स्कूलों में सर्दियों की छुट्टियां और गिरिजाघरों का सजना, क्रिसमस और नए साल के आने का आगाज़ हैं. लेकिन चीन में बड़ा दिन सार्वजनिक अवकाश नहीं होता. जनवरी की पहली तारीख को छुट्टी जरूर रहती है लेकिन यह नए साल की शुरुआत नहीं मानी जाती. चीन बसंत ऋतु में, चंद्र कैलेंडर पर आधारित, नया साल मनाता है.
दुनिया भर में मिशनरियों और उपनिवेशवाद ने ईसाई धर्म का उदारीकरण किया और भूमंडलीकरण ने क्रिसमस का बाज़ारीकरण किया. चीन भी इसका अपवाद नहीं है. सांता की टोपियां, कपड़े और प्लास्टिक के क्रिसमस पेड़ यहां ऐसे छाए रहते हैं जैसे आंधी के बाद आम के टिकोले बिछते हैं. यहां के होटलों और रेस्तराओं में क्रिसमस कैरोल की ध्वनियां आप को यूरोप के किसी देश में होने का आभास देती हैं. लेकिन ये सब चीन के धार्मिक और सांस्कृतिक होने के प्रतीक नहीं हैं बल्कि बाज़ार की एक झलक हैं. सब सजे हैं, लेकिन जिसे सजना था वह कही उदास सा कोने में दुबका है - चर्च.
चीन का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है, न ही अधिकांश जनता का कोई धर्म. बस चीनी संस्कृति है जो दाओ, कन्फ़्यूशियस और बौद्ध धर्मं का सम्मिश्रण है. कहते है कि चीनी व्यक्ति जवानी में कन्फ़्यूशियस, कुछ कठिनाई आए तो बौद्ध और बुढ़ापे और बीमारी में दाओ के दर्शन का सहारा लेता है. मरणोपरांत अधिकांश व्यक्तियों का क्रियाकर्म बौद्ध या दाओ रीतिरिवाजों के अनुसार किया जाता हैं.
चीनी लोग किसी देवी-देवता को नहीं मानते लेकिन, अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं. एक पर्व है, छिंगमिंग. इस दिन वे अपने पूर्वजों की कब्रों को साफ़-सुथरा कर, उस पर फूल, अगरबती और दारू अर्पित करते हैं. सर्दी के औपचारिक आगमन - विंटर सॉल्स्टिस - के दिन वे दोंगचिड पर्व मनाते हैं, मोमो खाकर. ऐसा विश्वास है कि इस दिन मोमो खाने से सर्दियों में कान ठंडे नहीं होंगे.
70 के दशक में चीन में जब आर्थिक सुधार और ख़ुलेपन की नीति लागू हुई, तो यहां मैकडोनाल्ड्स, केएफ़सी और स्टारबक्स कुकुरमुते की तरह उग आये. इन सबने पश्चिमी सभ्यता के तौर-तरीकों से चीनी जनमानस को रूबरू कराया. बर्थडे पार्टियां और केक खाने का चलन बढ़ा. पहले ऐसे अवसरों पर लोग एक विशेष तरह के लंबे नूडल्स खाया करते थे ताकि उनकी आयु नूडल्स की तरह ही लंबी हो.
बाज़ार ने पशिमी सभ्यता को चीन के घर-घर तक पहुंचा दिया. फास्टफूड के साथ-साथ पश्चिमी फैशन का भी चलन बढ़ा. शादियों का परंपरागत लाल जोड़ा सफ़ेद रंग के गाउन में बदल गया. यहां तक भी सब ठीक ही था. पर जब बाहरी प्रभाव की वजह से राजनीतिक और लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग होने लगे तब मामला और हो जाता है. चीन धर्म को निजी रूप में देखता है. लेकिन जब यह समाज और राज्य के ऊपर हावी होने लगता है तो राज्य उसे मजबूती से नियंत्रित करता है.
भारत या दूसरे देशों के उलट चीन का अभी भी वेटिकन सिटी से कोई संबंध नहीं स्थापित हुआ है. कारण, पोप एक राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक धार्मिक सत्ता भी है. वेटिकन दुनिया भर के ईसाई मताबलंबियों और चर्चों को नियंत्रित करता है. चीन को यह मंजूर नहीं. ऐसा नहीं है कि यहां ईसाई धर्म को मनाने वाले नहीं हैं. वे हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही हैं. शहरों से लेकर गांवों तक. लेकिन अधिकांश ग्रामीण चीनी लोग इसको मेल-मिलाप का साधन और निजी स्तर पर बरतने वाली चीज ही मानते हैं. यानी हैं तो ईसाई लेकिन अनुसरण करेंगे चीनी संस्कृति का.
पिछले कुछ समय में चीन में भूमिगत चर्चों - यानी जो राज्य द्वारा नियंत्रित नहीं हैं - की संख्या बढ़ी है, और सरकार का इन पर शिकंजा भी. चीन में धर्म राज्य द्वारा नियोजित है. जब तक शासन पर खतरा नहीं तब तक छूट. सत्ता को चुनौती दी नहीं कि नकेल कसी.
ऐसा नहीं कि बौद्ध धर्म बड़ी आसानी से चीनी समाज का हिस्सा हो गया. उत्तरी छाओ और थांग वंश के समय में बौद्ध धर्म को चीन से समाप्त करने की कोशिश की गई थीं. लेकिन यह बचा रहा तो इसलिए भी कि इसमें कोई ऐसा बाहरी केंद्र नहीं था जो चीनी लोगों को प्रभावित या नियंत्रित करने की कोशिश कर सके, धार्मिक और राजनीतिक रूप से. इसके अलावा बुद्ध और दाओ के दार्शिनिक विचारों में भी चीन को समानता दिखी. इस वजह से ही बौद्ध धर्मं चीन की संस्कृति में रस-बस पाया. यानी धर्म चीनी संस्कृति को स्वीकार करे, उस पर हावी न हो और न ही चीन की सत्ता को चुनौती दे.
डॉ. राजीव रंजन, शंघाई विश्वविद्यालय, चीन में अंतरराष्ट्रीय राजनीति पढ़ाते हैं.
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