते हैं.

महिला आत्महत्या को लेकर हमारे समाज का रवैया आज भी बहुत ही असंवेदनशील है. इसलिए उनकी आत्महत्या के कारणों न तो बहुत गंभीरता से लिया जाता है और न ही उन पर काम किया जाता है. यही वजह है कि महिलाओं की आत्महत्या के ज्यादातर मामलों को लंबी बीमारी या किसी दुर्घटना के कारण हुई मौत बता दिया जाता है. शोधार्थियों के अनुसार शिक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता में वृद्धि और घरेलू हिंसा में कमी भारतीय महिलाओं में आत्महत्या की दर को कम कर सकती है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि माता-पिता अपनी बेटियों की शिक्षा केस्तर को बढ़ाकर महिला की आत्महत्या दर को कम करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं.