आरक्षण की मांग को लेकर राजस्थान में गुर्जरों ने शुक्रवार को फिर से आंदोलन शुरू कर दिया है. इससे पहले भी यह समुदाय इसी मांग के चलते 2007, 2008, 2009, 2010 और 2015 में उग्र आंदोलन कर चुका है. इनमें से भाजपा सरकार के समय (2003-08) हुए शुरुआती दो आंदोलनों में समुदाय के कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था. अलग-अलग रिपोर्टेें इनकी संख्या 65 से 75 के बीच बताती हैं. कई हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ, सो अलग. लेकिन यदि कोई पूछे कि गुर्जरों ने इस सब से हासिल क्या किया, तो मोटा जवाब है ‘कुछ नहीं!’

फिलहाल इस आंदोलन को लेकर राजनैतिक हलकों में क़यासों के दौर गर्म हो चुके हैं. कुछ का कहना है कि हर बार की तरह इस बार भी समाज के हाथ सरकारी दिलासा ही लगेगा. वहीं, कुछ अन्य की मानें तो इस बार गुर्जर बिना अपनी मांग मनवाए पटरियां नहीं छोड़ने वाले! इस मसले पर बातचीत के लिए राजस्थान की सरकार ने तीन सदस्यों की समिति बनाई थी. इस समिति में शामिल पर्यटन मंत्री विश्वेन्द्र सिंह और भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी नीरज के पवन शनिवार को आंदोलन का नेतृत्व कर रहे किरोड़ी सिंह बैंसला से मिलने धरनास्थल पर पहुंचे थे. लेकिन इन लोगों से मुलाकात के बाद भी बैंसला ने रेल पटरियों से हटने से मना कर दिया.

आंदोलन से जुड़ी चर्चाओं में एक प्रमुख चर्चा लोकसभा चुनाव से ठीक पहले के इसके समय और कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की राजनैतिक महत्वाकांक्षा से भी जुड़ी है. लेकिन इसका ज़िक्र फिर कभी. अभी के लिए सिर्फ यह जान लीजिए कि 2009 में बैंसला भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव में पटखनी खा चुके हैं. दो महीने पहले हुए राजस्थान विधानसभा चुनावों में यह कानाफूसी भी जमकर हुई थी कि कर्नल बैंसला ने अपने बेटे विजय सिंह बैंसला को टिकट दिलवाने के लिए भाजपा और कांग्रेस, दोनों दलों से संपर्क किया था. लेकिन बात नहीं बनी. इसके बाद बैंसला द्वारा बहुजन समाज पार्टी के लिए प्रचार करने की ख़बरें सामने आई थीं.

अब सवाल इस आंदोलन से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण पहलू का. सूबे के कई राजनीतिकारों का कहना है कि लोकसभा चुनाव से महज दो महीने पहले हुआ यह आंदोलन महीनेभर पुरानी कांग्रेस सरकार और खासतौर पर उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के लिए बड़ा सिरदर्द बन सकता है. गौरतलब है कि सचिन पायलट भी लड़ाका कहे जाने वाले गुर्जर समुदाय से ही ताल्लुक रखते हैं. और यही बात उनके राजनैतिक कैरियर के लिए समय-समय पर चुनौतियां खड़ी करती रही है.

इसकी ताज़ा बानगी विधानसभा चुनावों के दौरान उनके चुनावी क्षेत्र टोंक में देखने को मिली. वहां सचिन पायलट की दावेदारी के बाद गुर्जर समुदाय ने अचानक अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश शुरु कर दी. ज़ाहिर तौर पर इस बात ने दूसरे समुदायों के मतदाताओं पर नकारात्मक असर डाला. हालांकि भाजपा के प्रति नाराज़गी और माफ़िक जातिगत समीकरणों के चलते सचिन पायलट बड़ी जीत हासिल करने में सफल रहे.

इसके बाद मौका था प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की दावेदारी का. तब सचिन पायलट, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सामने मजबूती से डटे हुए थे. लेकिन, पता नहीं क्यों गुर्जर समुदाय के बहुत से लोगों को लगा कि उनका नेता कमजोर पड़ रहा है. फिर क्या था! समुदाय ने सड़क पर प्रदर्शन शुरु कर दिए. टायर जलाए. परिवहन बाधित किया. कुछ अतिउत्साहित युवाओं ने तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तक के विरोध में नारे लगा दिए. जानकारों के मुताबिक इसका अंजाम इसके सिवाय और क्या हो सकता था कि पार्टी हाईकमान के सामने पायलट की दावेदारी अचानक से कमजोर होती चली गई. शुरुआती चुप्पी के बाद सचिन पायलट को भी अपने समर्थकों से शांति और अनुशासन बनाए रखने की अपील करनी पड़ी.

