गंध को सिनेमा के परदे पर कैद करना बेहद चुनौतीपूर्ण काम है. जिस तरह भाषाएं कई तरह की भावनाओं को अभिव्यक्त करने में मुश्किलों का सामना करती हैं, उसी तरह दुनियाभर का विकसित सिनेमा आज भी कई चीजों को परदे पर सलीके से रच नहीं पाता. या तो वह पूरी तरह असफल सिद्ध होता है या फिर उसके प्रयास कद में छोटे मालूम होते हैं.

सूंघने की असाधारण क्षमता रखने वाले किरदारों की कहानी कहते वक्त भी सिनेमा अक्सर गंध के मनोविज्ञान को एक्सप्लोर करने की जगह अपनी कहानी को दूसरी पलायनवादी यात्राओं पर भेज दिया करता है. अल पचीनो की ‘सेंट ऑफ द वूमन’ (1992) आपको याद होगी. इसमें अल पचीनो का अंधा किरदार इत्र की मुख्तलिफ खुशबुओं से महिलाओं को पहचान लेता है और ऐसा करके उन्हें इम्प्रेस किया करता है. लेकिन इस विशेषता और फिल्म के नाम तक में गंध का जिक्र होने के बावजूद कहानी किसी और राह मुड़ जाती है. हमारे अपने अमोल गुप्ते ने ‘स्निफ’ (2017) नाम की एक बाल-फिल्म में एक बालक को सूंघने की असाधारण क्षमता से नवाजा था, लेकिन फिर कहानी का रुख डिटेक्टिव जॉनर की तरफ कर दिया. एक अद्भुत क्षमता को किरदार की सनक नहीं बनाया गया.

सीधे दर्शकों की इंद्रियों तक सिनेमा को पहुंचाने के भी कई प्रयास दुनियाभर में होते रहे हैं. ‘बैटमैन वर्सिस सुपरमैन’ फिल्म के प्रदर्शन के दौरान कुछ अमेरिकी थियेटरों के अंदर सीन अनुसार हवा चलाई गई, सीटें हिलाई गईं, धुआं पैदा किया गया और बारिश तक हुई. इस 4डी तकनीक में नया आयाम जोड़ते हुए हाल ही में निर्देशक शंकर की ‘2.0’ के लिए भी कुछ हिंदुस्तानी सिनेमाघरों में 4डीएसआरएल नाम की तकनीक का उपयोग किया गया. हॉलीवुड में यह पहले भी हो चुका है, लेकिन हमारे यहां शायद पहली बार कुछ चुनिंदा सिनेमाघरों की कुर्सियों के नीचे खास स्पीकर लगाए गए ताकि दर्शक सीन को बेहतर तरीके से ‘महसूस’ कर सकें. 1974 में ‘अर्थक्वेक’ नाम की अमेरिकी फिल्म के लिए तो अमेरिकी थियेटरों में लगे बाहरी स्पीकरों की मदद लेकर ऐसे साउंड इफेक्ट्स तक उपयोग किए गए जो कि दर्शकों को भूकंप के बीचों-बीच होने का अहसास कराते थे!

गंध को लेकर भी सिनेमा के इतिहास में एक असाधारण प्रयोग हुआ, जो खासा चर्चित रहा. 1960 में अमेरिकी थियेटरों में ‘सेन्ट ऑफ मिस्ट्री’ नाम की एक थ्रिलर फिल्म रिलीज हुई थी जिसमें एक रहस्यमयी नायिका का परफ्यूम ऐसी अलहदा खुशबू बिखेरता है कि उससे अभिभूत होकर फोटोग्राफर नायक उस नायिका को बचाने निकल पड़ता है. इस फिल्म के दौरान अमेरिकी थियेटरों में एक नयी तकनीक ‘स्मैल-ओ-विजन’ का प्रयोग किया गया और दर्शकों पर तीस मुख्तलिफ प्रकार के इत्र का छिड़काव हुआ. सीन अनुसार ब्रेड से लेकर वाइन और रहस्यमयी नायिका के ओढ़े परफ्यूम तक की खुशबुओं का छिड़काव थियेटर की कुर्सियों के नीचे बने छेदों से किया गया ताकि दर्शक जिस गंध की बात फिल्म के दृश्यों में सुन रहे हैं, उसे महसूस कर सकें!

