हम अपने जीवन में कितनी प्रतिबद्ध वैचारिक यात्राएं कर सकते हैं? जवाब होगा- बमुश्किल एक और बहुतों के लिए वह भी नहीं. मानबेंद्रनाथ राय की ज़िंदगी को अगर देखा जाए तो उनकी जीवन यात्रा का वैचारिक अध्याय हैरान कर देने वाली विविधताओं से भरा है. एक तरफ एमएन राय आज़ादी के क्रांतिकारी समर्थक थे तो दूसरी तरफ विश्व के नामी साम्यवादी भी जिन्हें रूसी क्रांति के जनक लेनिन अपना विश्वस्त मानते थे. और यही एमएन राय वह शख्स भी थे जिसने दुनिया को नव-मानवतावाद का सिद्धांत दिया.


सत्याग्रह पर मौजूद चुनी हुई सामग्री को विज्ञापनरहित अनुभव के साथ हमारी नई वेबसाइट - सत्याग्रह.कॉम - पर भी पढ़ा जा सकता है.


एमएन राय आधुनिक भारत के अत्यंत प्रतिभाशाली राजनीति-विचारक और क्रांतिकारी थे. विश्व भर में साम्यवाद के शैशव और उभार से उनका सीधा नाता रहा. उन्हें हम भारत का पहला साम्यवादी भी कह सकते हैं. रूस में क्रांति (1917) के बाद एमएन राय वहीं चले गए थे. लेनिन (1870-1924) के वे निकट सहयोगी रहे. हम जवाहर लाल नेहरू को देश का पहला वैश्विक नेता मानते हैं. ईमानदारी से कहा जाए तो यह ख़िताब मानबेंद्रनाथ राय को दिया जाना चाहिए. 1930 में एमएन राय लौटकर भारत आए. उन्होंने देश के हालात का विश्लेषण किया और कुछ समय बाद नव-मानववाद का सिद्धांत दिया जिसने उन्हें दुनिया भर में मशहूर कर दिया.

एमएन राय और वैश्विक साम्यवाद

एमएन राय ने अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से समाजवाद पढ़ा. अमेरिका के पहले विश्व युद्ध में कूदने के तुरंत बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. जमानत मिलने पर वे फरार होकर मैक्सिको चले गए और वहां सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की. यह सोवियत संघ के बाहर पहली कम्युनिस्ट पार्टी थी. वे मैक्सिको के पहले राष्ट्रपति के ग़ैर आधिकारिक सलाहकार थे. भारत के चर्चित कम्युनिस्टों में गिने जाने वाले राजेश्वर राव लिखते हैं कि एमएन राय ने जन्मभूमि के प्रति क़र्ज़ की भावना के चलते उसे अपनी कर्मभूमि बनाने की अवधारणा को तोड़ा.

अब तक राय लेनिन की नजरों में आ चुके थे जिन्होंने उन्हें रूस आमंत्रित किया. एमएन राय रूस पहुंचे तो लेनिन यह देखकर हैरान हो गए कि साम्यवाद पर इतनी गहरी सोच रखने वाला शख्स महज़ 30 साल का है. लेनिन ने उन्हें पूरब में भावी क्रांति का परिचायक कहा.

लेकिन लेनिन और एनएम राय की सोच में एक बड़ा फर्क था. लेनिन राष्ट्रवाद की झंडाबरदारी करते थे. उधर, राय का कहना था कि राष्ट्रवाद महज़ भावनात्मक उभार से ज़्यादा कुछ नहीं है और उसका न कोई राजनैतिक आधार है और न सांस्कृतिक. एमएन राय का मार्क्सवाद को किसी राजनीतिक या आर्थिक दृष्टिकोण नहीं देखते थे. उनका इसके प्रति दार्शनिक नज़रिया था. उन्हें रूस की क्रांति महज़ एक इत्तेफ़ाक लगती थी जिसके पीछे कुछ राजनीतिक कारण थे.

एमएन राय को हिटलर का समाजवाद भी तर्कसंगत नहीं लगता था और इसी वजह से वे उन चंद लोगों में से थे जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी और रूस की संधि के जल्द ही टूटने की घोषणा कर दी थी. यह सच साबित हुई. राय का एक और मत था कि आने वाले समय में दुनिया के मुल्क रूस और अमेरिका के बीच झूलते नज़र आयेंगे. यानी उन्होंने शीत युद्ध का पहले ही भान हो गया था.

