संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने 2011 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसका नाम है, ‘रिवीज़न ऑफ द वर्ल्ड अर्बनाइज़ेशन प्रॉसपेक्ट्स’ यानी दुनियाभर में शहरीकरण की संभावना का पुनरीक्षण. इस रिपोर्ट में बताया गया था कि 2050 तक दुनियाभर में सबसे ज़्यादा तेज गति से शहरीकरण भारत में होगा. यहां आज के मुकाबले कुल आबादी के लगभग 60 फ़ीसदी लोग शहरों में रह रहे होंगे. यानी शहरों में आज की मौज़ूदा आबादी की तुलना में लगभग 50 करोड़ लोग बढ़ जाएंगे. चीन दूसरे नंबर होगा. वहां लगभग 34.1 करोड़ लाेग तब तक शहरों में आ बसेंगे. नाइजीरिया में 20 करोड़, अमेरिका में 10 करोड़ से कुछ ज़्यादा और इंडोनेशिया में 9.2 करोड़ लोग उस समय तक शहरों का रुख़ कर चुके होंगे.
संभवत: इसी के मद्देनज़र भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने 2015 में शहरों के विकास के लिए तीन बड़ी योजनाएं शुरू की थीं. इनमें से एक- स्मार्ट सिटी मिशन, दूसरी- अमृत (अटल मिशन फॉर रिजूवनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉरमेशन) और तीसरी- पीएमएवाई-यू (प्रधानमंत्री आवास योजना- शहरी) है. और अब जबकि इन योजनाओं को शुरू हुए लगभग चार साल का समय हो चुका है, साथ ही एनडीए सरकार अपना कर्यकाल भी पूरा कर रही है तो इन्हें वास्तविकता की कसौटी पर परखा जा सकता है. आंकड़ों और तथ्यों का विश्लेषण करने वाली वेबसाइट इंडियास्पेंड ने यह काम किया है, जिस पर नज़र डाली जा सकती है.
स्मार्ट सिटी मिशन :
इस मिशन पर सरकार ने 48,000 करोड़ रुपए ख़र्च करने का लक्ष्य रखा गया था. इसमें से 16,604 करोड़ रुपए आवंटित किए जा चुके हैं. जबकि 3,560 करोड़ रुपए ख़र्च हो चुके हैं. यानी जितनी राशि ख़र्च करने का प्रस्ताव किया गया था उसका लगभग सात फ़ीसदी हिस्सा. शहरी विकास मंत्रालय ने एक जनवरी 2019 को लोक सभा में यह जानकारी दी थी. मिशन के तहत देश के 100 शहरों को 2022 तक ‘स्मार्ट सिटी’ में तब्दील करने का लक्ष्य है. ‘स्मार्ट सिटी’ वह आवासीय इलाका है जहां पानी की आपूर्ति, साफ-सफाई, आवास, कचरा प्रबंधन, आवाज़ाही आदि सब अत्याधुनिक संचार और संवाद माध्यमों से नियंत्रित होंगी. यानी मोबाइल एप्लीकेशन, वेबपोर्टल आदि से. इन ‘स्मार्ट’ शहरों के लिए जो 48,000 करोड़ का बजट है उसमें से प्रतिशहर लगभग 500 करोड़ रुपए केंद्र सरकार दे रही है. इतनी ही रकम राज्य सरकारें लगा रही हैं. इसके लिए वे निजी निवेश की मदद ले रही हैं. चुने हुए शहरों में यह परियोजना या तो पूरे शहर में लागू की जा रही है या उसके किसी चुनिंदा हिस्से में. इसमें ग़ौर करने के लिए दूसरे तमाम पहलू भी हैं :
- केंद्र सरकार ने 11 दिसंबर 2018 को लोक सभा में इसी मिशन के बाबत जो ज़वाब दिया उसके मुताबिक अब तक केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने चुने हुए 100 शहरों में 5,151 परियोजनाएं मंज़ूर की हैं. इनकी लागत 2.05 लाख करोड़ रुपए है. इनमें से 30 नवंबर 2018 तक 51,866 करोड़ रुपए की 1,675 परियोजनाओं पर काम शुरू हुआ है. यानी एक तिहाई के आसपास. लेकिन ये कब पूरी होंगी, मंत्रालय के ज़वाब में स्पष्ट नहीं है.
