साल 1990 भारतीय सामाजिक इतिहास में ‘वाटरशेड मोमेंट’ कहा जा सकता है. अंग्रेज़ी के इस शब्द का मतलब है- वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू होता है. 1989 के आम चुनावों के परिणामों के बाद जनता दल की गठबंधन की सरकार बनी थी और विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री. यह दूसरा मौका था जब भारत में ग़ैर कांग्रेसी दल सत्ता के केंद्र में आए थे. वीपी सिंह ने सबको चौंकाते हुए सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को 27 फीसदी आरक्षण की मंडल आयोग की सिफ़ारिश लागू कर दी.

इसने राजनीति ही नहीं, देश भर में भूचाल ला दिया. सवर्ण छात्रों ने इसके ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ दिया. तकरीबन 200 छात्रों ने आत्मदाह का प्रयास किया जिनमें से 62 की मौत हो गई. बचा लिए गए छात्र राजीव गोस्वामी देश भर में कई दिनों तक अख़बारों के पन्नों पर रहे. हालांकि आरक्षण लागू करने से पहले ही वीपी सिंह की सरकार गिर गयी थी. 1991 में फिर हुए चुनावों में जीतकर आई कांग्रेस ने इसे लागू किया था.
जनता दल का कार्यकाल
वीपी सिंह सरकार का कार्यकाल कुछ विशेष नहीं कहा जा सकता. आर्थिक स्तर पर कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुए थे. हां, वीपी सिंह ने कॉरपोरेट और राजनैतिक सांठगांठ पर ज़बरदस्त प्रहार किया था. रिलायंस इंडस्ट्रीज के दफ्तरों में रातों-रात छापे डाले गए थे. उधर, कश्मीर में मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी का दिनदहाड़े अपहरण हो गया था. उसके एवज़ में कुछ आतंकवादियों को रिहा करने के फ़ैसले से सरकार की बहुत किरकिरी हुई थी.
जनता को इस सरकार से काफ़ी उम्मीदें थीं. चुनावी रैलियों में वीपी सिंह जेब में से एक पर्ची निकाल कर हवा में लहराते हुए कहते थे कि इसमें बोफ़ोर्स तोप में दलाली खाने वालों के नाम हैं. सत्ता में आने के बाद वीपी सिंह से जब यह पूछा जाता कि बोफ़ोर्स मामले में क्या तरक्की है तो वे कहते, ‘जांच चल रही है’.
कुल मिलाकर देश निश्चित दिशा में नहीं बढ़ रहा था. उम्मीदों का पहाड़ सिर पर उठाये वीपी सिंह बौखलाए से घूमते रहते. कहते हैं कि कुछ क्रांतिकारी करने की चाह में एक दिन उनका ध्यान धूल खा रही मंडल आयोग की रिपोर्ट की ओर चला गया था.
ओबीसी जातियों की संख्या और गणना का आधार
मंडल आयोग की स्थापना मोरारजी देसाई सरकार ने की थी. आयोग ने पाया कि अन्य पिछड़ा वर्ग भले ही आर्थिक तौर पर मज़बूत हो रहा हो, लेकिन सरकारी नौकरियों में उसकी भागीदारी कम है. इस वर्ग के तहत कुल 3743 जातियां चिन्हित की गईं. यह भी पाया गया कि केंदीय सरकारी नौकरियों में ओबीसी 12.55 फीसदी हैं और क्लास 1 (प्रशासनिक) नौकरियों में सिर्फ़ 4.83 प्रतिशत. अब अगला कदम यह जानना था कि इनकी कुल जनसंख्या में कितनी हिस्सेदारी है.
1931 के बाद जातिगत गणना नहीं हुई है लिहाज़ा इन आंकड़ों को अनुमान ही माना गया. सटीक नहीं, हालांकि मोटे तौर पर इससे अलग-अलग जातियों की हिस्सेदारी का अंदाज़ा लग जाता है. इस हिसाब से आंकड़े हैं : सवर्ण - 16.1 फीसदी, ओबीसी - 43.7 फीसदी, अनुसूचित जाति - 16.6 फीसदी, अनुसूचित जनजाति - 8.6 फीसदी औ ग़ैर-हिंदू अल्पसंख्यक - 17.6 फीसदी. सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात है कि सिर्फ़ मंडल आयोग ही हमारे पास वह स्रोत है जिसके आधार पर यह तय किया गया कि हिंदू ओबीसी समूची आबादी में 43.7 फीसदी की हिस्सेदारी रखते हैं. दिलचस्प बात यह है कि जब राजनीतिक दल लामबंदी के लिए रणनीति बनाते हैं कि किन समूहों को लक्षित किया जाना चाहिए, तो उनकी गणना राष्ट्रीय नहीं बल्कि राज्य स्तर पर होती है.
रिपोर्ट की सिफारिश और दलील
मंडल आयोग के चेयरमैन बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने रिपोर्ट में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने का सुझाव दिया. इसकी वजह समझाते हुए उन्होंने लिखा, ‘सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने की जंग को पिछड़ी जातियों के ज़ेहन में जीतना ज़रूरी है. भारत में सरकारी नौकरी पाना सम्मान की बात है. ओबीसी वर्ग की नौकरियों में भागीदारी बढ़ने से उन्हें यकीन होगा कि वे सरकार में भागीदार हैं. पिछड़ी जाति का व्यक्ति अगर कलेक्टर या पुलिस अधीक्षक बनता है तो ज़ाहिर तौर पर उसके परिवार के अलावा किसी और को लाभ नहीं होगा, पर वह जिस समाज से आता है, उन लोगों में गर्व की भावना आएगी, उनका सिर ऊंचा होगा कि उन्हीं में से कोई व्यक्ति ‘सत्ता के गलियारों’ में है’.