भारत में समाजवाद की संभावनाएं

भारत में क्रांति की संभावनाओं को लेकर एमएन राय का स्पष्ट मत था. अपनी किताब ‘प्रोस्पेक्टस ऑफ़ रेवोल्यूशन इन इंडिया’ में उन्होंने लिखा कि क्रांति के होने की संभावना नहीं है. उनके मुताबिक अंग्रेज़ सरकार इस बात से खबरदार थी कि जनता में गुस्सा फैल रहा है और इसके पहले वह क्रांति बनकर उभरे, सरकार ने बुर्जुआ समाज को रियायतें देकर अपनी ओर कर लिया है. दूसरी तरफ, एमएन राय का यह भी मानना था कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था उद्योगों के साथ-साथ कृषि को भी लील रही है जिससे खेतिहर समाज को उपनिवेशवाद और भारतीय पूंजीवादी ताक़तों का सामना करना पड़ रहा है.

भारत में औद्योगिक क्रांति क्यों नहीं पनपी, इसे एमएन राय ने बख़ूबी समझाया. उनके मुताबिक़ यूरोप में मशीनी युग की शुरुआत ने इंग्लैंड जैसे देशों को कच्चे माल की आपूर्ति के लिए यहां-वहां भटकने पर मजबूर कर दिया था. इसके चलते भारत जैसे देश उनके उपनिवेश बनकर रह गए. राय का मानना था कि इसी के चलते देश में शहरी सर्वहारा समाज के विकास में देर लगी, वरना कोई वजह नहीं थी कि इस क्रांति से देश अछूता रह जाता.

एमएन राय का यह भी मानना था हिंदुस्तान का भविष्य बड़े-बड़े उद्योगों के भविष्य पर निर्भर है. वे कहते थे कि औद्योगिक उन्नति से कामगार वर्ग के सदस्यों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी. इसलिए भारत को स्वतंत्र कराने का दायित्व मजदूर और किसान वर्ग मिलकर संभालेंगे जो वर्ग संघर्ष के प्रति सजग हो जाने के कारण संगठित हो जाएंगे.

राय की नज़र में गांधी

एमएन राय को बीसवीं सदी के श्रेष्ठ दार्शनिकों में गिना जाता है. 1930 में जब वे भारत आये थे तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था. कुछ साज़िशों में आरोप में उन्हें 11 साल की सज़ा मुक़र्रर हुई जिसे बाद में घटाकर सात साल कर दिया गया. आपको जानकर ताज्जुब होगा कि महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने ब्रिटिश सरकार से उनकी रिहाई की अपील की थी. आइंस्टीन उनके लेख ‘फिलॉसफी ऑफ़ मॉडर्न साइंस’ से बेहद प्रभावित हुए थे.

रिहाई के बाद एमएन राय ने गांधी टोपी पहन ली और चरखा कातने लगे. पर ज़्यादा दिनों के लिए नहीं. राय महात्मा गांधी के व्यक्तिगत गुणों और नेतृत्व की क्षमता के प्रशंसक थे, लेकिन उन्हें गांधीवाद की मान्यताएं सही नहीं लगीं. उनके मुताबिक़ गांधीवाद भारत में पुराने अध्यात्मवाद के पुनर्वास का प्रयास है जबकि देश उससे बहुत आगे निकल चुका है. उनका मानना था कि महात्मा गांधी का सिद्धांत देश को पीछे ले जाएगा. उनकी नज़र में गांधीवाद को जनता के सांस्कृतिक पिछड़ेपन के कारण सम्मान मिला था. एमएन राय यह भी मानते थे कि महात्मा गांधी के नेतृत्व ने अनजाने में जनसाधारण की तर्कसम्मत क्रांति की आग को ठंडा करने की भूमिका निभाई है.

धुर समाजवादी आचार्य नरेंद्र मानते थे कि कराची प्रस्ताव का मसौदा एमएन राय ने ही तैयार किया था पर नेहरू ने उनके योगदान को नहीं माना. यह भी बहुत कम ही ज्ञात है कि संविधान का मसौदा तैयार करने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी. अमेरिकी इतिहासकार ग्रेनविल ऑस्टिन के मुताबिक़ भारतीय संविधान में जो समाजवाद का ख़याल है, वह राय की देन है.

