कुछ समय पहले इंडिया स्पेंड ने मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में हुए विधानसभा चुनावों पर एक शोध किया था. इसमें सामने आया है कि इस चुनाव में इन पांच राज्यों में चुने गए कुल विधायकों में महिला विधायकों की संख्या सिर्फ नौ प्रतिशत है. 2013-14 में हुए चुनावों में यह 11 प्रतिशत थी. इनमें मिजोरम अकेला ऐसा राज्य है जहां महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ने के बावजूद आज भी कोई महिला विधायक नहीं है. उधर, छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा यानी राज्य के कुल 14 प्रतिशत महिलाएं चुनी गईं.

इस शोध में सामने आया है कि पिछले तीन विधानसभा चुनावों से महिला मतदाताओं और चुनाव लड़ने वाली महिला उम्मीदवारों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है. इसके बावजूद महिला विधायक बहुत कम संख्या में चुनी जाती हैं. और यह तब है जब वे पुरुष विधायकों से बेहतर काम करती हैं.

कुछ समय पहले यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी के ‘वर्ल्ड इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकनॉमिक्स रिसर्च’ की एक रिपोर्ट सामने आई थी. 2018 में हुए एक शोध के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में महिला विधायकों के निर्वाचन क्षेत्रों में पुरुष विधायकों के निर्वाचन क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा आर्थिक विकास हुआ है. यह शोध महिला विधायकों को चुनने के आर्थिक प्रभावों का विश्लेषण करने के लिए किया गया था. मकसद यह जानना था कि किसी जनप्रतिनिधि के पुरुष या महिला होने से आर्थिक विकास पर कैसा असर पड़ता है. शोधकर्ताओं के अनुसार महिलाओं और पुरुषों के निर्वाचन क्षेत्रों के बीच विकास में एक चौथाई का अंतर पाया गया.

इस शोध को ज्यादा तथ्यात्मक बनाने के लिए नासा द्वारा ली गई तस्वीरों का भी अध्ययन किया गया था. इससे महिलाओं और पुरुषों के विधानसभा क्षेत्रों में बिजली के प्रसार का फर्क सामने आया. इन तस्वीरों में पता चला कि महिला विधायकों के क्षेत्रों मे न सिर्फ बिजली का प्रसार पुरुष विधायकों के इलाकों से ज्यादा हुआ है, बल्कि सड़क निर्माण में भी वे काफी आगे हैं. महिला निर्वाचन क्षेत्रों में पुरुष निर्वाचन क्षेत्रों की अपेक्षा अधूरी सड़क परियोजनाओं की संख्या भी 22 फीसदी कम पाई गई.

लेकिन यह अफसोसजनक है कि महिला विधायकों के इतना बेहतरीन काम करने के बाद भी आम जनता उनकी अपेक्षा पुरुष विधायकों को ही ज्यादा चुनती है. जानकारों के मुताबिक इसके कई कारण हैं. पहला तो यही कि ज्यादातर लोग आज भी राजनीति को सिर्फ पुरुषों का ही कार्यक्षेत्र मानते हैं और उन्हें ही इस क्षेत्र में आगे बढ़ाने में सहयोग करते हैं. बतौर नेता महिलाओं की कार्य क्षमता पर समाज के लोगों को अभी भी ज्यादा विश्वास नहीं है. यहां तक कि स्वयं महिलाएं भी महिला विधायकों पर भरोसा करके उन्हें वोट नहीं देती.

दूसरा, महिलाओं को अपनी आर्थिक स्थिति कमजोर होने का नुकसान राजनीति में भी भरना पड़ता है. कई मानते हैं कि परिवार, पार्टी या फिर अन्य सामाजिक समूहों की तरफ से महिला उम्मीदवारों को चुनाव-प्रचार के लिए उस तरह से दिल खोलकर आर्थिक सहायता नहीं मिलती जैसे कि पुरुषों को मिलती है. आर्थिक रूप से पुरुषों की अपेक्षा कमजोर होने के कारण वे अपने लिए बहुत आक्रामक प्रचार नहीं कर पातीं. इसलिए महिला उम्मीदवार न तो ज्यादा लोगों तक पहुंच पाती हैं और न ही उम्मीदवारों को अपने विश्वास में ले पाती हैं. प्रभावी चुनाव प्रचार से लेकर मतदाताओं को तोहफे देकर लुभाने तक हर मोर्चे पर महिलाएं पुरुष उम्मीदवारों से पिछड़ जाती हैं. इस सबका उन्हें मिलने वाले मतों की संख्या पर बहुत सीधा और नकारात्मक असर पड़ता है.

इसके अलावा बड़ी-बड़ी पार्टियां आज भी बहुत कम संख्या में महिलाओं को टिकट देती हैं. ‘नेशनल इलेक्शन वाच’ नामक एक संस्था के अनुसार भाजपा और कांग्रेस ने इन पांच राज्यों में सिर्फ 12 प्रतिशत महिलाओं को ही टिकट दिया था. महिलाओं को टिकट देने में राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां ही अब भी बहुत ज्यादा उत्साही नहीं दिखातीं. ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों को भी अपने इलाके में महिला उम्मीदवारों को आगे लाने का कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता.

महिलाओं के चुनावी मोर्चे पर पिछड़ने का एक कारण यह भी है कि चुनावों में जिस तरह से जाति, समुदाय और धर्म का कार्ड चलता है उस तरह से लिंग कार्ड नहीं चलता. मतलब यह कि आज भी ज्यादातर वोटर अपने समुदाय या जाति के उम्मीदवार को एकजुट होकर वोट देते हैं. लेकिन यह बात महिला उम्मीदवारों पर लागू नहीं होती. महिला मतदाता कभी भी एकजुट होकर महिला उम्मीदवार को वोट नहीं देतीं.

यहां एक तथ्य यह भी है कि घर-परिवार की महिलाएं अक्सर ही अपनी पसंद से वोट डालने को स्वतंत्र नहीं होतीं. उन्हें परिवार के मुखिया की पसंद से वोट डालना होता है. ज्यादातर मौकों पर परिवार के वोट सामूहिक रूप से किसी खास मतदाता या पार्टी को डाले जाते हैं. इस कारण भी महिला उम्मीदवार के पिछड़ने की संभावना बढ़ जाती है.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से भी सशक्त करेगा. महिलाओं को राजनीतिक रूप से निर्णायक भूमिका में लाने के लिए बड़ी राजनीतिक पार्टियों को पहल करनी होगी. इसके लिए सबसे पहले सालों से लटके महिला आरक्षण बिल को पारित करना होगा. निश्चित तौर पर यह राजनीति में महिलाओं की भूमिका और सक्रियता बढ़ाने में सहयोगी साबित होगा.