लेकिन प्रयोग असफल सिद्ध हुआ. दर्शकों ने इसे ध्यान बंटाने वाली गिमिक्री बताया और जल्द ही फिल्म फ्लॉप हो गई. आगे चलकर भी गाहे-बगाहे इस तरह के सुगंध फैलाने वाले प्रयोग थियेटरों में होते रहे ताकि दर्शकों का जुड़ाव उन विषयों से बना रहे जिन्हें सिनेमा विजुअल फॉर्म में कुशलता से नहीं प्रस्तुत कर पाता. लेकिन कड़वा सच यही है कि अभी तक के सिनेमा इतिहास में किसी भी तरह की बाहरी मदद (एक्सटर्नल) ने फिल्म देखने के अनुभव में कुछ खास जोड़ा नहीं है. चाहे 3डी चश्मे हों, इत्र का छिड़काव हो, या फिर कुर्सियों के नीचे कंपन पैदा करना हो.

इससे एक बार फिर यह बात सिद्ध होती है कि कठिन से कठिन विषय के लिए भी सिनेमा को विजुअली ही असरदार होना जरूरी है.

2006 में रिलीज हुई जर्मन फिल्म ‘परफ्यूम – द स्टोरी ऑफ अ मर्डरर’ इसलिए भी एक असरदार और वक्त के साथ सिनेप्रेमियों के लिए यादगार हो चुका सिनेमा है. वह गंध को कैद करने की सनक को बेहद सुघड़ता से परदे पर कैद करने में सफल होता है. अंग्रेजी भाषा में बनी यह जर्मन फिल्म बिना किसी एक्सटर्नल गिमिक्री के केवल अपने विजुअल्स के माध्यम से गंध को और उसको पाने की सनक को ‘महसूस’ कराने में सफल होती है. फिल्म में नायक (एंटी-हीरो) के संवाद भी बेहद सीमित हैं और यह रुकावट भी इसकी विजुअल तरीके से एक कठिन कहानी कहने की क्षमता को ज्यादा सराहनीय बनाती है.

कठिन कहानी इसलिए, कि जिस किताब पर यह फिल्म आधारित है, ऐसा कहा जाता है कि उस पर निर्देशक स्टेनली क्यूब्रिक भी फिल्म बनाने की चाह रखते थे. लेकिन सदैव असंभव कहानियों को सिनेमा के परदे पर रचने वाले इस महान फिल्मकार तक ने अंतत: यह विचार त्याग दिया, क्योंकि उन्हें यह कहानी ‘अनफिल्मेबल’ लगी. फिल्म का रूप न दी जा सकने वाली एक नायाब कहानी!

‘रन लोला रन’ (1998) जैसी कमाल फिल्म, और बाद के वर्षों में ‘सेन्स8’ (2015-18) नामक नेटफ्लिक्स सीरीज को सह निर्देशित करने वाले जर्मन फिल्मकार टॉम टिक्वर (Tom Tykwer) ने लेकिन, 2006 में इस अनफिल्मेबल कहानी को बेहद दर्शनीय फिल्म का रूप दिया. पैट्रिक श्यूसकिंड के मशहूर जर्मन नॉवल दस परफ्यूम (Patrick Süskind’s Das Perfum) पर बनी ‘परफ्यूम – द स्टोरी ऑफ अ मर्डरर’ न सिर्फ अपनी होश उड़ा देने वाली नायाब कहानी की वजह से सिनेप्रेमियों के बीच पसंद की गई और उसका एंटी-हीरो जॉन बैप्टीज सिनेमा के मशहूर नामों में गिना जाने लगा, बल्कि विजुअली भी इस फिल्म ने एक कठिन विषय को सरलता से परदे पर प्रस्तुत करने में सफलता पाई.