नव-मानववाद की अवधारणा

दूसरे विश्व युद्ध के दिनों में एमएन राय ने अपने फासिस्ट-विरोधी दृष्टिकोण और रूस के स्टालिन से वैचारिक मतभेद के चलते ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया था. जानकारों के मुताबिक तब तक उनका मार्क्सवाद से मोहभंग होने लगा था और वे उदारवाद की ओर झुकने लग गए थे. यहीं से अपने नए चिंतन को उन्होंने ‘नव-मानववाद’ के रूप में विकसित किया. उन्होंने इस विषय पर अनेक किताबें लिखीं.

राजेश्वर राव के मुताबिक़ नव-मानववाद प्रकृति के दर्शन, तत्व और आत्मा के दर्शन का संगम है. यह मनोविज्ञान और दर्शन का भी मेल है जिसका आधार तर्क और विज्ञान है. इसमें मुख्य जोर ‘मनुष्य की स्वतंत्रता’ पर है. इसलिए नव-मानववाद स्वतंत्रता के प्रयोग की अनंत संभावनाओं में आस्था रखते हुए उसे किसी ऐसी विचारधारा के साथ नहीं बांधना चाहता जो किसी पूर्वनिर्धारित लक्ष्य की सिद्धि को ही उसके जीवन का ध्येय मानती हो.

21 मार्च, 1887 को पैदा हुए एमएन राय का नाम पहले नरेंद्र नाथ भट्टाचार्य था. कोलकाता के पास एक गांव में जन्मे राय बचपन में सावरकर की कहानियों, आनंदमठ और बंकिम चन्द्र के राष्ट्रवाद से प्रभावित थे. मैट्रिक की परीक्षा देने से पहले ही वे आजादी के आंदोलन में कूद पड़े. पहले विश्वयुद्ध के दौरान उन्हें इंडोनेशिया भेजा गया जहां से उन्हें चीन और जापान से भारतीय क्रांतिकारियों के लिए हथियार भेजने का ज़िम्मा दिया गया. पकड़े जाने से बचने के लिए नरेंद राय भट्टाचार्य मानबेंद्र नाथ राय बन गए. बाकी तो ऊपर लिखा ही जा चुका है. अंतिम बात यह कि 26 जनवरी, 1954 को उन्होंने आखिरी सांस ली.

एमएन राय का मानना था कि व्यक्ति की तर्कशक्ति उसके ज्ञान के विस्तार के साथ जुड़ी है, इसलिए जहां अज्ञान की सीमाएं टूटती हैं वहां वह नई जीवन-पद्धति की तलाश करता है. राय के मुताबिक यही तलाश उसकी स्वतंत्रता को सार्थक करती है. इसलिए मनुष्य की स्वतंत्रता ज्ञान के साथ-साथ अपनी आकांक्षाओं के भी विस्तार में निहित है.

एमएन राय मानते थे कि मार्क्सवाद, गांधीवाद और लोकतंत्र में से कोई भी प्रणाली व्यक्ति को अपनी अनंत स्वतंत्रता की तलाश नहीं करने देती क्योंकि ऐसी प्रत्येक विचारधारा अपनी-अपनी प्रयोजनवादी दृष्टि से बंधी है. राय का मत था कि ऐसी प्रत्येक विचारधारा पहले से उपलब्ध ज्ञान पर आधारित है और वह मनुष्य को किसी-न-किसी पूर्व-निर्धारित लक्ष्य के साथ बांध देती है, इसलिए वह ज्ञान के अनंत विस्तार और स्वतंत्रता की अनत संभावनाओं को मान्यता नहीं देती.

एमएन राय ज्ञान के अनंत विस्तार और मानव-विकास की अनंत संभावनाओं के प्रति आशावान थे. उनका मानना था कि इस विकास की कोई सीमा नहीं है, इसलिए हमारे वर्तमान ज्ञान के आधार पर इसका कोई पूर्व-निर्धारित लक्ष्य स्वीकार नहीं किया जा सकता. एमएन राय का मानना था कि स्वतंत्रता की पहली शर्त वर्तमान बंधनों को तोड़ना है. उनके मुताबिक पिंजरा तोड़ देने पर पंछी खुले आकाश में किधर उड़ेगा - यह तय करने का प्रयत्न निरर्थक है.