राजनैतिक प्रतिक्रिया और विरोध की दलीलें
यह रिपोर्ट 1980 में ही सरकार को दे दी गई थी. लेकिन इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने इसकी सिफ़ारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया. वीपी सिंह ने इन्हें लागू करने का ऐलान किया तो कांग्रेस के लिए सांप-छछूंदर वाली स्थिति हो गयी. ओबीसी वर्ग में इसके लागू होने पर खुशी की लहर फैल गई. अन्य राजनैतिक पार्टियों को इसे सिर माथे लगाना ही था.
तब भी कुछ की दलील थी कि जाति के बजाय आर्थिक स्थिति आरक्षण का आधार होनी चाहिए. कुछ ने कहा कि इससे कार्य क्षमता पर असर पड़ेगा तो कुछ लोगों ने इसे सामाजिक समरसता की ओर एक और कदम बताया. ऐसा कहने वालों का यह भी कहना था कि दक्षिण भारत में दो-तिहाई नौकरियां जाति के आधार पर दी जा रही हैं और इससे सरकार की कार् क्षमता पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा है.
मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. इसे लागू न करने की मांग करती याचिका में तीन दलीलें दी गयीं. पहली, इससे मौलिक अधिकारों का हनन होता है, दूसरी, जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं हो सकती और तीसरी कि सरकार की कार्यक्षमता पर असर होगा. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस पर स्टे लगा दिया. यह 1991 में हटा और कानून में इसके लिए संशोधन हो गया.
आख़िर वीपी सिंह ने यह दांव क्यों खेला?
वीपी सिंह होशियार व्यक्ति थे और सामाजिक बदलाव पर नज़र रखते थे. यह बदलाव संविधान के लागू होने से शुरू होता है. ग्रैनविल ऑस्टिन के मुताबिक़ भारतीय संविधान की संरचना का आधार ही सामाजिक समरसता था. सामाजिक समरसता की कोशिश आजादी के बाद होने वाले बदलावों में सबसे ऊपर आती है. राजनैतिक पार्टियाँ और जातिगत संगठन जो चाहे कहें, भारत इसमें काफ़ी हद तक कामयाब हुआ है. मिसाल के तौर पर अन्य पिछड़ी जातियों की आर्थिक स्थिति में बदलाव भूमि सुधार कार्यक्रम और हरित क्रांति जैसे अभियानों की देन है. चुनावों ने उन्हें राजनैतिक शक्ति प्रदान की. अब जो पैमाना बचा था वह सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी थी. इस तीनतरफ़ा सुधार या बदलाव से ओबीसी के उत्थान की कोशिश भारतीय संविधान की देन है.
वीपी सिंह ओबीसी वर्ग का बढ़ता प्रभुत्व और संख्या बल देख रहे थे. 1977 के चुनावों में यह ताक़त नज़र आ गयी थी जब पहली बार प्रधानमंत्री के पद पर चरण सिंह आये थे जो मूलतः जाट नेता थे. वीपी सिंह समझ गए थे कि यह वाटरशेड मूवमेंट है और अब इसको भुनाने का सही समय आ गया है. पर उनकी बदकिस्मती यह रही कि इसके पहले कि वे इसे लागू करते, उनकी सरकार गिर गयी.
इसके बाद कांग्रेस की बैसाखी पर चंद्रशेखर ने कुछ दिनों के लिए प्रधानमंत्री बनकर ऐतिहासिक होने की अपनी इच्छा पूरी कर ली. लगभग तीन महीने के बाद कांग्रेस ने बैसाखी हटा ली और चंद्रशेखर इतिहास बन गए. साल 1991 में चुनावों की रणभेरी बज उठी. नेतागण फिर मैदान में उतर गए. इसी दौरान राजीव गांधी की हत्या हो गई, सहानुभूति की लहर पर कांग्रेस ने गठबंधन करके सरकार बना ली . इतिहास करवट लेने जा रहा था और उसने ‘एक्सीडेंटल फ़ाइनेंस मिनिस्टर’ के आने का ऐलान कर दिया था.
आज
मौजूदा सरकार ने ग़रीब सवर्णों को केंद्रीय शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण देकर 29 साल पुराने मुद्दे को हवा दे दी है. राजीव गोस्वामी का तो कुछ साल पहले देहांत हो गया और हमें नहीं पता कि उनके बच्चे, अगर हैं, तो क्या कर रहे हैं. पर अन्य ‘राजीव गोस्वामियों’ के बच्चे अब इतने बड़े तो हो गए होंगे कि वे इस सरकार की मुहिम से आस लगा रहे हों.
सुप्रीम मौजूदा सरकार कोर्ट से कैसे पार पाएगी, यह अभी तय नहीं है. क्यंकि, कोर्ट का आदेश तो साफ़ है कि जो भी बदलाव करना है वह 49.5 फीसदी में ही संभव है. शेष में हिस्सेदारी काबिलियत के आधार पर होगी. सवाल यह भी उठता है कि अगर ऐसा हो पाया तो क्या यह भी ‘वाटरशेड मूवमेंट’ होगा. तो जवाब है- नहीं. इसका सीधा कारण है कि सरकारी नौकरियां तभी मिलेंगी, जब होंगी. वे कम होती जा रही हैं. लोग रिटायर तो हो रहे हैं, लेकिन उनकी जगह नई भर्तियां नहीं की जा रहीं. तो ज़ाहिर है कि सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण एक वादा भर निकलेगा. ‘राजीव गोस्वामी’ के बच्चों को क़ाबिल बनना ही होगा. यह बैसाखी काम नहीं आएगी.
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