प्रदेश के एक वरिष्ठ राजनीतिकार का इस बारे में कहना है कि अपने समुदाय में अपना ऐसा प्रभाव देखकर सचिन पायलट शायद मन ही मन खुश थे. लेकिन असल में उन्हें इस बात से नुकसान ही हुआ. दो-तीन दिन के उस घटनाक्रम ने उन्हें प्रदेश के बजाय एक समुदाय विशेष के नेता के तौर पर स्थापित कर दिया.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘अब, जब पायलट की छवि गुर्जरों का रहबर के तौर पर स्थापित हो गई, जैसा कि अपना मजबूत जनाधार दिखाने के लिए वे चाहते भी थे, इस आंदोलन को काबू करने में उनकी जिम्मेदारी भी ज्यादा मानी जा रही है.’

शायद यही कारण था कि इस सप्ताह हुई एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में गुर्जर आंदोलन से जुड़े सवाल पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सारे माइक सचिन पायलट की तरफ खिसका दिए. इस पर सचिन पायलट ने पत्रकार से पूछा भी कि उनका सवाल पार्टी से था या सरकार से. लेकिन जवाब दिया अशोक गहलोत ने. चुटीले अंदाज में उन्होंने कहा कि वे (पायलट) सरकार भी हैं और पार्टी भी.

जानकार इस बात से इन्कार नहीं करते कि गुर्जर, जानबूझकर सचिन पायलट को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते. और यह बात भी सही है कि इसी के मद्देनज़र गुर्जरों की बड़ी तादाद इस आंदोलन में शरीक नहीं हुई है. लेकिन मोटे तौर पर आमजन, आंदोलन के चलते हुई अपनी तमाम परेशानियों के लिए पूरे समुदाय को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं. आशंका है कि लोगों की इस नाराज़गी का असर लोकसभा चुनाव में सचिन पायलट के जरिए कांग्रेस तक पहुंच सकता है.

गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के एक संस्थापक सदस्य हिम्मत सिंह गुर्जर इस आशंका से इन्कार नहीं करते. वे कहते हैं, ‘इस बार इस आंदोलन को कर्नल बैंसला ने जितना अपने फायदे के लिए खड़ा किया है, उससे ज्यादा उनकी कवायद सचिन पायलट को नुकसान पहुंचाने की है.’ अपनी बात के पक्ष में गुर्जर सोशल मीडिया पर वायरल हो रही एक ऑडियो क्लिप को सत्याग्रह के सामने पेश करते हैं जिसमें कथित तौर पर बैंसला, पायलट को समर्थन देने पर एक गुर्जर युवा पर जमकर बरस रहे हैं.

समाजशास्त्री राजीव गुप्ता इस पूरे घटनाक्रम को लेकर कहते हैं कि गुर्जरों के आरक्षण की गेंद अब केंद्र सरकार के पाले में है. इसलिए समुदाय को केंद्र के खिलाफ प्रदर्शन करना चाहिए. लेकिन राज्य सरकार के विरोध में किया गया यह आंदोलन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ कहीं न कहीं सचिन पायलट को कमजोर करने की भी साजिश नज़र आता है.

गुर्जर राजनीति से जुड़े राजवीर सिंह दीवान इस बात से इन्कार नहीं करते. इस पूरे मामले में सचिन पायलट की दुविधा का ज़िक्र करते हुए दीवान कहते हैं कि आंदोलन के शुरुआती चरणों में पायलट ने समुदाय को खुला समर्थन दिया था. लेकिन अब, जब वे खुद को गुर्जर नेता के तौर पर स्थापित कर चुके हैं, और सरकार में भी हैं तो यह आंदोलन उनके लिए दोधारी तलवार साबित होने वाला है. दीवान कहते हैं, ‘पायलट की स्थिति बेताल वाले विक्रम जैसी हो गई है. अब वे समुदाय के पक्ष में बोले तो आफत और न बोले तो आफत.’

हालांकि सचिन पायलट के समर्थक इस तरह की बातों से इत्तेफाक़ नहीं रखते. वे कहते हैं कि गुर्जर आरक्षण आंदोलन तब से होता रहा है जब सचिन पायलट राजस्थान की राजनीति में सक्रिय भी नहीं थे. ऐसे में उन पर इस आंदोलन कोई खास फर्क़ नहीं पड़ेगा. हां, पायलट के बीच में होने की वजह से आंदोलनकारियों को समझाने में सरकार को मदद जरूर मिलेगी.