- इस मिशन की आलोचना भी हो रही है. शहरी विकास मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति ने जुलाई-2018 में अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मिशन पर बीते तीन साल में 16,604 करोड़ रुपए आवंटित हुए लेकिन संशोधित ख़र्च 10,094 करोड़ रुपए से कम बताया गया. इस तरह के आंकड़े ‘उलझाने वाले’ लग रहे हैं.
- इसके अलावा समिति ने यह भी पाया कि इस मिशन के तहत काम करने वाली एजेंसियों में आपसी समन्वय भी नहीं है. एक एजेंसी दूसरी के काम को बदलकर नए सिरे से कर रही है. इसीलिए अब तक इस मिशन के तहत जो लाभ जनता को होते दिखने चाहिए वे नहीं दिख रहे हैं. बल्कि इस मिशन की वज़ह से छोटे शहरों में ख़ास तौर पर ‘बेतरतीब किस्म का विकास’ दिखने लगा है.
अमृत :
‘अमृत’ यानी अटल मिशन फॉर रिजूवनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉरमेशन से पहले केंद्र सरकार की एक और योजना होती थी- जेएनएनयूआरएम (जवाहरलाल नेहरू अर्बन रिनुअल मिशन). उसका भी मक़सद वही था जो ‘अमृत’ का है- शहरों में मूलभूत सुविधाएं विकसित करना. हालांकि ‘अमृत’ के तहत कुछ चीजों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है. जैसे- पानी की आपूर्ति, सीवेज, सैप्टेज प्रबंधन यानी मल-जल निकासी का इंतज़ाम और तेज बारिश-बाढ़ जैसी स्थितियों में पानी की निकासी की व्यवस्था. इस योजना के तहत केंद्र सरकार ने पांच साल यानी 2019-20 तक राज्य सरकारों को 50,000 करोड़ रुपए की मदद देने का वादा किया है. इसमें से 27 फ़ीसदी यानी लगभग 13,447 करोड़ रुपए दिए भी जा चुके हैं. इसमें से भी 9,877 करोड़ रुपए का इस्तेमाल हुआ है. ये लगभग कुल बजट के 19.88 प्रतिशत के आसपास है. यह जानकारी केंद्र सरकार ने ही लोक सभा में एक सवाल के ज़वाब में दी है. केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने यह जवाब एक जनवरी 2019 को दिया है. इसके अलावा कुछ और जरूरी बिंदुओं पर भी गौर करते हैं :
- मंत्रालय ने इसके अलावा कुछ अहम जानकारियां विभागीय स्थायी संसदीय समिति को भी दी हैं. इनसे योजना की वस्तुस्थिति का अंदाज़ा लग सकता है. मसलन- मंत्रालय ने जुलाई-2018 में समिति बताया है कि ‘अमृत’ के तहत जो परियाेनाएं चल रही हैं वे ज़्यादातर लंबी अवधि की हैं. आने वाले तीन साल में उनके पूरे होने की संभावना है. यानी उस समय दिए गए ज़वाब के हिसाब से 2021 तक.
- इस योजना के बारे में एक ग़ौर करने लायक बात ये भी है कि देशभर में चल रहीं इससे जुड़ी परियोजनाओं की ज़मीनी प्रगति के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है. मंत्रालय ने स्थायी संसदीय समिति को जो जानकारियां दी हैं वही इसके आकलन का ज़रिया हैं. इन्हीं में बताया गया है कि देशभर के शहरों में पानी की आपूर्ति से संबंधित 600 परियोजनाएं चल रही हैं. इनकी लागत 21,762 करोड़ रुपए है. इनमें से 112 करोड़ की 42 परियोजनाएं यानी लगभग सात फ़ीसदी के करीब ही (जुलाई-2018 तक) पूरी हुई हैं.