तकरीबन ढाई घंटे की इस लंबी पीरियड फिल्म की कहानी 18वीं सदी के फ्रांस में घटती है और वॉयस-ओवर की मदद लेकर इसे बनाने का तरीका भी ऐसा अख्तियार किया गया, कि लगे कि ये सच में किसी जॉन बैप्टीज नाम के खुशबू-प्रेमी सीरियल किलर की ‘बायोपिक’ है. इस सिनेमाई स्टाइल ने एक काल्पनिक पात्र को सिनेप्रमियों के बीच किंवदंती की तरह स्थापित कर दिया और फिल्म देखने वालों ने हमेशा ही इसके खत्म होने के बाद खुद से पूछा कि क्या सच में ये एक सच्ची कहानी है!

ऐसा अक्सर होते हुए देखा गया है, कि जब दर्शकों को साफ-साफ पता नहीं होता कि किसी फिल्म की कहानी फैक्ट है या फिक्शन, सच है या झूठी, तो फिल्म उनपर ज्यादा गहरा असर छोड़ती है! ‘परफ्यूम’ को भी जिसने देखा, अपने दिमाग से कभी निकाल नहीं पाया.

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‘परफ्यूम – द स्टोरी ऑफ अ मर्डरर’ की याद इन दिनों इसलिए भी ताजा हुई कि नेटफ्लिक्स ने हाल ही में इसी मशहूर कहानी को आधार बनाकर इसी नाम की एक जर्मन वेब सीरीज अपने मंच पर रिलीज की है. दिसम्बर, 2018 में रिलीज हुई छह एपीसोड की इस सीरीज ‘परफ्यूम’ में कहानी को मॉर्डन बनाते हुए आज के जर्मनी में स्थापित किया गया है, और फिल्म जिस किताब पर पूरी आधारित थी उसको यहां कहानी का केंद्र बनाकर अलग तरह के क्राइम ड्रामा की शक्ल ली गई है. जहां ‘परफ्यूम – द स्टोरी ऑफ अ मर्डरर’ में दर्शकों को शुरू से पता था कि सीरियल किलर जॉन बैप्टीज है, वहीं इस मर्डर मिस्ट्री का रूप लेने वाली नेटफ्लिक्स सीरीज की खास बात है कि छह दोस्तों के इर्द-गिर्द घूमने के दौरान आखिर तक यह रहस्य बरकरार रहता है कि कौन सीरियल किलर है. आखिर वो कौन है जो खूबसूरत लड़कियों की लाशें सर मुंडा कर निर्वस्त्र छोड़ जाता है?

‘परफ्यूम’ नाम की फीचर फिल्म अगर देखने में एक मुश्किल फिल्म थी, क्योंकि उसकी न्यूडिटी, हिंसा और सीरियल किलर की सनक देख पाना हर दर्शक के बस की बात नहीं थी, तो नेटफ्लिक्स की ताजा सीरीज उससे भी ज्यादा डार्क है. उसकी थीम्स भी ज्यादा कंटेम्पररी हैं और अगर आपने एचबीओ की 2018 में रिलीज हुई ‘शार्प ऑब्जेक्ट्स’ नामक शानदार सीरीज देखी है, तो ‘परफ्यूम’ अलग कहानी होने के बावजूद कई बार कुछ उतनी ही डिस्टर्बिंग हो जाती है. लेकिन अगर आपको नेटफ्लिक्स की पहली जर्मन सीरीज ‘डार्क’ बेहद पसंद आई थी, तो इसे भी अवश्य ही देखिए. कुछ वैसे ही वातावरण में रची गई ये धीमी गति की सुघड़ हूडनइट (whodunnit) है.

क्योंकि, आखिर ऐसा कौन दर्शक होगा जो जानना नहीं चाहेगा कि हत्यारा कौन है! हू डन इट? (हिंट – वही, जो आपकी नजरों के सामने होकर भी आपकी नजरों में नहीं चढ़ा!)

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