- सीवेज-सैप्टेज प्रबंधन से संबंधित 15,058 करोड़ रुपए की 318 परियोजनाएं चालू हैं. इनमें से जुलाई-2018 तक चार परियोजनाएं पूरी हुई हैं. यानी सिर्फ़ 1.3 फ़ीसदी. वहीं तेज बारिश-बाढ़ जैसी स्थितियों में पानी की निकासी की व्यवस्था से जुड़ी 71 परियोजनाएं मंज़ूर की गईं. इनकी लागत 1,139 करोड़ रुपए है. इनमें से चार करोड़ रुपए की 11 परियोजनाएं (15 प्रतिशत) ही तब तक पूरी हो पाई थीं.
पीएमएवाई (यू):
केंद्र सरकार ने एक जनवरी 2019 को लोक सभा में ही पीएमएवाई के बारे में कुछ जानकारी दी थी. इसके मुताबिक योजना के तहत पूरे देश में मकानों के निर्माण के लिए लगभग एक लाख करोड़ रुपए की केंद्रीय मदद मंज़ूर की जा चुकी है. इसमें से 33,652 करोड़ रुपए आवंटित किए गए और कुल मंज़ूरी के लगभग 20 फ़ीसदी के बराबर यानी 20,892 करोड़ रुपए की राशि का उपयोग हो पाया है. अब कुछ और जरूरी तथ्यों पर नजर डालते हैं :
- इस योजना की स्थिति अगर आंकड़ों की ज़ुबान में ही समझी जाए तो 10 दिसंबर 2018 तक 68 लाख मकानों के निर्माण को मंज़ूरी दी गई है. जबकि 2022 तक 1.2 करोड़ मकान बनाने का लक्ष्य तय किया गया है.
- इसमें से अब 35 लाख मकान बनने शुरू हुए हैं. यानी लगभग लक्ष्य के 29 प्रतिशत के आसपास. जबकि 12 लाख मकान पूरे हो चुके हैं. मतलब कुल लक्ष्य के 10 फ़ीसदी के क़रीब.
- इस हिसाब से विशेषज्ञों की मानें तो 2022 तक ज़रूरतमंदों के लिए 1.2 करोड़ मकान बनाकर देने का लक्ष्य हासिल करने के लिए सरकार को अब रोज 9,813 मकानों का निर्माण पूरा करना होगा.
यानी इन तीनों योजनाओं के बारे में कुछ चीजें लगभग एक जैसी नज़र आ रही हैं. जैसे- इन तीनों योजनाओं के शुरू होने के बाद से अब तक केंद्र से निर्धारित राशि के सात से 20 प्रतिशत का ही इस्तेमाल हो पाया है. यानी ये योजनाएं फंड की कमी का सामना कर रही हैं. दूसरी बात कि अब तक इन योजनाओं के तहत जितने भी काम शुरू किए गए उनमें से बमुश्किल एक तिहाई ही ऐसे हैं जो 2019-20 और 2021-22 की समयसीमा में पूरे हो पाएं.
यही वज़ह है कि तमाम जानकार इन योजनाओं को लेकर कुछ सवाल भी उठाते हैं. दिल्ली स्थित एक थिंक-टैंक सीबीजीए (सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी) के शोध समन्वयक नीलांचल आचार्य कहते हैं, ‘शहरों से जुड़ी सरकारी योजनाओं की प्रगति का आकलन कर पाना बेहद मुश्किल है. क्योंकि सरकार जो आंकड़े बता रही है वे अंतरविरोधी हैं. इन पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता. इसीलिए ज़मीनी स्तर पर क्या हो रहा है ये पता लगा पाना बेहद मुश्किल है.’
इसी तरह दिल्ली स्थित एक अन्य थिंक टैंक ‘सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च’ के सलाहकार टीआर रघुनंदन कहते हैं, ‘जिस अंदाज़ में इन योजनाओं का काम चल रहा है, उसमें पारदर्शिता बिल्कुल नहीं है. योजनाओं के तहत चलाए जा रहे कामों के लिए कौन ज़िम्मेदार होगा, कौन नहीं यह भी स्पष्ट नहीं है. ऐसे में इनका आकलन भी ज़ाहिर तौर पर मुश्किल ही है.
(आंकड़ों और तथ्यों का विश्लेषण करने वाली वेबसाइट इंडियास्पेंड के लिए यह लेख एलीसन सलदान्हा ने लिखा है. वे इस वेबसाइट में सहायक संपादक हैं.)
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